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जब पैसों का तमाशा भर रह जाये राजनीति

।। पुष्यमित्र ।। इन दिनों एक नये राजनीतिक दल ने दूसरे स्थापित राष्ट्रीय राजनीतिक दल पर दो प्रमुख कॉरपोरेट कंपनियों की मदद लेने का आरोप लगाकर उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है. इससे ठीक पहले उस दल ने एक दूसरे बड़े राजनीतिक दल पर तेल की बढ़ती कीमतों पर एक बड़ी कॉरपोरेट कंपनी को […]

।। पुष्यमित्र ।।

इन दिनों एक नये राजनीतिक दल ने दूसरे स्थापित राष्ट्रीय राजनीतिक दल पर दो प्रमुख कॉरपोरेट कंपनियों की मदद लेने का आरोप लगाकर उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है. इससे ठीक पहले उस दल ने एक दूसरे बड़े राजनीतिक दल पर तेल की बढ़ती कीमतों पर एक बड़ी कॉरपोरेट कंपनी को लाभ पहुंचाने का आरोप लगाया था और बाद में उक्त कंपनी के खिलाफ मुकदमा भी कर दिया था.

हालांकि तथ्य यह भी है कि आरोप लगाने वाले दल पर किसी अन्य स्रोत से, जिसमें एक विदेशी फंडिंग एजेंसी भी है, मदद लेने के आरोप हैं. बहुत संभव है कि ये आरोप और इस तरह की तमाम किस्म की कार्रवाइयों का मकसद चुनावी माइलेज लेना रहा हो. मगर यह सच है कि हाल के वर्षों में पॉलिटिक्स और कॉरपोरेट के बीच एक मजबूत नेक्सस तैयार हुआ है.

जहां कॉरपोरेट गुप्त तथा प्रत्यक्ष तरीके से चंदे के रूप में बड़ी राशि देकर राजनीतिक दलों को चुनाव में भारी-भरकम राशि खर्च करने के लिए सक्षम बना रहा है, वहीं राजनीतिक दल भी चुनाव के बाद चंदा देकर मदद करने वाली कंपनियों को वैध-अवैध तरीके से लाभांवित करके अहसान का बदला बखूबी चुकाते हैं. ऐसे में कई विश्लेषक मानने लगे हैं कि चुनावी चंदे की अवैधता ही देश में बड़े भ्रष्टाचार की जननी है.

खास तौर पर टू-जी स्पैक्ट्रम और कोल ब्लॉक जैसे लाखों करोड़ के घोटाले ने कॉरपोरेट-पॉलिटीशियन नेक्सस के राजों पर से परदा उठा दिया है. कोल ब्लॉक आवंटन के मामले जैसे-जैसे खुले, हमने पाया कि यह घोटला लगभग सर्वदलीय है. तकरीबन हर स्थापित राजनीतिक दल किसी न किसी कॉरपोरेट कंपनी को खनन पट्टा दिलाने की सिफारिश कर रहा था.

इस मसले पर सभी दलों के वैचारिक सिद्धांत किनारे कर दिये गये थे, यहां तक कि भगवा और वाम का शास्वत भेद भी दरकिनार था. उस वक्त इस मसले को लेकर अलग-अलग नजरिये से बहसें हुईं, मगर उस बहस के बीच यह सवाल अनुत्तरित रह गया कि आखिर ऐसा क्यों होता है? भ्रष्टाचार व्यक्तिगत हो सकता है, विभाग स्तर का हो सकता है, मगर ऐसा कैसे हो सकता है कि भ्रष्टाचार के मसले पर राजनीतिक दल भी एकमत हों.

इसका जवाब राजनीतिक दलों को होने वाली फंडिंग में है. बड़े हों या मझोले, हर राजनीतिक दल चुनाव के दौरान भारी भरकम राशि खर्च करता है. चुनाव आयोग द्वारा निधार्रित सीमा से भी कई गुना अधिक और इस खर्च को वह अपने तरीके से छुपाता भी है.

जाहिर सी बात है कि अगर वह चुनाव खर्च को छुपा रहा है तो वह चंदे से मिलने वाली राशि की जानकारी भी छुपायेगा ताकि गड़बड़झाला कायम रहे और लोग या आयोग कभी समझ न पायें कि उक्त पार्टी या प्रत्याशी को चंदे के रूप में कहां से कितनी राशि मिली और उसे उसने किस मद में खर्च किया. इस बात का तो कोई अनुमान नहीं है कि चुनाव के दौरान एक प्रत्याशी अघोषित रूप से कितनी राशि व्यय करता है. मगर इस बात की जानकारी जरूर है कि राजनीतिक दलों को घोषित तौर पर मिलने वाले चंदे का स्वरूप क्या है.

* जात-धर्म का ध्रुवीकरण

चुनाव में वादों, घोषणापत्रों और उपलब्धियों के आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करने के साथ-साथ राजनेता और राजनीतिक पार्टियां जात-पात और संप्रदाय के आधार पर भी मतदाताओं के ध्रुवीकरण का प्रयास करती हैं. राजनीतिक दल और कुछ करें न करें मगर चुनाव क्षेत्रों का धार्मिक और जातीय गणित जरूर पता करते हैं. फिर वे ऐसे वर्ग का एकमुश्त मत पाने का प्रयास करते हैं जिसके भरोसे उनकी जीत सुनिश्चित हो सके. टिकट बंटवारे में जात और धर्म का खास ध्यान रखना आम ट्रेंड है.

हमें वह उदाहरण याद है जब एक राष्ट्रीय पार्टी में कार्यकारिणी के गठन के वक्त मनोनीत नेताओं के नाम के आगे उनकी जाति लिखी थी और यह सूची बाद में मीडिया में भी लीक हो गयी थी. जात और धर्म का ख्याल तो मंत्रिमंडल के गठन तक में रखा जाता है. मगर इसकी वजह से अक्सर जात और धर्म के प्रतिनिधि तो चुने चले जाते हैं मगर क्षेत्र की हर जाति का प्रतिनिधि नहीं चुना जाता है.

चुनाव जीतने के लिए जाति या संप्रदाय के आधार पर ध्रुवीकरण किया जाना भी भारतीय राजनीति के लिए काफी पुरानी परंपरा बन चुकी है. हालिया मुजफ्फरनगर दंगों में सरकार और दूसरे राजनीतिक दलों के बर्ताव से साफ है कि वहां चुनावी लाभ के लिए अनैतिक और गैर कानूनी तरीके अपनाये गये. हमने चुनाव से पहले रथयात्राएं निकलती हुई देखी हैं और दंगों के बाद सरकारों को दुबारा लौटते हुए देखा है.

इतना ही नहीं कई राजनीतिक दल तो जातिगत समुदायों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं. कई राजनीतिक दलों का भविष्य जातिगत समीकरणों के आधार पर तय होता है. इसे रोकने के लिए कोई समुचित प्रयास नहीं किये गये हैं. चुनाव आयोग से लेकर तमाम सरकारी मशीनरियां धरी रह जाती हैं और राजनीतिक दल हर बार धड़ल्ले से इस तरह की चालबाजियां करके सफल हो जाते हैं.

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