परिवार से अधिक पार्टी की दुर्दशा पर है मलाल
संजय कुमार अभयगोपालगंज के कुचायकोट प्रखंड के बिंदवलियां गांव के रहने वाले आनंद बिहारी प्रसाद सिन्हा जीवन के 65 वसंत देख चुके हैं. मैट्रिक की पढ़ाई के दौरान 1964 में लालबहादुर शास्त्री की त्याग और तपस्या के बारे में जान कर कांग्रेस के प्रति मन में आकर्षण बढ़ा. पढाई के दौरान ही यूथ कांग्रेस में […]
संजय कुमार अभय
गोपालगंज के कुचायकोट प्रखंड के बिंदवलियां गांव के रहने वाले आनंद बिहारी प्रसाद सिन्हा जीवन के 65 वसंत देख चुके हैं. मैट्रिक की पढ़ाई के दौरान 1964 में लालबहादुर शास्त्री की त्याग और तपस्या के बारे में जान कर कांग्रेस के प्रति मन में आकर्षण बढ़ा. पढाई के दौरान ही यूथ कांग्रेस में शामिल हुए. 1965 में गोपालगंज के कमला राय कॉलेज के उद्घाटन समारोह में रेल मंत्री रहे जगजीवन राम ने उन्हें यूथ कांग्रेस की सदस्यता दिलायी.
शाम में यूथ कांग्रेस के कार्यालय के उद्घाटन के समारोह में आनंद बिहारी सिन्हा को कांग्रेस की जिम्मेदारी दी गयी. तब मैट्रिक की परीक्षा में सबसे करीब के दोस्त ध्रुव नारायण गुप्ता थे. हालांकि दोस्ती तो रमेश चंद्र सिंह, फहमुदीन खान, इरशाद खान, मदन सिंह आदि से भी थी. पिता चंद्रदेव नारायण जो खुद कांग्रेस से जुड़े हुए थे, गोपालगंज कोर्ट में ताइद का काम करते थे. मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लिए आनंद बिहारी सिन्हा एकलौते पुत्र थे. साथी ध्रुव नारायण गुप्ता अपने साथ आनंद बिहारी सिन्हा को भी आइपीएस बनाने का सपना पाले हुए थे.
मगर कांग्रेस नेताओं की बलिदानी परंपरा ने मन में ऐसा घर किया कि ये कांग्रेस के लिए घर तक छोड़ने को तैयार हो गये. तब गोपालगंज में नगीना राय विधान सभा चुनाव लड़ने के लिए आ चुके थे. अपनी बदौलत नगीना राय के चुनाव अभियान की कमान संभाली. उन्हें पहली बार 1965 में विधायक के चुनाव में विजय श्री दिलायी. इसके बाद पार्टी के निर्देश पर भोरे से अलगू राम को विधायक बनाने में अहम भूमिका निभाई और जिला परिषद अध्यक्ष व्यास प्रसाद सिंह क ी कमान संभाली. राजनीति में बढ़ते कदम तथा परिजनों से दूर होने के मलाल ने उनके पिता चंद्रदेव नारायण का चैन छिन लिया था. परिजनों ने विरोध किया, यहां तक कि 1970 में इनकी शादी कर दी गयी ताकि जिम्मेदारी बढ़े और राजनीति के प्रति मोह कम हो. पर असर उल्टा हुआ. मीरगंज के अनंत प्रसाद, सिद्धेश्वर शाही जैसे लोगों की चुनाव में अहम भूमिका निभाने वाले आनंद बिहारी सिन्हा मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर के सबसे करीब माने जाते थे. प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी 1977 में चुनाव हार गयीं.
1978 में जब जेल गयीं तो आनंद बिहारी सिन्हा भी नगीना राय, सिद्धेश्वर शाही समेत कई नेताओं के साथ जेल में रहे. इन्हें सबसे बड़ा झटका तब लगा जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी. पूरे देश में कांग्रेस की लहर थी. फिर भी गोपालगंज में कांग्रेस को हार का सामना करना पडा. 1984 के बाद का दौर आनंद बिहारी सिन्हा के लिए काफी दुखदायी रहा है. तीन बेटे और बेटियों के साथ परिवार का बोझ उठा पाना मुश्किल हो गया. परिवार के लिए अपनी रोटी की व्यवस्था कर पाने की असफलता ने उन्हें तोड़ दिया. वे कहते हैं, कांग्रेस नेतृत्व विहीन होने लगा.
गलत लोगों के हाथ में गोपालगंज की कमान भी दी जाने लगी. इस बीच आनंद बिहारी सिन्हा ने फिर पढ़ाई-लिखाई की तरफ रुख किया तो पिता ने साथ छोड़ दिया. बच्चों की पढ़ाई-लिखायी और परिवार के लिए रोटी की चिंता सताने लगी. चारों तरफ से गरीबी घेरने लगी. बीए कर चुके आनंद ने 1992 में वकालत की पढ़ाई पूरी की. मगर इसके बाद भी वकालत कम पार्टी के लिए ज्यादा काम करते रहे. खेती से आने वाली आय जीविका का साधन बना. कई बार कांग्रेस के अच्छे दिनों में विधायक बनाने के लिए विधानसभा के टिकट का ऑफर भी मिला मगर कभी चुनाव लड़ने की इच्छा नहीं की. दूसरों को टिकट दिलाकर उन्हें विधायक बनाने का काम किया. आनंद बिहारी प्रसाद सिन्हा एक साल पहले तक कांग्रेस के जिला उपाध्यक्ष के पद पर काम कर चुके हैं. इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने यहां अपना उम्मीदवार घोषित किया है. परिवार से अधिक पार्टी की चिंता है कि बिना बुनियाद के कैसे कांग्रेस की नैया पार लगेगी. आनंद बताते हैं कि तब ईमानदार किस्म के नेता होते थे आज नेताओं में कोई नैतिक मूल्य नहीं है. अनुशासन नहीं है. जिससे वे काफी कुंठित रहते हैं.