सुकुमार सेन ने गढ़ा था देश का चुनाव तंत्र

1947 में देश आजाद हुआ. अब चुनाव कराने की बारी थी. 1950 में सुकुमार सेन को चुनाव आयोग का प्रमुख बनाया गया था. आजादी के बाद पहला चुनाव कराने की जिम्मेदारी उनके कंधे पर थी. नये-नये आजाद हुए देश के लिए चुनाव नया अनुभव था और खुद सेन के लिए भी. चुनाव कराने की बुनियादी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 6, 2014 2:11 PM

1947 में देश आजाद हुआ. अब चुनाव कराने की बारी थी. 1950 में सुकुमार सेन को चुनाव आयोग का प्रमुख बनाया गया था. आजादी के बाद पहला चुनाव कराने की जिम्मेदारी उनके कंधे पर थी. नये-नये आजाद हुए देश के लिए चुनाव नया अनुभव था और खुद सेन के लिए भी. चुनाव कराने की बुनियादी संरचनाओं को जुटाना आसान काम नहीं था. सुकुमार सेन ने किस तरह चुनाव प्रक्रिया को अंजाम तक पहुंचाया, यह जानना बेहद दिलचस्प व प्रेरणा से भर देने वाला है. प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब भारत गांधी के बाद में सेन के बारे में विस्तार से लिखा है.

हिन्दुस्तान का पहला आम चुनाव कई चीजों के अलावा एक विश्वास का विषय था. एक नया-नया आजाद हुआ मुल्क सार्वभौम मताधिकार के तहत सीधे तौर पर अपने हुक्मरानों को चुनने जा रहा था. इसके लिये हमने वह रास्ता अख्तियार नहीं किया जो पश्चिमी देशों का था. वहां कुछ संपत्तिशाली तबकों को ही मतदान का हक मिला था. बहुत बाद तक वहां कामगारों और महिलाओं को मतदान का हक नहीं मिला था. लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं हुआ. मुल्क 1947 में आजाद हुआ और इसके दो साल बाद यहां एक चुनाव आयोग का गठन कर दिया गया. मार्च 1950 में सुकुमार सेन को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया था. उसके अगले ही महीने जनप्रतिनिधि कानून संसद में पारित कर दिया गया. इस कानून को पेश करते हुए संसद में प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह उम्मीद जाहिर की कि साल 1951 के बसंत तक चुनाव करवा लिए जाएंगे.

इस मामले में नेहरू की जल्दीबाजी समझी जा सकती थी, लेकिन जिस व्यक्ति के जिम्मे चुनाव करवाने का काम था, उसके लिए यह मुश्किल काम था. यह एक दुर्भाग्यजनक बात है कि हम सुकुमार सेन के बारे में बहुत नहीं जानते. उन्होंने भी कोई संस्मरण या कोई दस्तावेज अपने पीछे नहीं छोड़ा, जो हमें उनके बारे में ज्यादा बता सके. सुकुमार सेन का जन्म 1889 में हुआ था और उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज और लंदन यूनीवर्सिटी में पढ़ाई की थी. लंदन यूनीवर्सिटी में उन्हें गोल्ड मेडल भी मिला था. उसके बाद उन्होंने 1921 में इंडियन सिविल सर्विस ज्वाइन कर ली और कई जिलों में बतौर न्यायाधीश उनकी बहाली की गयी. बाद में वे पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव भी बने, जहां से उन्हें प्रतिनियुक्ति पर मुख्य चुनाव आयुक्त बनाकर भेज दिया गया.

शायद सेन के अंदर का वह गणितज्ञ ही था जिसने नेहरू को कुछ दिन इंतजार करने के लिए कहा था. क्योंकि भारत सरकार के किसी भी अधिकारी के पास इतना कठिन और विशाल काम नहीं था जो सुकुमार सेन को सौंपा गया था. जरा हम यहां मतदाताओं की तादाद पर गौर करें. उस चुनाव में मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनकी उम्र 21 साल या उससे ऊपर थी और जिसमें से 85 फीसदी न तो पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे. उनमें से हरेक की पहचान करनी थी, उनका नाम लिखना था और उन्हें पंजीकृत करना था. मतदाताओं का निबंधन तो महज पहला कदम था. क्योंकि समस्या यह थी कि अधिकांश अशिक्षित मतदाताओं के लिए पार्टी प्रतीक चिह्न्, मतदान पत्र और मतपेटी किसी तरह की बनायी जाये? इसके बाद चुनाव के लिए मतदान केंद्र का भी चयन किया जाना था, साथ ही ईमानदार और सक्षम मतदान अधिकारी की भी नियुक्ति करनी थी. इसके अलावा, आम चुनावों के साथ ही राज्यों की विधानसभाओं के लिए भी चुनाव होने थे. इस काम में सुकुमार सेन के साथ विभिन्न राज्यों में मुख्य चुनाव अधिकारी भी काम कर रहे थे, जिनमें से अधिकांश अमूमन आइसीएस अफसर ही थे.

आखिरकार, सन् 1952 के शुरुआती महीनों में चुनाव करवाया जाना तय हुआ, हालांकि कुछ दुरूह और सुदूरवर्ती जिलों में इस काम को पहले ही अंजाम दिया जाना था. एक अमेरिकन पर्यवेक्षक ने सही ही लिखा कि चुनाव में इस्तेमाल किये जाने वाले सामान और उपकरण बहुत बड़ी समस्या पैदा कर रहे हैं. सुकुमार सेन के उद्यम को समझने में कुछ आंकड़े हमारी मदद कर सकते हैं. कुल मिलाकर 4500 सीटों पर चुनाव होने थे जिसमें करीब 500 संसद के लिए थे और शेष प्रांतीय विधानसभाओं के थे. इस चुनाव में 224000 मतदान केंद्र बनाये गये और वहां बीस लाख इस्पात की मतपेटियां भेजी गयीं. इन पेटियों को बनाने में 8200 टन इस्पात खर्च हुआ. छह महीने के अनुबंध पर 16500 क्लर्क बहाल किये गये ताकि मतदाता सूची को क्षेत्रवार ढंग से टाइप किया जा सके और उसका मिलान किया जा सके. मतदान पत्रों को छापने में करीब 380000 कागज के रिम (कागज का जो अखबारों और छापाखानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है) इस्तेमाल किये गये. चुनाव कार्य को संपादित करने के लिए 56000 पीठासीन अधिकारियों का चुनाव किया गया और इनकी सहायता के लिए 280000 सहायक बहाल किये गये. इस चुनाव में सुरक्षा के लिए 224000 पुलिस के जवानों को बहाल किया गया, ताकि हिंसा और मतदान केंद्रों पर गड़बड़ियों को रोका जा सके.

यह चुनाव और इसमें हिस्सा ले रहे मतदाता लगभग दस लाख वर्गमील में फैले हुए थे. चुनाव का इलाका विशाल और विविधता से भरा हुआ था. कहीं-कहीं तो यह बहुत ही दुरूह भी था. किसी सुदूर पहाड़ी गांव के मामले में आनन-फानन में नदी पर विशेष पुल बनाया गया. हिंद महासागर के किसी छोटे से द्वीप पर चुनाव करवाने के लिए नावों या स्टीमरों से मतपत्रों को मतदान केंद्रों तक पहुंचाया गया. दूसरी समस्या भौगोलिक के बदले सामाजिक थी. उत्तर भारत की महिलाएं अपना नाम लिखवाने से हिचकती थीं. इसके बदले वे किसी की मां या किसी की पत्नी के रूप में अपना नाम दर्ज कराना चाहती थीं. सुकुमार सेन अतीत की इस अनोखी और बेतुकी परंपरा को देखकर झुंझला उठे. उन्होंने अपने अधिकारियों को निर्देश दिया कि इस तरह के मतदाताओं का ब्योरा लिखने की जगह कड़ाई से मतदाता का नाम दर्ज करें. इस प्रक्रिया में कम से कम 28 लाख महिलाओं का नाम मतदाता सूची से काट दिया गया. उनके नाम काटे जाने से हुए हंगामे को सेन ने अच्छा ही माना क्योंकि इससे अगले चुनावों के पहले तक इस पूर्वाग्रह से मुक्त होने में मदद मिलती और तब तक महिलाओं को उनके अपने नाम से मतदाता सूची में दर्ज कर लिया जाता.

जहां पश्चिमी लोकतंत्रों में मतदाता साक्षरता और विकास होने की वजह से राजनीतिक दलों को नाम से पहचाते थे, वहीं भारत में मतदाताओं को समझाने के लिए तसवीरों का सहारा लिया गया. ये चुनाव चिह्न् आमलोगों के दैनिक जीवन से संबंधित थे और इसलिए मतदाताओं की समझ में आने लायक थे. जैसे किसी पार्टी के लिए दो जोड़ी बैल, दूसरे के लिए झोपड़ी, तीसरे के लिए एक हाथी और चौथे के लिए मिट्टी के लैंप को चुनाव चिह्न् के तौर पर मान्यता दी गयी.

इस चुनाव में एक दूसरा प्रयोग जो किया गया वो था बहुउद्देशीय मतपेटी का प्रयोग. अधिकांश भारतीय मतदाता अशिक्षित थे, इसलिए वे मतपत्र पर गलती कर सकते थे, इसलिए हरेक दल को प्रत्येक मतदान केंद्र पर एक मतपेटी दी गयी जिस पर उसके दल का चुनाव चिह्न् अंकित था. इससे फायदा ये हुआ कि मतदाता आसानी से अपना मतपत्र मुहर लगाने के बाद उस मतपेटी में डाल सकता था. फर्जी मतदान को रोकने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने एक स्याही का आविष्कार किया था जिसे मतदाताओं के उंगली में लगा दिया जाता था और यह एक सप्ताह तक मिटता नहीं था. इस चुनाव में इस स्याही की 389816 छोटी बोतलें इस्तेमाल में लायी गयीं.

सन् 1951 में चुनाव आयोग सालभर लोगों को फिल्म और रेडियो के माध्यम से लोकतंत्र की इस महान कवायद के बारे में जागरूक करता रहा. तीन हजार सिनेमाघरों में मतदान प्रक्रिया और मतदाताओं के कर्तव्य पर डॉक्युमेंट्री दिखायी गयी. लाखों-करोड़ों भारतीयों तक ऑल इंडिया रेडियो के द्वारा कई कार्यक्रमों के माध्यम से संदेश पहुंचाया गया. उन्हें संविधान, वयस्क मताधिकार का उद्देश्य, मतदाता सूची की तैयारी और मतदान प्रक्रिया के बारे में बताया गया. चुनाव अभियान बड़ी-बड़ी जनसभाओं, घर-घर जाकर प्रचार और दृश्य-श्रव्य माध्यमों के द्वारा किया गया. एक ब्रिटिश पर्यवेक्षक ने लिख कि चुनाव प्रचार जब उफान पर था तो हर जगह परचे और पार्टी के प्रतीक चिह्न् लगा दिये गये. ये परचे दीवार पर, नुक्कड़ों पर, यहां तक कि दिल्ली में पुरानी पीढ़ी के वायसरायों की गरिमा को ठेस पहुंचाते हुए उनकी मूर्तियों तक पर लगा दिये गये. चुनाव प्रचार करने का अद्भुत तरीका कलकत्ता में अपनाया गया जहां गायों की पीठ पर बंगाली में लिख दिया गया- कांग्रेस को वोट दें.

सभी पार्टियों ने भाषणों और परचों का इस्तेमाल किया, लेकिन रेडियो तरंगों तक पहुंच सिर्फ कम्युनिस्टों को हासिल थी. ऐसा ऑल इंडिया रेडियो के तहत नहीं था, जिसने पार्टी प्रचार पर पाबंदी लगा दी थी बल्कि ऐसा रेडियो मॉस्को के द्वारा किया जा रहा था जो ताशकंद में अपने स्टेशन के द्वारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पक्ष में प्रचार कर रहा था. अगर भारतीय श्रोता सुनना चाहते तो वे इन प्रसारणों के माध्यम से सुन सकते थे कि गैर कम्युनिस्ट पार्टियां किस तरह की होती हैं. इन रेडियो प्रसारणों में बताया गया कि गैर कम्युनिस्ट पार्टियां, आंग्ल-अमेरिकन साम्राज्यवादियों और श्रमिक वर्ग के शोषकों की भ्रष्ट शाखाएं हैं. पढ़े-लिखे लोगों के लिए मद्रास से छपनेवाली एक साप्ताहिक के प्राव्दा के एक लेख का अनुवाद किया जिसमें ये कहा गया कि सत्ताधारी कांग्रेस सरकार जमींदारों और एकाधिकारवादियों की सरकार है. यह सरकार देश के गद्दारों और बंदूकधारियों की सरकार है. साथ ही इस लेख में कहा गया कि लंबे वक्त से शोषण की शिकार और फटेहाल जनता के लिए एकमात्र विकल्प कम्युनिस्ट पार्टी ही है जिसके इर्द-गिर्द पूरे देश की सारी प्रगतिशील शक्तियां जो अपने पितृभूमि के अहम हितों को पूरा करना चाहती है, जमा हो रही है.

पार्टियों की सूची में कई क्षेत्रीय पार्टियां भी शामिल थीं जो नस्ल और धर्म के आधार पर बनायी गयी थी. इन पार्टियों में शामिल थी मद्रास की द्रविड़ कड़गम जो उत्तर भारतीय वर्चस्व के खिलाफ तमिल गौरव को बढ़ावा देने की नीति पर चुनाव लड़ रही थी. इसके अलावा पंजाब में अकाली दल और बिहार में झारखंड पार्टी भी ऐसी ही पार्टियां थीं. जहां अकाली दल सिखों की पार्टी थी, वहीं झारखंड पार्टी बिहार से अलग आदिवासियों के लिए एक अलग प्रांत की मांग कर रही थी. इसके अलावा वामपंथी पार्टी के कुछ अलग हुए धड़े भी मैदान में थे और जनसंघ से भी ज्यादा कट्टरपंथी दो हिंदूवादी दल भी मैदान में ताल ठोक रहे थे. ये दल थे हिंदू महासभा और रामराज्य परिषद.

इन सभी पार्टियों के नेताओं ने सालों तक राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा लिया था. एसपी मुखर्जी और जयप्रकाश नारायण जैसे नेता लाजवाब वक्ता थे. उनके भाषण सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे और उनके तर्क मानने पर मजबूर हो जाते थे. चुनाव से पहले राजनीति शास्त्री रिचर्ड पार्क ने लिखा कि दुनिया के किसी भी देश में प्रमुख राजनीतिक पार्टियों और नेताओं ने चुनावी रणनीति, चुनावी मुद्दों के नाटकीय प्रदर्शन, राजनैतिक भाषण कला और राजनीतिक मनोविज्ञान पर अपने अधिकार का इतना जबरदस्त प्रदर्शन नहीं किया है जितना भारत में हुआ है. हिन्दुस्तान का दौरा करने वाले एक तुर्की पत्रकार ने उस चुनाव के स्वरूप की बजाय उसके अंतर्निहित तत्वों पर अपना ध्यान केंद्रित किया. तुर्की लेखक ने इस चुनाव का पूरा श्रेय राष्ट्र को ही दिया. उसने कहा कि 17 करोड़ 60 लाख भारतीयों ने मतपेटियों के सामने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए अपने जनप्रतिनिधियों को चुना. वह तुर्की लेखक भारत में हुए उस चुनाव से इतना प्रभावित हुआ कि वह अपने देशवासियों के एक शिष्टमंडल के साथ सुकुमार सेन से मिलने गया. मुख्य चुनाव आयुक्त ने उन्हें मतपेटी, मतपत्र, चुनाव चिह्न् और चुनावी योजना के नमूने दिखाये ताकि वे अपने देश में भी लोकतंत्र की इस प्रगति को दुहरा सकें. – संपादित अंश

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