फ़िल्म-मिशन मजनू
निर्देशक-शांतनु बाग़ची
कलाकार-सिद्धार्थ मल्होत्रा, रश्मिका मंदाना, कुमुद मिश्रा,शारीब हाशमी, परमीत सेठी, शिशिर शर्माऔर अन्य
प्लेटफार्म-नेटफ्लिक्स
रेटिंग- दो
गुमनाम नायकों की ज़िंदगी बीते कुछ सालों से सिनेमा का सुपरहिट फार्मूला बन चुकी है. अगर मामला स्पाय थ्रिलर वाला है तो फिर क्या कहने. बेबी, टाइगर, राजी, रोमियो अकबर वॉटर , बेलबॉटम सहित कई फिल्मों और अनगिनत वेब सीरीज में इस रहस्य्मयी दुनिया को अब तक दिखाया जा चुका है. इसी की अगली कड़ी सिद्धार्थ मल्होत्रा की फिल्म मिशन मजनू है. इस विषय पर फिल्मों और वेब सीरीज की अधिकता होने की वजह से इस फिल्म के मेकर्स के सामने ये बड़ी चुनौती थी कि एक ऐसी कहानी को लेकर आएं , जिसमें रहस्य और रोमांच से भरपूर हो. फिल्म की कहानी एक लाइन में भले ही सुनने में रोचक लग सकती हैं , लेकिन पर्दे पर कहानी और स्क्रीनप्ले दोनों ही बेहद कमज़ोर रह गए हैं. जिस वजह से मिशन मजनू एंटरटेनमेंट के मिशन में असफल रह जाती है.
फिल्म की कहानी की बात करें तो फिल्म की कहानी सच्ची घटनाओं से प्रेरित है. स्पाय थ्रिलर फिल्म है, तो भारत और पाकिस्तान कहानी की धुरी होंगे ही. यहाँ भी हैं. फिल्म का कालखंड १९७४ और उसके आसपास का है. भारतीय जासूस अमनदीप उर्फ़ तारीक पाकिस्तान में एक भारतीय जासूस है. वहां वह दर्जी का काम सभी को दिखाने के लिए करता है , लेकिन उसका असल काम पाकिस्तान की संदिग्ध गतिविधियों के बारे में हिंदुस्तान को सूचित करना है. खासकर पाकिस्तान के परमाणु हथियार के कार्यक्रम का पर्दाफाश करने का. जिसमें दो और अंडरकवर एजेंट शारिब हाशमी और कुमुद मिश्रा भी उसके साथ हैं. हीरो है अंडर कवर एजेंट है ,तो क्या हुआ.. प्यार तो होना ही है तो पाकिस्तान में भी है. वो नसरीन ( रश्मिका मंदाना ) के प्यार में है, उससे शादी भी कर चुका है और जल्द ही पिता बनने वाला है. कहानी का ट्विस्ट ये नहीं है बल्कि ये है कि भारत में सरकार का सत्ता पलट हो चुका है. इंदिरा गाँधी अब प्रधानमंत्री नहीं हैं. नयी सरकार रॉ विंग को खत्म करना चाहती है , लेकिन रॉ प्रमुख काव ( परमीत सेठी ) अपनी जिम्मेदारी पर इस काम को अंजाम देना चाहती है. क्या ये लोग पाकिस्तान के परमाणु बम बनाने के मंसूबे को विफल कर पाएंगे. यही फिल्म की कहानी है.
फिल्म की कहानी सुनने में रोचक लग सकती है , लेकिन पर्दे पर किरदारों को स्थापित करने में और असल मुद्दे पर आने में फिल्म काफी समय ले लेती है. इस तरह की फिल्मों का असल रोमांच इसका कहानी से जुड़ा थ्रिलर होता है. फिल्म देखते हुए इसकी जबरदस्त कमी महसूस होती है. जब तारीक उसका साथी पकड़ा जाता है , तो उस वक़्त रोंगटे खड़े नहीं होते हैं. फिल्म में इजरायल के एंगल को ठीक तरह से दर्शाया नहीं गया है. वह आधा अधूरा सा लगता है. एक्शन पर भी काम करने की ज़रूरत थी. हाँ फिल्म का क्लाइमेक्स ज़रूर अच्छा बन गया है.
70 का दशक के पर्दे पर उस तरह से सामने नहीं आ पाया है , जैसी कहानी की ज़रूरत थी. मेकर्स को उस दशक के पाकिस्तान को दर्शाना था . वह पर्दे पर नहीं आ पाया है.फिल्म में उस दशक की फिल्म शोले और धर्मेद्र और हेमा मालिनी के संवाद का भी प्रयोग हुआ है. इसके अलावा फिल्म में इंदिरा गाँधी और जिया उल हक़ की असली क्लिपिंग भी जोड़ी गयी है. देशभक्ति की भावना से ओत प्रोत इस फिल्म का ना तो संवाद और ना ही गीत यादगार बन पाया है. पाकिस्तानी भाषा को दर्शाने के लिए हर दूसरे वाक्य में जनाब , मियां और भाईजान को जोड़ा गया है.
अभिनय की बात करें तो कमज़ोर कहानी ने सिद्धार्थ मल्होत्रा के किरदार को प्रभावी बनने नहीं दिया है. उन्होंने अपने किरदार में मेहनत की है , लेकिन कई जगह वे चूके भी हैं. रश्मिका मंदाना खूबसूरत लगी हैं हालांकि फिल्म में उनके करने के लिए कुछ खास नहीं था . इन सबके बीच कुमुद मिश्रा अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं. शारिब हाशमी भी उम्मीदों पर खरे उतरते हैं. परमीत सेठी को एक अरसे बाद फिल्मों में देखना दिलचस्प है. बाकी के किरदारों ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय करने की अच्छी कोशिश की है.