राष्ट्रीय संपत्ति की लूट का दौर है यह

अतुल अंजान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के वरिष्ठ नेता हैं. वर्तमान में वह भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सचिव और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं. लखनऊ से जुड़े अतुल अंजान राजनीति में शार्टकट अपनाने के विरोधी रहे हैं. जोड़तोड़ की राजनीति में भी वह कभी नहीं पड़े. लखनऊ की पश्चिम विधानसभा की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 6, 2014 12:44 PM

अतुल अंजान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के वरिष्ठ नेता हैं. वर्तमान में वह भाकपा की राष्ट्रीय परिषद के सचिव और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय महासचिव हैं. लखनऊ से जुड़े अतुल अंजान राजनीति में शार्टकट अपनाने के विरोधी रहे हैं. जोड़तोड़ की राजनीति में भी वह कभी नहीं पड़े. लखनऊ की पश्चिम विधानसभा की सीट से लेकर उन्होंने घोसी संसदीय सीट से कई बार चुनाव लड़ा, लेकिन हर बार वह असफल रहे. इस बार भी घोसी संसदीय सीट से वह चुनाव लड़ रहे हैं. देश के राजनीतिक माहौल और राजनीति में बढ़ती जा रही जोड़तोड़ को लेकर उनसे राजेंद्र कुमार ने बातचीत की है.

राजनीति में ईमानदारी और सुचिता की गिरावट लगातार बढ़ रही है, आपके अनुसार इस क्षरण की क्या वजह है?
आर्थिक उदारीकरण के चलते देश में राजकीय संपत्ति की लूट का जो दौर चला और चल रहा है, उसके चलते ही राजनीति में ईमानदारी का लोप हो रहा है. क्योंकि अब राजनीति में ऐसे अधिक लोग आ रहे हैं जिनके लिए राजनीतिक संस्कार बहुत अहम नहीं है. ऐसे लोग सिर्फ अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए राजनीति में हैं. जबकि वर्ष 1967 तक देश की राजनीति में बड़ी संख्या में ऐसे लोग थे जो न सिर्फराष्ट्रीय राजनीति से जुड़े थे, बल्कि अपने दायित्वों तथा जनता की समस्याओं को लेकर बेहद सतर्क रहते थे. वे लोग तबादला पोस्टिंग और ठेके दिलाने में नहीं पड़ते थे. पर अब ऐसा नहीं है. देश में सरकारी संपत्ति की लूट के चलते लालू यादव, जगन्नाथ मिश्र, मधु कोड़ा से लेकर मनमोहन सरकार में मंत्री रहे तमाम लोग जेल गए. सुचिता का दम भरने वाले भाजपा के बंगारू लक्ष्मण भी बच नहीं पाये.

तो क्या राजनीति में सुचिता की गिरावट को रोका नहीं जा सकता?
रोका क्यों नहीं जा सकता. निर्वाचन आयोग इस दिशा में ठोस पहल कर सकता है. आयोग राजनीति में धनबल और बाहुबल को रोकने के लिए सख्त कानून बनाये और केंद्र सरकार पूरी प्रतिबद्धता के साथ आयोग के बनाए कानून को लागू करे. संसद के प्रतिनिधियों को चुनने की व्यवस्था में बदलाव करके भी इसे रोका जा सकता है.

सभी दलों में टिकट पाने के लिए आपाधापी मची है. यह देखकर ऐसा नही लगता है कि राजनीति में अब विचारधारा की अहमियत लगभग खत्म हो गई है?
लगता तो कुछ ऐसा ही है. भारतीय राजनीति में कांग्रेस और भाजपा ने ऐसे-ऐसे दुष्प्रचार और प्रयोग किए हैं, उससे लोकतंत्र कमजोर हुआ है. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की विचारधारा का कांग्रेस में कोई स्थान नहीं रह गया है. वहीं पंडित दीनदयाल उपाध्याय की सादगी का भाजपा में अब कोई जिक्र नहीं करता. सपा में लोहियाबाद नहीं दिखता तो बसपा में डा आंबेडकर का नाम सिर्फ वोट पाने के लिए किया जाता है.

चुनावों में धनबल और बाहुबल का प्रभाव लगातार क्यों बढ़ रहा है? इसके क्या प्रभाव नजर आ रहे हैं?
नेताओं को अपनी नीतियों के आधार पर जनता को प्रभावित करने में कमी दिखाई देती तो ऐसा होता है. वैचारिक क्षमता का अभाव होने पर तमाम दलों का आभामंडल जनता का विश्वास खो रहा है और इसे बनाए रखने के लिए धनबल तथा बाहुबल का सहारा लिया जा रहा है. कुछ दल और नेता अपने आभामंडल को बनाए रखने के लिए फिल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों का सहारा लेते हैं ताकि उनकी सभाओं में भीड़ दिखे. वही धन और भुजा शक्ति के भरोसे तमाम नेता चुनाव में जीत हासिल करने में कामयाब हो जाते, इसलिए हर दल में ऐसे लोगों को महत्व मिलता है.

समाज में भी प्रतिरोध की संस्कृति गायब हाती जा रही है. इसकी क्या वजह है?
बढ़ता जा रहा भ्रष्टाचार और नैतिक मूल्यों से बड़े दलों के नेताओं की दूरी इसकी मुख्य वजह है. आज लिबास की तरह लोग अपने स्वार्थ के लिए पार्टी बदल रहे हैं. ऐसे लोगों को जनता के हितों की परवाह नहीं है. इसी वजह से भ्रष्टाचार और तमाम समस्याओं से जूझने वाली जनता भी प्रतिरोध करने से बचने लगी है.

उत्तर प्रदेश के वामदल के नेता अब यहां से दिल्ली की राह भूलते जा रहे हैं. इसकी क्या वजह है?
मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम जैसे नारों से उपजे ध्रुवीकरण तथा मंडल कमंडल की सोच ने यूपी में वामपंथ को गहरी क्षति पहुंचाई है. इसीलिए लोकसभा और विधानसभा में वामदलों का प्रतिनिधित्व घटा. लेकिन अब देश की राजनीति में राम मंदिर या धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण संभव नहीं है, ऐसे में वामपंथ को फिर मजबूती मिलेगी और लोकसभा तथा विधानसभा में वामदलों के नेताओं की मौजूदगी बढ़ेगी.

नयी नवेली आम आदमी पार्टी के बारे में क्या मत है? यह पार्टी देश की राजनीति बदलने का दावा कर रही है. इसके बारे में क्या कहूं. एक साल पहले जन्मी इस पार्टी ने अभी तक अपनी आर्थिक सामाजिक नीतियों को बनाया नहीं है. फिर भी देश में राजनीतिक बदलाव लाने का दावा उनके नेता कर रहे है. जनता के बीच इस दल के नेता बडबोले दावे कर अपना मकसद सिद्ध करने वाले माने जा रहे हैं. ऐसे में इनकी बातों पर कितना ध्यान दिया जाये.

साक्षात्कार

अतुल अंजान

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