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फ़िल्म- राधेश्याम
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निर्देशक-राधाकृष्ण कुमार
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कलाकार– प्रभास,पूजा हेगड़े, सचिन खेडेकर,मुरली शर्मा, भाग्यश्री,सत्यराज और अन्य
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प्लेटफार्म-सिनेमाघर
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रेटिंग- 2/5
पैन इंडिया फिल्में इनदिनों सफलता का नया फार्मूला बन गयी है. राधे श्याम की रिलीज भी इसी फार्मूला को भुनाने वाली थी. फ़िल्म का बजट साढ़े तीन सौ करोड़ है. फ़िल्म में बाहुबली फेम प्रभास की मौजूदगी है. भव्यता से भरे दृश्यों की भरमार भी है लेकिन ये सब भव्यता साथ मिलकर भी फ़िल्म को मनोरंजनक नहीं बना पायी है क्योंकि कहानी बहुत खोखली सी है.
राधे श्याम एक पीरियड ड्रामा फ़िल्म है. 1976 के आसपास कहानी शुरू होती है. फ़िल्म अमिताभ बच्चन के वॉइस ओवर से शुरू होती है. उसके बाद गुरु परमहंस (सत्यराज) अपने शिष्य विक्रमादित्य (प्रभास) के बारे में सभी को बताते हैं कि वह एक प्रसिद्ध ज्योतिष है. जिसे भारत का नास्त्रेदमस कहा जाता है. वो लोगों की हाथ की रेखाओं को देखकर उनका भविष्य बता सकता है. उस वक़्त की भारतीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी को वह बताता है कि वह भारत में भविष्य में आपातकाल लगा देंगी. कहानी फिर इटली चली जाती है. विक्रमादित्य का मानना है कि ज्योतिष एक विज्ञान है जो सौ प्रतिशत सही होता है. दूसरी ओर, उसके गुरु परमहंस (कृष्णम राजू) की अलग सोच है उन्हें लगता है कि ज्योतिष 99% तक भविष्यवाणी कर सकता है, 100% नहीं. परमहंस का सोचना है कि 1% लोग अपना भाग्य खुद लिखते हैं और इतिहास रचते हैं लेकिन विक्रमादित्य इन बातों को नहीं मानता है.
इटली में विक्रमादित्य की एक ट्रेन में प्रेरणा (पूजा हेगड़े)से मुलाकात होती है और पहली नज़र वाला प्यार भी हो जाता है. वह एक डॉक्टर हैं लेकिन एक जानलेवा बीमारी से पीड़ित हैं. विक्रमादित्य ने उसकी हथेली को देखता है तो भविष्यवाणी करता है कि उसकी उम्र 100 साल की है लेकिन विक्रमादित्य प्रेरणा से प्यार करने के बावजूद उससे दूर जाने का फैसला करता है. क्यों? वह प्रेरणा से क्या छुपा रहा है ? प्यार और किस्मत में किसकी जीत होगी यह आगे की कहानी है. कहानी में एक ट्विस्ट भी है।जो सेकेंड हाफ में खुलता है फ़िल्म की सबसे बड़ी खामी है इसकी कहानी है.जो परदे पर इस तरह आती है कि उसमें विश्वसनीय जैसा कुछ भी नहीं लगता है. सबकुछ खोखला सा लगता है. लगभग ढाई घंटे की यह फ़िल्म कुछ समय के बाद बोरिंग लगने लगती है. यह कहना गलत ना होगा. निर्देशक कहना क्या चाहता है? वह कन्फ्यूज़ है ?यह बात फ़िल्म देखते हुए शिद्दत से महसूस होती है. कहानी में भाग्य और इंसानी जज्बात और जज्बे के बीच का जो द्वन्द है, उसे दर्शाने और स्थापित करने के लिए और अधिक घटनाएं या परिस्थिति कहानी में जोड़ने की ज़रूरत थी. सबकुछ ऊपरी सा लगता है. फ़िल्म का क्लाइमेक्स भी प्रभावहीन रह गया है.
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फ़िल्म में अभिनय की बात करें अब तक प्रभास हिंदी दर्शकों से लार्जर देन लाइफ अवतार में ही नज़र आए हैं इस बार उन्होंने कुछ अलग करने की कोशिश की है और उनकी कोशिश फ़िल्म में नज़र भी आयी है. पूजा हेगड़े भी अपने किरदार में जंची है लेकिन पर्दे पर दोनों की केमिस्ट्री बिल्कुल गायब सी है. जो किसी भी रोमांटिक फिल्म की सबसे बड़ी जरूरत होती है. फ़िल्म में इन्ही दोनों किरदारों पर फोकस है. बाकी के किरदारों को कहानी में महत्व ही नहीं दिया गया है. मुरली शर्मा,कुणाल रॉय कपूर,भाग्यश्री को करने के लिए फ़िल्म में कुछ खास नहीं था.
फ़िल्म के गीत संगीत , पैन इंडिया की दूसरी फिल्मों की तरह वह भी रीजनल अंदाज़ में है।गानों की पिक्चराइजेशन ज़रूर अच्छी बन पड़ी है, लेकिन वह प्रभावित नहीं करता है. यही बात फ़िल्म के बैकग्राउंड स्कोर के लिए भी कही जा सकती है. फ़िल्म की यूएसपी इसका विजुवल इफेक्ट्स है. सिनेमेटोग्राफी के लिहाज से यह फ़िल्म बेहद खास है. जो आपको एक अलग ही दुनिया में ले जाती है.फ़िल्म के संवाद कहानी के अनुरूप हैं. कुलमिलाकर यह फ़िल्म इस बात को फिर से साबित करती है कि बजट से ज़्यादा अच्छी स्क्रिप्ट किसी फिल्म की सबसे बड़ी जरूरत होती है.