Jhund Film Review
फ़िल्म-झुंड
निर्देशक- नागराज मंजुले
कलाकार- अमिताभ बच्चन,नागराज मंजुले, रिंकू,आकाश और अन्य
प्लेटफार्म- सिनेमाघर 4 मार्च
रेटिंग – तीन
हमारे देश में दो भारत बसते हैं एक अमीर तो दूसरा गरीब.इस बात से हम सभी परिचित हैं. सैराट फेम निर्देशक नागराज मंजुले की फ़िल्म झुंड इनदोनों भारत को मिलाने की कोशिश का नाम है. नागराज मंजुले सामाजिक मुद्दों को अपनी फिल्मों में बेबाकी से सामने लाने के लिए जाते हैं. यह फ़िल्म भी अछूती नहीं है.यह स्पोर्ट्स ड्रामा फ़िल्म समाज की कड़वी सच्चाई को बयां करती है.
फ़िल्म की कहानी असल जिंदगी से प्रेरित है. ये कहानी विजय बोराडे की है.जिन्होंने झोपड़पट्टी के बच्चों को लेकर एक फुटबॉल क्लब स्लम सॉकर की शुरुआत की. उनकी इसी जर्नी को इस फ़िल्म में दिखाया गया है. अमिताभ बच्चन विजय बोराडे की भूमिका में हैं.वे एक प्रतिष्ठित कॉलेज के स्पोर्ट्स कोच हैं.वे जल्द ही रिटायर होने वाले हैं. पॉश और सुविधाओं से सम्पन्न कॉलेज के एक दीवार पार झुग्गी झोपड़ियां हैं.जहां ज़िन्दगी अभावों से जूझ रही है.
एक दिन विजय झोपड़पट्टी के बच्चों को प्लास्टिक के डिब्बे से फुटबॉल खेलते देखता है. दिमाग में कुछ सूझता है.वह बच्चों को कहता है कि हर दिन उसके लिए वे लोग आधा घंटा फुटबॉल खेलें वह उनको 500 रुपये देगा. बस यही से कहानी शुरू हो जाती है.यह आधे घंटे का खेल ना सिर्फ झोपड़पट्टी के बच्चों को अपराध और नशे से दूर करता है बल्कि एक बेहतर ज़िन्दगी पाने में भी उनकी मदद करता है .जो उनके लिए किसी सपने जैसा है लेकिन यह सब आसानी से नहीं होता है. इन बच्चों की अपनी कमजोरियां हैं तो इन बच्चों से हाथ भर मिलाने से कतराने या मिलाकर हाथ साफ करने वाला समाज इन्हें अपनी बराबरी करने देगा.ये भी महत्वपूर्ण सवाल है. जिसका जवाब जानने के लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी.
फ़िल्म की कहानी में नयापन नहीं है यह भी एक अंडर डॉग के जीतने की कहानी है लेकिन इस कहने का अंदाज़ ना सिर्फ नया है बल्कि बहुत दिलचस्प भी है. जो इस तीन घंटे की फ़िल्म से आपको जोड़े रखता है.
उदाहरण के तौर पर फुटबाल मैच के दौरान झोपड़पट्टी की टीम को जिस तरह से एक बुजुर्ग इंसान चीयर करता नजर आता है.वह बहुत खास है. पूरी फिल्म का ट्रीटमेंट लाइट रखा गया है.
झोपड़पट्टी के बच्चों की अपनी कहानी सुनाने वाला दृश्य भी काफी अनोखा और रियल है.निर्देशक नागराज मंजुले सामाजिक मुद्दों को अपनी फिल्मों में बेबाकी से सामने लाने के लिए जाते हैं. यह फ़िल्म भी अछूती नहीं है.रिंकू का किरदार ,अपने पिता के साथ अपने पहचान पत्र के लिए हर दरवाजे पर दस्तक दे रहा है जबकि गांव की दीवारों पर डिजिटल इंडिया के पोस्टर्स लगे हुए हैं. वर्ग विभाजन को इस फ़िल्म मेंं सिर्फ झुग्गी झोपड़ियों,गलियों और उनमें पसरी गंदगी से नहीं दिखाया गया बल्कि किरदारों के लुक से भी इस अंतर को और पुख्ता बनाया है.जो पहले फ्रेम से ही इस फ़िल्म को और विश्वसनीय बना देती है.जाति विभाजन और महिलाओं की हक के मुद्दे को भी छुआ गया है.
खामियों की बात करें तो सेकेंड हाफ में कहानी थोड़ी लंबी खींच गयी है. एडिटिंग पर थोड़ी काम करने की ज़रूरत थी.
अभिनय के पहलू पर बात करें तो अमिताभ बच्चन एक बार फिर शानदार रहे हैं.उन्होंने स्पोर्ट्स कोच की भूमिका को बखूबी आत्मसात किया है.उनकी मौजूदगी इस फ़िल्म को और खास बना देती है.
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फ़िल्म के गीत संगीत की बात करें तो यह फ़िल्म इसके किरदारों की दुनिया और जद्दोजहद को बखूबी पेश करता है इसके लिए संगीतकार अजय अतुल और गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य की तारीफ करनी होगी. साकेश का बैकग्राउंड स्कोर भी बेहतरीन बन पड़ा है
फ़िल्म के संवाद औसत रह गए हैं.अमिताभ का मोनोलॉग यादगार नहीं बन पाया है.दूसरे पहलुओं की बात करें तो फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी उम्दा है. फ़िल्म में दोनों भारत को दिखाने के लिए अलग अलग शॉट्स का बखूबी इस्तेमाल किया है. फ़िल्म का ड्रोन शॉट वर्ग विभाजन को बखूबी दिखाता है तो नीचे शॉट में झुग्गी झोपड़ियों ,उनकी गलियों और उनकी आसपास की अभावग्रस्त दुनिया को सटीक ढंग से पर्दे पर उतारा गया है.