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दार्जिलिंग : भाषा के नाम पर विवाद या कुछ और है वजह

दार्जिलिंग : कई सालों तक शांत रहने के बाद दार्जिलिंग में बांग्ला भाषा के मुद्दे ने हिंसक रूप ले लिया है. इस बार अलग राज्य गोरखालैंड का मुद्दा हाशिये पर है और भाषा विवाद संघर्ष का मुख्य केंद्र बन चुका है. राज्य सरकार ने पहली से दसवीं कक्षा तक बांग्ला भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने […]

दार्जिलिंग : कई सालों तक शांत रहने के बाद दार्जिलिंग में बांग्ला भाषा के मुद्दे ने हिंसक रूप ले लिया है. इस बार अलग राज्य गोरखालैंड का मुद्दा हाशिये पर है और भाषा विवाद संघर्ष का मुख्य केंद्र बन चुका है. राज्य सरकार ने पहली से दसवीं कक्षा तक बांग्ला भाषा की पढ़ाई अनिवार्य करने का फैसला किया है. विवाद को बढ़ते देख बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि बांग्ला ऐच्छिक भाषा के रूप में रहेगी. चाय बगानों और पहाड़ों के बीच बसा शहर दार्जिलिंग में तनाव का माहौल है. पर्यटकों को वहां से निकाला जा रहा है. दार्जिलिंग की राजनीति के जानकार भाषा विवाद के पीछे अन्य कारण बताते हैं. ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी ने मिरिक नगरपालिका पर जबर्दस्त जीत हासिल की है. दशकों तक नगरपालिका चुनावों में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का कब्जा रहा है.गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इस हार को पचा नहीं पा रहा है. अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही मोर्चा ने बांग्ला भाषा को लड़ाई के केंद्रबिन्दु में ला दिया है.

भाषा विवाद को लेकर सुलगा पहाड़, गोजमुमो समर्थकों और पुलिस में झड़प, हिंसक प्रदर्शन के बाद सेना तैनात

क्या है गोरखालैंड की कहानी
80 के दशक में सुभाष घिसिंग के नेतृ्त्व में गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट का गठन किया गया. जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग को मिलाकर एक अलग राज्य गोरखालैंड बनाने की मांग की गयी. तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस बल का उपयोग किया. यह आंदोलन धीरे -धीरे सुभाष घिसींग के हाथों से स्थानंतरित होकर विमल गुरूंग के कब्जे में चली गयी. धीरे -धीरे गोरखालैंड की तेज होते मांग को लेकर 18 जुलाई 2011 में केंद्गीय गृहमंत्री पी. चिंदबरंम , पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और गोरखा जनमुक्तिमोर्चा के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ.समझौते के तहत गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का गठन हुआ. इसे एक किस्म का सेफ्टी वॉल्व के रूप में देखा जा रहा था. जीटीए के पास गोरखालैंड को विकसित करने के लिए प्रशासनिक ,कार्यकारी और वित्तीय क्षमता दी गयी लेकिन इसके पास वैधानिक क्षमता नहीं थी.
पिछले दो दशक से भाषा के नाम पर कम पड़ा था विरोध
दार्जालिंग में भाषा के नाम पर हो रहा विरोध देश के मौजूदा ट्रेंड से अलग है. इंटरनेट और आधुनिक यातायात के साधनों ने भाषायी दीवारों को काफी हद तक कम कर दिया, फिर भी देश में भाषा के नाम पर हुए आंदोलनों की लंबी सूची है. पिछले दो-तीन दशकों तक भाषा के नाम पर विरोध के उदाहरण कम दिखे लेकिन देश में ऐसे कई आंदोलन हुए.
तामिलनाडु का हिंदी विरोधी आंदोलन
देश में पहली बार भाषा के नाम पर मुखर विरोध 1937 को हुई जब मद्रास के स्कूलों में हिंदी भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाये जाने की घोषणा की गयी. सी राजागोपालाचारी के इस प्रस्ताव का जबर्दस्त विरोध हुआ, जो करीब तीन सालों तक चला. साल 1965 में दूसरी बार जब हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की कोशिश की गयी तो फिर से हिंदी के खिलाफ आंदोलन हुआ. हिंदी आंदोलन ने इतना विकराल रूप ले लिया कि मदुरई कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक हिंसक झड़प में आठ लोगों को ज़िंदा जला दिया गया.
हिंदी बनाम अन्य क्षेत्रीय भाषा आंदोलन
आजादी के बाद शुरुआती दौर में हिंदी का जबर्दस्त विरोध हुआ लेकिन अब यह संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो चुकी है. दक्षिण भारत के शहर बेंगलुरू और हैदराबाद में हिंदी बोलने -समझने वाले लोग भारी संख्या में पाये जाते हैं. नयी पीढ़ी के लिए भाषा कोई बहुत बड़ी बाधा नहीं है. वहीं मराठी बनाम हिंदी का मुद्दा धीरे -धीरे गौण हो रहा है.

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