हावी हो गया है आलाकमान और सुप्रीमो कल्चर

राजनीति में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा अब आम बात हो गयी है. सुप्रीमो और आलाकमान कल्चर ने राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र को ध्वस्त कर दिया है. इस बात को गंभीरता से समझने के लिए एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म की बिहार इकाई ने एक अध्ययन किया था. जिसमें इससे संबंधित कई जानकारियां निकल कर सामने आयीं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 24, 2014 4:56 PM

राजनीति में कार्यकर्ताओं की उपेक्षा अब आम बात हो गयी है. सुप्रीमो और आलाकमान कल्चर ने राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र को ध्वस्त कर दिया है. इस बात को गंभीरता से समझने के लिए एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म की बिहार इकाई ने एक अध्ययन किया था. जिसमें इससे संबंधित कई जानकारियां निकल कर सामने आयीं. 5 अगस्त, 2013 को यह रिपोर्ट जारी की गयी थी. पेश है इस रिपोर्ट की खास बातें.

पार्टी सुप्रीमो करते चयन

विधानसभा, विधानपरिषद, लोकसभा एवं राज्यसभा के उम्मीदवारों का पैनल बनाकर उसे केंद्रीय पार्लियामेंट्री बोर्ड के समक्ष अनुशंसित करने का अधिकार राज्य पार्लियामेंट्री बोर्ड को है. मगर लगभग सभी पार्टियों में उम्मीदवारों का चयन संवैधानिक प्रक्रियाओं के विपरीत एक विशेष शक्ति संपन्न व्यक्ति द्वारा होता है, जिन्हंे आज-कल पार्टी सुप्रीमों की संज्ञा दे दी गयी है. फलस्वरूप निर्वाचित प्रतिनिधियों की प्रतिबद्धता पार्टी अथवा पार्टी की नीतियों, सिद्धांतों के प्रति नहीं होकर व्यक्ति विशेष के प्रति ज्यादा है और यहीं से लोकतांत्रिक पद्धति के समाप्ति की शुरुआत हो जाती है.

अधिकृत करने का प्रचलन

पार्टियों के सांगठनिक चुनाव प्रक्रियाओं का भी यही हाल है. किसी भी मसले पर निर्णय लेने का अधिकार पार्टी के प्रमुख को लेने के लिए अधिकृत कर दिया जाता है. अधिकृत किए जाने का प्रचलन पूरी तरह अलोकतांत्रिक है. इसके अलावा राष्ट्रीय व राज्य स्तर की सवार्ेच्च अर्थात राष्ट्रीय व प्रदेश अध्यक्ष के कार्यकाल की सीमा निर्धारित नहीं है. कई पार्टियों में शुरुआत से आज तक एक ही व्यक्ति राष्ट्रीय अध्यक्ष रहा है.

आधी आबादी नहीं दिखती

अधिकतर राजनैतिक दलों ने अपने संविधान में तो पत्रिकाओं का प्रकाशन अनिवार्य किया है, लेकिन नियमित रूप से पत्रिकाओं के प्रकाशन के प्रति लापरवाह रहते हैं. कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण भी महज औपचारिक ही होता है. लगभग सभी राजनीतिक दलों में महिलाओं का वोट हासिल करने के लिए महिला प्रकोष्ठ है, लेकिन राजनैतिक दलों की प्रदेश कार्यकारिणी, संसदीय बोर्ड, राज्यपरिषद, केन्द्रीय कार्यकारिणी, केन्द्रीय परिषद, अनुशासन समिति आदि में महिलाओं की भागीदारी बिल्कुल ही दिखाई नहीं देती है.

राष्ट्रीय जनता दल में स्थायी नहीं है, जरूरत के अनुसार बनायी जाती है.

जदयू में 2010 में तीन सदस्यीय अनुशासन समिति का गठन किया गया है .

लोजपा में पांच सदस्यीय समिति कार्यरत है.

भारतीय जनता पार्टी (बिहार प्रदेश) के पार्टी संविधान में प्रावधान तो है लेकिन नयी समिति का गठन नहीं हुआ है.

कांंग्रेस(बिहार) में 2003 में 10 सदस्यीय अनुशासन समिति का गठन हुआ था.

सीपीआई एमएल में 7 सदस्यीय अनुशासन समिति है.

प्रमुख राजनैतिक दलों द्वारा प्रकाशित पत्र/पत्रिकाएं

राजद ने जन अभियान के नाम से एक गैर निबंधित पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया था. इसका अंतिम अंक 2003 में प्रकाशित हुआ. 11 वषार्ें से अप्रकाशित है.

भाजपा अपना रास्ता नाम से एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन दिसम्बर-2012 से पटना से करती है. यह भी गैर निबंधित है.

कांग्रेस प्रदेश कार्यालय से कोई पत्रिका प्रकाशित नहीं हो रही है. केन्द्र से कांग्रेस संदेश (मासिक) का प्रकाशन होता है.

जदयू द्वारा किसी पत्रिका का प्रकाशन नहीं होता.

भाकपा (माले) कई पत्रिकाओं का प्रकाशन करती हैं- 1़ लिबरेशन (मासिक) 2़ लोकयुद्ध (साप्ताहिक) 3़ समकालीन जनमत (मासिक) 4़ आधी जमीन (मासिक) 5़ श्रमिक सॉलिडेरिटी (मासिक) 6़ विमेन्स वॉयस (त्रैमासिक) एवं विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में भी प्रकाशित साहित्य.

लोजपा न्यायचक्र के नाम से मासिक पत्रिका का प्रकाशन करती है.

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