समाज की अपनी गति होती है. सामाजिक बुनावट की अनेक परते हैं और इनके बीच अंतरविरोध का क्रम भी चलता रहता है. ऊंच-नीच, भेदभाव और अछूत इसी समाज व्यवस्था की देन हैं. बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर ने इन्हीं परतों के अंतरविरोधों को समझने की कोशिश की थी. उनके जन्म दिन 14 अप्रैल पर डॉ अम्बेडकर के संपूर्ण वाड़्मय का यह अंश मौजूदा सामाजिक संरचना में हो रहे बदलावों की दिशा में एक समझ विकसित करता है.
अस्पृश्यों का विद्रोह बताता है कि किस प्रकार पुरानी व्यवस्था समाप्त हो रही है और नयी व्यवस्था शुरू हो रही है. इस विद्रोह के प्रति हिंदुओं की क्या प्रतिक्रिया है? जो कोई इसके बारे में कुछ भी जानता है, वह बिना किसी संकोच के इस प्रश्न का उत्तर दे सकता है, क्योंकि यह स्पष्ट है कि उनका रवैया विरोध का है. यह समझने में तो कठिनाई हो सकती है कि हिंदू क्यों विरोध करते हैं, लेकिन इस बारे में कोई शंका नहीं हो सकती कि वे विरोध करते हैं. किन कारणों से हिंदू अस्पृश्यों के इस अधिकार संघर्ष का विरोध करते हैं, उन्हें समझना सरल हो जाएगा, यदि सवर्ण हिंदुओं और अस्पृश्यों के वर्तमान संबंधों की कतिपय महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखा जाए.
जिस सर्वप्रथम तथा सवरेपरि बात को सदैव याद रखना ही होगा, वह है स्पृश्यों और अस्पृश्यों के बीच की स्पष्ट विभाजन रेखा. हर गांव दो भागों में बंटा होता है, स्पृश्यों के घर और अस्पृश्यों के घर. भौगोलिक दृष्टि से ये दोनों भाग बिल्कुल अलग होते हैं. सदा ही दोनों के बीच काफी दूरी होती है. किसी भी स्थिति में दोनों प्रकार के घर अगल-बगल नहीं होते और न ये पास ही होते हैं. अस्पृश्यों के घरों के नितांत अलग नाम होते हैं, जैसे महारवाड़ा, मांगवाड़ा, चमरोट्टी, खाटिकाना आदि. कानूनी तौर पर राजस्व प्रशासन या डाक संदेश के लिए अस्पृश्यों के घर गांव का हिस्सा माने जाते हैं, लेकिन असलियत में वे गांव से अलग होते हैं. गांव में रहने वाला हिंदू जब गांव की बात करता है तो उसका आशय उसमें केवल सवर्ण हिंदू निवासियों को शामिल करना होता है, जो स्थानीय रूप से वहां रहते हैं. इसी प्रकार जब कोई अस्पृश्य गांव की बात करता है तो उसका आशय उस गांव में से अस्पृश्यों और उनके घरों से रहित गांव से होता है. यह जरूरी नहीं कि इन दोनों को मिलाकर ही गांव बने. इस प्रकार हर गांव में स्पृश्यों और अस्पृश्यों के दो अलग-अलग समूह होते हैं. उनमें कोई समानता नहीं होती. उनका एकल जनसमूह नहीं होता. यह पहली ध्यान देने योग्य बात है.
गांव में इस प्रकार के विभाजन के बारे में दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये समूह स्वयं में अलग-थलग एक इककाई होते हैं और कोई भी एक-दूसरे को अपने में शामिल नहीं करता. यह ठीक ही कहा गया है कि अमेरिका यूरोप में रहने वाला व्यक्ति विभिन्न प्रकार के समूहों का होता है और वह उनमें से अधिकांश का सदस्य बनता है. वह निश्चय ही एक परिवार में जन्म लेता है, लेकिन वह उस परिवार में सारी जिंदगी रहने के बजाए जब तक चाहे तभी तक उस परिवार में रहता है. वह कोई भी व्यवसाय या कोई भी निवास स्थान चुन सकता है, किसी के भी साथ विवाह कर सकता है, किसी भी राजनीतिक दल में शामिल हो सकता है. वह किसी दूसरे के द्वारा किये गये कार्य के बजाए केवल अपने कार्यो के लिए जिम्मेदार होता है. वह पूर्ण अर्थ में व्यक्ति होता है, क्योंकि उसके सभी संबंध और सभी कार्य उसी के द्वारा अपने लिए निर्धारित होते हैं. लेकिन स्पृश्य अथवा अस्पृश्य व्यक्ति किसी भी अर्थ में व्यक्ति नहीं होता, क्योंकि उसके सभी या लगभग सभी संबंध तभ निश्चिचत हो जाते हैं, जब उसका जन्म किसी वर्ग विशेष में हो जाता है. उसका व्यवसाय, उसका निवास, उसकी राजनीति, आदि सभी कुछ उस वर्ग द्वारा उसके लिए निश्चित हो जाते हैं, जिसमें उसका जन्म हो गया होता है. ये स्पृश्य और अस्पृश्य व्यक्ति एक-दूसरे से जब मिलते हैं तो इस तरह नहीं मिलते जैसे एक इंसान दूसरे इंसान से मिल रहा होता है, बल्कि वे ऐसे मिलते हैं जैसे एक समुदाय का व्यक्ति दूसरे समुदाय से या दो विभिन्न राष्ट्रों के व्यक्ति आपस में मिल रहे हों.
गांव में स्पृश्यों और अस्पृश्यों के आपसी संबंधों पर इस बात का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. यह संबंध उन्हीं के सदृश्य होते हैं जैसे आदिम काल में दो विभिन्न कबीलों के बीच होते थे. आदिम समाज में एक कबिले के व्यक्ति यह दावा करते थे कि वही की जा सकती है, लेकिन वह अपने कबीले के अलावा किसी अन्य कबीले से न्याय की गुहार नहीं कर सकता. एक कबीले के साथ दूसरे कबीले के संबंध युद्ध या मैत्री के संबंध समङो जाते थे, न कि किसी कानून के संबंध. और जो व्यक्ति किसी कबीले का नहीं होता था, वह ‘बाहरी’ समझा जाता था. असलियत में और नाम से भी. इसलिए बाहरी व्यक्तियों के विरुद्ध कानून की अनदेखी कर व्यवहार करना कानून में जायज था. चूंकि अस्पृश्य व्यक्ति स्पृश्यों के वर्ग का सदस्य नहीं है, इसलिए वह बाहरी व्यक्ति है. उससे उनका कोई संबंध नहीं है. वह कानून के लाभ से बहिष्कृत व्यक्ति है. वह ऐसे न्याय अथवा अधिकार की मांग नहीं कर सकता, जिसे स्पृश्य के लिए आदर की दृष्टि से देखना अनिवार्य है.
तीसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्पृश्यों और अस्पृश्यों के बीच निश्चित संबंध होते हैं. यह हैसियत का सवाल बन गया है. निश्चय ही इस कारण स्पृश्यों के मुकाबले अस्पृश्यों को हीन स्थिति में रखा गया है. यह हीनता सामाजिक आचार-संहिता में वर्णित है और अस्पृश्यों को उसका पालन करना ही चाहिए. वह संहिता कैसी है, उसका उल्लेख किया जा चुका है. अस्पृश्य उसका पालन नहीं करना चाहता. वह यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि जिसके पास लाठी है, भैंस भी उसी की है. अस्पृश्य चाहते हैं कि स्पृश्यों के साथ उनके संबंध किसी सहमति पर आधारित हों. लेकिन स्पृश्य चाहते हैं कि अस्पृश्य निश्चित दज्रे के नियमों के अनुसार चलें और उससे ऊपर उठने की कोशिश न करें. इस प्रकार गांव के दो वर्ग, अर्थात स्पृश्य और अस्पृश्य, उस व्यवस्था को पुन: व्यवस्थित करने के लिए संघर्षरत हैं, जिसे स्पृश्य समझते हैं कि यह हमेशा के लिए निर्णीत हो चुकी है. यह संघर्ष इस प्रश्न को लेकर है कि इस संबंध का आधार क्या हो? क्या इसका आधार कोई समझौता हो या उसका आधार हैसियत को माना जाये?
यही वह प्रश्न है, जिसने हिंदुओं को उत्तेजित कर रखा है. अस्पृश्यों के विद्रोह को हिंदू इस दृष्टि से देखता है कि यह अस्पृश्यों का अपनी सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए एक पयास है. हिंदू का विचार है कि यह प्रयास उसके विरु द्ध है और उसकी बराबरी पर आने का प्रयास है. यही उसके विरोध का कारण है.