फ़िल्म-रनवे 34
निर्देशक – अजय देवगन
कलाकार – अजय देवगन,अमिताभ बच्चन, रकुल प्रीत सिंह,आकांक्षा सिंह,बोमन ईरानी और अन्य
प्लेटफार्म -सिनेमाघर
रेटिंग -तीन
साल 2016 में शिवाय के बाद अभिनेता अजय देवगन ने निर्देशक के तौर पर फ़िल्म रनवे से वापसी की है. रनवे 34 2015 सच्ची घटना पर आधरित कहानी है और यह असल घटना पर आधारित फ़िल्म बतौर निर्देशक अजय देवगन की सबसे मजबूत फ़िल्म करार दी जा सकती है. कुलमिलाकर तकनीकी तौर पर काफी उम्दा रही यह फ़िल्म स्क्रीनप्ले की कुछ खामियों के बावजूद एक रोमांचक अनुभव है.
कहानी की बात करें तो विक्रांत खन्ना( अजय देवगन) एक पायलट है. जो नियमों को नहीं मानता है फिर चाहे नो स्मोकिंग ज़ोन में सिगरेट पीना हो या फ्लाइट लेने से पहले रात भर पार्टी करना हो. ऐसे ही एक पार्टी को करने के कुछ घंटों बाद वह दुबई से कोचीन के लिए उड़ान भरता है, तभी एक भयानक चक्रवात मौसम को पूरी तरह से बिगाड़ देता है. विक्रांत सह-पायलट तान्या (रकुलप्रीत )के सुझाव के खिलाफ जाकर त्रिवेंद्रम में फ्लाइट को लैंड कराने का फैसला करता है. वह फैसला फ्लाइट में मौजूद सभी की जान खतरे में डाल देता है. वह किसी तरह विमान को सुरक्षित रूप से लैंड तो करवा लेता है लेकिन अपने विवादास्पद फैसलों के कारण खुद को एक कमिटी जांच में भी लैंड कर देता है. जिसमें विक्रांत के खिलाफ अमिताभ बच्चन का किरदार है. अगर विक्रांत दोषी पाया जाता है तो हमेशा के लिए उसकी पायलट की जॉब भी जा सकती है. क्या विक्रांत दोषी है? क्या उसकी लापरवाही से इतने लोगों की जान पर बन आयी थी. फ़िल्म की आगे की कहानी इसी पर है.
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फ़िल्म का फर्स्ट हाफ काफी रोमांचक है. जिस तरह से प्लेन चक्रवात में फंसता है. वह रोमांच को बढ़ा गया है. फ़िल्म का सेकेंड हाफ थोड़ा कमज़ोर रह गया है. कोर्टरूम सीक्वेंस में अजय और अमिताभ बच्चन के बीच दृश्यों में थोड़ा और ड्रामा डालने की ज़रूरत थी. रनवे 34 को ही क्यों चुना गय. विक्रांत की फोटोजेनिक मेमोरी है. वह मैथ्स को अहम मानता है. ऐसे में थोड़ा कैलकुलेशन के ज़रिए उस फैसले को दिखाया जाना ज़्यादा प्रभावी हो सकता था ना सिर्फ इतना कह देना कि मैंने उस रनवे से बहुत बार उड़ाने भरी है किसी बिजनेसमैन का पायलट होते हुए. फ़िल्म में मेडे शब्द का इस्तेमाल कई बार हुआ है. मौजूदा दौर में वर्ल्ड सिनेमा मोबाइल पर आ पहुंचा है ऐसे में इस विषय पर हॉलीवुड की उम्दा फ़िल्म सुली से तुलना होनी लाजमी है और उस कसौटी पर फ़िल्म कमतर रह गयी है.
अभिनय की बात करें तो अजय देवगन ने अपने किरदार को स्वैग के साथ साथ परिपक्वता से जिया है. अजय के साथ साथ इस फ़िल्म में अमिताभ बच्चन भी हैं. जो दर्शकों के लिए किसी बोनस से कम नहीं है. फ़िल्म में उनकी एंट्री इंटरवल के बाद होती है लेकिन वह हमेशा की तरह अपनी छाप छोड़ जाते हैं. रकुलप्रीत अलग अंदाज़ में दिखी हैं. जिन्हें उन्होंने बखूबी जिया है. आकांक्षा सिंह, बोमन ईरानी और अंगिरा धर को सीमित स्क्रीन स्पेस मिला है. जिसमें वह अपने हिस्से के दृश्य बखूबी निभा गए हैं.
फ़िल्म के संवाद अच्छे बन पड़े हैं. हां अमिताभ बच्चन की शुद्ध हिंदी दूसरे भाषी लोगों को समझने में थोड़ी दिक्कत कर सकती है. गीत संगीत औसत है. आखिर में कुछ नया और कुछ अलग करने की कोशिश इस फ़िल्म से हुई है।जो देखी जानी चाहिए.