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निजता पर निर्भर हैं कई लोकतांत्रिक अधिकार
अंकिता अग्रवाल शोधार्थी जब भी कोई व्यक्ति आधार में नामांकित होता है, तो उसे सरकार को अपने चेहरे की तस्वीर, सब उंगलियों के निशान व आंखों की पुतलियों की छाप (बायोमेट्रिक्स), और अपना नाम, उम्र, लिंग, पता जैसी निजी जानकारी देनी पड़ती है. पिछले साल सरकार ने जिस आधार कानून को एक मनी बिल के […]
अंकिता अग्रवाल
शोधार्थी
जब भी कोई व्यक्ति आधार में नामांकित होता है, तो उसे सरकार को अपने चेहरे की तस्वीर, सब उंगलियों के निशान व आंखों की पुतलियों की छाप (बायोमेट्रिक्स), और अपना नाम, उम्र, लिंग, पता जैसी निजी जानकारी देनी पड़ती है.
पिछले साल सरकार ने जिस आधार कानून को एक मनी बिल के रूप में जल्दबाजी में पारित किया था, उसके अनुसार कोई भी व्यक्ति या एजेंसी जो शुल्क देने के लिए तैयार है, उसे आधार में नामांकित लोगों के उंगलियों के निशान और आंखों की पुतलियों की छाप छोड़कर अन्य जानकारी मिल सकती है. पर अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि उसकी निजता पर प्रहार हुआ है, तो इस कानून में शिकायत निवारण के कोई ठोस उपाय नहीं हैं. आधार पर शोध करनेवाली ऊषा रामनाथन का कहना है कि सरकार को लोगों के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी होना चाहिए, पर आधार इसका ठीक विपरीत करता है- वह सरकार को लोगों पर नजर रखने का एक जरिया देता है.
सर्वोच्च न्यायालय में आधार पर जो मुकदमा चल रहा था, उसमें 2015 में केंद्र सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि भारत का संविधान नागरिकों को निजता का मौलिक अधिकार नहीं देता. कुछ महीनों पहले उन्होंने यह भी कहा कि नागरिकों का उनके शरीर पर पूर्ण अधिकार नहीं है.
सरकार के एक और वकील केके वेणुगोपाल ने कहा कि निजता एक इतनी अस्पष्ट संकल्पना है कि यह एक मौलिक अधिकार नहीं हो सकता, खासकर भारत जैसे गरीब देश में. उनका यह मानना था कि अगर देश की जनता के लिए रोटी, कपड़ा और मकान सुनिश्चित करना है, तो उसकी निजता के साथ समझौता तो करना पड़ेगा. अंत में सर्वोच्च न्यायालय ने निजता के मौलिक अधिकार का मामला नौ जजों की एक संविधान पीठ को सौंपा.
बीते 23 अगस्त, 2017 को इस पीठ ने आमसहमति से यह फैसला सुनाया कि निजता एक मौलिक अधिकार है और चूंकि निजता जीवन व स्वतंत्रता के लिए आंतरिक है, उसका अधिकार भारतीय संविधान की धारा 21 के तहत आता है.
इसका मतलब, अगर किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार का हनन होता है, तो वह उच्च या सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटा सकता है.
पीठ ने यह भी कहा कि अन्य मौलिक अधिकार भी निजता सुनिश्चित करते हैं और गरीबों को केवल आर्थिक अधिकारों से मतलब है और न कि नागरिक व राजनीतिक अधिकारों से, इस तर्क के सहारे विश्व भर में अनेकों बार मानव अधिकारों के क्रूर हनन हुए हैं. नागरिक व राजनीतिक अधिकारों को सामाजिक-आर्थिक अधिकारों के अधीन नहीं माना जा सकता.
कई लोगों के मन में यह सवाल होगा कि अगर उन्होंने कोई गलत काम नहीं किया है, तो उनको क्यों इस बात की परवाह कि सरकार के पास उनकी कोई जानकारी है या नहीं?
यह जरूरी नहीं है कि जो बात किसी को सही लगे वह सरकार की राय में भी ठीक हो. अगर सरकार को आपकी कोई करतूत से चिढ़ मचती है, तो वह उसके पास आपकी जानकारी की मदद से आप पर नजर रखकर आपको डरा धमका सकती है, जिसके कारण आप शायद कुछ करना बंद कर दे या कुछ बोलना छोड़ दे. इसलिए, बिना निजता के कोई भी व्यक्ति एक स्वतंत्र व सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकता. लोकतंत्र नागरिकों को समानता, सोच, अभिव्यक्ति और मतभेद जैसे मूल्यवान अधिकार देता है. परंतु, ये सब अधिकार निजता पर निर्भर हैं, यानी जीवंत लोकतंत्र का एक खंभा निजता भी है.
हास्यप्रद बात है कि दो सालों तक लोगों के निजता के मौलिक अधिकार को नकारने के बाद कानून मंत्री ने पीठ के फैसले का स्वागत किया. पर, अब आधार की कानूनी वैद्यता पर सवाल उठते हैं और इस परियोजना के निजता पर असर को और सख्ती से परखा जायेगा. सर्वोच्च न्यायालय को अब इस बात का फैसला करना होगा कि क्या लोगों को उनका मोबाइल फोन नंबर, बैंक खाता, पैन कार्ड आदि आधार के साथ जोड़ने के लिए बाधित करना उनकी निजता के मौलिक अधिकार पर प्रहार है या नहीं.
निजता के मौलिक अधिकार होने के फैसले का असर केवल आधार पर नहीं, पर कई अन्य मुद्दों पर भी होगा. विशेषज्ञों का मानना है कि इस फैसले से सरकार व निजी कंपनियों द्वारा जानकारी एकत्रित करने की अन्य प्रथाओं को भी अब कई कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा.
23 अगस्त के फैसले में तो यह भी कहा गया है कि किसी व्यक्ति की लैंगिक स्वतंत्रता उसकी पहचान है और इसलिए उसके सम्मान व निजता का एक मूल पहलू है. इसका असर सर्वोच्च न्यायलय के भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 377 के फैसले को चुनौती देनेवाली लंबित याचिका पर भी पड़ेगा. देशप्रेम के नाम पर लोगों की निजी जिंदगियों, उनके खान-पान, रहन-सहन, पसंद-नापसंद में तांक-झांक जो बढ़ गयी है, उसे भी इस फैसले से लगाम मिलने की उम्मीद है.
निजता के मौलिक अधिकार होने का फैसला निश्चित ही एक जीत है. यह कितनी बड़ी जीत है, वह इस पर निर्भर करता है कि इसके सहारे और क्या-क्या हासिल होगा. इस फैसले का प्रयोग इस पर निर्भर करता है कि इसका कितना प्रचार-प्रसार होता है और लोग इसे लेकर कितना संघर्ष करते हैं. इसमें सबकी भूमिका है- राजनीतिक दलों की, मीडिया की, नागर समाज की भी.
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