Non Cooperation Movement: 1920 का दौर, प्रथम विश्व युद्ध जीतने के बाद जब अंग्रेजों की ताकत का सिक्का पूरी दुनिया में जम चुका था. उस ताकत की बदौलत अंग्रेज भारत में भी बेहिसाब जुल्म ढा रहे थे. इसी दौर में अंग्रेज हुक्मरान की बढ़ती ज्यादतियों का विरोध करने के लिए महात्मा गांधी ने 1920 में एक अगस्त के दिन असहयोग आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन के दौरान भारतीय लोगों ने अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर दिया. छात्रों ने सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया. अंग्रेजों के लिए भारतीय लोगों ने काम करना छोड़ दिया. वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार कर दिया. कई जगहों पर श्रमिक ने हड़ताल कर दी गई. इसका अंग्रेजी हुकूमत पर इतना गहरा असर हुआ का एक बार तो भारत में उसकी नींव हिलने लगी.
देश में बढ़ रहा था अंग्रेजों के प्रति आक्रोश
भारत में अंग्रेज शासक की तरह रहते थे. उनका व्यवहार भारतीयों के प्रति गुलामों वाला था. इसके खिलाफ देश के लोगों में आक्रोश लगातार बढ़ रहा था. इसमें रौलेट एक्ट, जालियांवाला बाग हत्याकांड, विश्वयुद्ध के बाद उत्पन्न आर्थिक संकट, अकाल, महामारी, किसानों और मजदूरों का आंदोलन, और अंग्रेजों की दमनकारी नीति ने आग में घी डालने का काम किया. वहीं 1919 में घटी कुछ घटनाओं ने जाहिर कर दिया कि अंग्रेजों की भारत के लोगों के हित से कुछ भी लेना देना नहीं हैं. रॉलेट एक्ट, जालियावाला बाग कांड और पंजाब में मार्शल लॉ लगाना ने स्पष्ट कर दिया कि अंग्रेजी सरकार भारत में बस दमन की नीति जानती हैं.
असहयोग आन्दोलन आरंभ
1920 के दौर में भारत की राजनीति में गांधी जी काफी प्रसिद्ध हो चुके थे. उन्होंने असहयोग आंदोलन की नींव रखी थी. तीन मुख्य कारण को लेकर उन्होंने इतना बड़ा आंदोलन शुरू किया था. खिलाफत का प्रश्न, पंजाब में अत्याचार और स्वराज की मांग गांधी जी के तीन मुद्दे थे. कांग्रेस ने भी गांधी जी का असहयोग आंदोलन को अपना लिया था. संघर्ष कठिन था लेकिन इसकी पद्धति बिलकुल शांत और अहिंसक थी. इसी शांति और अहिंसक तरीके से भारत में अंग्रेजों का शासन खत्म करने के लिए भारतीय लोग कमर कस चुके थे. असहयोग आंदोलन के तहत गांधी जी ने भारतीय लोगों से आग्रह किया कि वे विदेशी सरकार की दी उपाधियों का बहिष्कार करें. सरकारी उत्सवों में शामिल न हों. स्कूलों, कॉलेजों और न्यायालय का बहिष्कार करें. इसके साथ ही मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के तहत बनाई गई नई कौंसिल का भी बहिष्कार करें. कुल मिलाकर कहे तो आंदोलन के तहत भारतीयों से आग्रह किया गया कि वो किसी भी तरह शासन में अंग्रेजों की सहायता न करें.
कई लोगों ने लौटा दी उपाधि
गांधी जी ने आंदोलन के दौरान लोगों से अपील की कि वो अंग्रेजों की दी हुई उपाधियों का बहिष्कार करें. सबसे पहले खुद गांधी जी ने अपने कैसरे ए हिन्द की उपाधि लौटा दी. जलियांवाला नरसंहार के बाद रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले ही अपनी नाइट की उपाधि छोड़ चुके थे. गांधीजी के आह्वान कई लोगों ने अपनी नौकरियां छोड़ दीं. देशबंधु चितरंजन दास अपनी वकालत छोड़ दी. अपनी संपत्ति देश के लोगों के नाम दान कर दी. मोती लाल नेहरू, लाला लाजपत राय ने ने भी वकालत छोड़ दी. जैसे जैसे आंदोलन ने जोर पकड़ा इसमें कई और लोग शामिल होते चले गये. इसी कड़ी में गंगाधरराव पांडे, शंकरराव देव, सरोजिनी नायडू, सरदार वल्लभभाई पटेल समेत कई और लोग जुड़े.
विदेशी कपड़ों को जलाया गया
आंदोलन के दौरान हजारों छात्रों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया. भारतीय लोगों ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर दिया. लोग एक जगह इकट्ठा होते और विदेशी कपड़ों की होली जलायी जाती. विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के कारण विदेशी कपड़ों के आयात में काफी कमी आ गई. ब्रिटिश सूती थानों के आयात में भी भारी गिरावट दर्ज की गई. पूरे देश में चरखा विख्यात हो गया. कई लोगों ने ब्रिटिश सेना में भर्ती होने से इनकार कर दिया. करीब दो सालों असहयोग आंदोलन चला. इस दौरान आंदोलन खत्म करने की अंग्रेज कोशिश करते रहे. लेकिन हर दिन के साथ आंदोलन जोर पकड़ते जा रहा था. लेकिन जब आंदोलन अपने पूरे जोर पर था तो अचानक एक घटना के बाद गांधी जी ने आंदोलन स्थगित कर दिया.
चौरी-चौरा कांड के बाद सत्याग्रह आन्दोलन कर दिया गया स्थगित
गांधीजी ने आंदोलन का आधार अहिंसा रखा था. पूरा देश शांतिपूर्ण तरीके से बिना किसी हिंसा के आंदोलन में शामिल हो रहा था. लेकिन 5 फरवरी 1922 में उत्तर प्रदेश के चौरी चौरा में अचानक से भीड़ हिंसक हो गई. हालांकि जुलूस शांतिपूर्ण तरीके से निकाला गया था. लेकिन चौरी चौरा थाने के पास कुछ पुलिस वालों की टिप्पणी से जुलूस में शामिल कुछ लोग हिंसक हो गये . इस बीच पुलिस की ओर से फायरिंग कर दी गई. इसके बाद उत्तेजित होकर भीड़ ने थाने में आग लगा दी. इस अग्निकांड में 22 पुलिस वालों की जान चली गई. हिंसा की इस कार्रवाई से आहत गांधीजी को इस आंदोलन को वापस ले लिया.
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