फ़िल्म-डॉक्टर जी
निर्देशक – अनुभूति कश्यप
कलाकार – आयुष्मान खुराना,शेफाली शाह,रकुलप्रीत सिंह,शीबा चड्ढा और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग -दो
अभिनेता आयुष्मान खुराना की पहचान इंडस्ट्री में ऐसे अभिनेता के तौर पर है, जिनकी फिल्में ज्यादातर समाज के अलग-अलग मुद्दों की नब्ज टटोलती आयी है. आज रिलीज हुई फिल्म डॉक्टर जी में वह डॉक्टर की भूमिका में आए हैं. उनकी यह कॉमेडी ड्रामा फिल्म भी समाज के एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर सवाल उठाती है , जिसमे हमारा समाज तय करता है कि महिलाओं और पुरुषों को क्या काम करना चाहिए,क्या खेलना चाहिए,क्या पढ़ना चाहिए. फिल्म का कांसेप्ट,एक्टर्स का सिलेक्शन उम्दा है, लेकिन फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले इस मुद्दे के साथ सशक्त ढंग न्याय नहीं कर पाए हैं. जिससे यह एक कमजोर फिल्म बनकर रह गयी है.
फिल्म भोपाल में स्थापित है. फिल्म की कहानी उदय गुप्ता(आयुष्मान खुराना)की है. वह ऑर्थोपेडिक सर्जन बनना चाहता है,लेकिन गर्ल फ्रेंड से ब्रेकअप की वजह से उसके मार्क्स कम आ गए और उसको एडमिशन प्रसूति और स्त्री रोग विभाग में हो जाता है. वह गाइनोकोलॉजिस्ट बिल्कुल भी बनना नहीं चाहता है. समाज के पूर्वाग्रह सोच से वह भी ग्रसित है. जिस आदमी की सोच है कि बैडमिंटन लड़कियों का खेल है और क्रिकेट लड़कों का. ऐसी सोच वाले उदय गाइनोकोलॉजिस्ट कैसे बन सकता है. यही इस फिल्म की कहानी की आगे की जर्नी है और उदय गुप्ता की भी.
निर्देशिका अनुभूति कश्यप की बतौर निर्देशक यह पहली फीचर फिल्म है. उन्होंने एक सशक्त कांसेप्ट को अपनी कहानी के लिए चुना है, इसके लिए उनकी तारीफ होनी चाहिए, लेकिन फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले पर उन्हें काम करने की जरुरत थी. दो घंटे की अवधि वाली इस फिल्म का फर्स्ट हाफ बेहद कमजोर है, बस उसे जबर्दस्ती खींचा गया है. यह कहना गलत ना होगा. सेकेंड हाफ में कहानी थोड़ी संभलती ज़रूर है ,लेकिन फिर कमज़ोर ड्रामे से भरा क्लाइमेक्स आ जाता है और बात बिगड़ जाती है. फिल्म में महिला और पुरुष के बीच काम ,खेल और पढ़ाई के अंतर को रखने के साथ- साथ मेल टच,एक उम्रदराज मां की क्या ख्वाहिशें नहीं हो सकती है. यह फिल्म इस पर भी शिक्षित करती है. एक लड़का लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते हैं. इस बात को भी फिल्म रखती है लेकिन मुद्दों की अधिकता हो गयी है और स्क्रीनप्ले में भी उन्हें सशक्त ढंग से पिरोया नहीं गया है.
इसके अलावा यह एक कॉमेडी फिल्म है,लेकिन फिल्म में ड्रामा ज़्यादा हो गया है,जिससे यह फिल्म वो प्रभाव नहीं छोड़ पाती है,जो आयुष्मान की आमतौर पर फिल्में जादू करती हैं. गौरतलब है कि आयुष्मान खुराना ने सोशल मैसेज वाली कॉमेडी फिल्मों से इंडस्ट्री में अपनी एक खास पहचान बनायी है,लेकिन अब उन्हें यह समझने की जरुरत है कि यह फार्मूला अब रिपीट सा हो गया है. उन्हें खुद के साथ नए प्रयोग करने की जरुरत है. फिल्म के दूसरे पहलुओं पर बात करें तो सिनेमेटोग्राफी अच्छी है. गीत संगीत में न्यूटन एक दिन सेब गिरेगा एक अच्छा प्रयोग है लेकिन एंड क्रेडिट्स वाले गाने की जरुरत बिल्कुल नहीं थी. जिस तरह से फिल्म खत्म होती है उसके प्रभाव को वह गाना और कम कर जाता है. फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक अच्छा है.
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फिल्म के स्क्रीनप्ले में खामियां हो सकती हैं ,लेकिन एक्टर्स के परफॉर्मेंस में नहीं है. आयुष्मान को इस तरह की जॉनर वाली फिल्मों में महारथ हासिल है और एक बार फिर वह अपने रोल को बखूबी निभा गए हैं. शेफाली शाह ने सशक्त मौजूदगी दर्शायी है. रकुलप्रीत का काम औसत है. शीबा चड्ढा जरूर दिल जीत ले जाती हैं. अपने किरदार को उन्होंने अपनी मासूमियत, बॉडी लैंग्वेज हो या संवाद सभी से खास बनाया है. बाकी के सह कलाकारों ने भी अपने-अपने किरदारों के साथ न्याय किया है.
देखें या ना देखें
आयुष्मान खुराना की यह टैबू कॉमेडी फिल्म पर्दे पर वह जादू नहीं ला पायी है,जिसके लिए आयुष्मान जाने जाते हैं. रिव्यू पढ़कर यह आप पर निर्भर है कि आप इस फिल्म को थिएटर में देखेंगे या ओटीटी पर रिलीज का इंतजार करेंगे.