जन-प्रतिनिधि समाज का प्रतिबिंब होता है

!!सचिन कुमार जैन!!एके राय संसद सदस्य रहे हैं परन्तु अपने जनप्रतिनिधित्व के बदले वे सरकार की किसी सुविधा का लाभ नहीं लेते हैं. रेल के साधारण दर्जे में यात्रा कर वे आम आदमी से सीधा संवाद करते हैं. उनके अनुसार समाज के रूप को विकृत करने में संपत्ति के संचय की प्रवृत्ति का सबसे अहम् […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 20, 2014 9:11 AM

!!सचिन कुमार जैन!!
एके राय संसद सदस्य रहे हैं परन्तु अपने जनप्रतिनिधित्व के बदले वे सरकार की किसी सुविधा का लाभ नहीं लेते हैं. रेल के साधारण दर्जे में यात्रा कर वे आम आदमी से सीधा संवाद करते हैं. उनके अनुसार समाज के रूप को विकृत करने में संपत्ति के संचय की प्रवृत्ति का सबसे अहम् योगदान है. इस संक्रमण से न तो विचारक बच सका है, न ही राजनीतिज्ञ और स्वाभाविक है कि सामाजिक परिवर्तन का झण्डा थामने वाले भी कहीं न कहीं अपने निहित लक्ष्यों पर निशाना साधे हुये हैं.

1991 में सांसदों को पेंशन की सुविधा उपलब्ध कराने वाले बिल का सदन में विरोध करने वाले एक मात्र सांसद व्यावहारिक रूप से मानते हैं कि किसी भी वर्ग का आदमी अपने सामाजिक जीवन में यदि किसी पर विश्वास कर सकता था तो वह था जनप्रतिनिधि. वह जनप्रतिनिधि से ही अपेक्षा कर सकता था नीति कि नियोजन और क्रियान्वयन के मंच पर उसके मुद्दे उठाये जायेंगे. परन्तु यह विश्वास पूरी तरह से टूट चुका है. हालांकि जनप्रतिनिधि का चरित्र जनता के चरित्र और उसकी मांग पर निर्भर करता है जैसी जनता होगी वैसा उसका प्रतिनिधि होगा. यदि ऐसा नहीं होता तो भ्रष्ट जनप्रतिनिधि बार-बार जनता का प्रतिनिधि नहीं बनता.

जन प्रतिनिधि कभी भी प्रेरणा का स्नेत नहीं हो सकता है, वह केवल उसे प्रतिबिंबित कर सकता है. वह परिवर्तन की प्रक्रिया में मार्गदर्शक हो सकता है परन्तु परिवर्तन का स्नेत नहीं हो सकता. ऐसी अवस्था में यदि हम सामाजिक परिवर्तन में जनप्रतिनिधियों की भूमिका पर चिंतन करते हैं तो इस बुनियादी जरूरत को पूरा करना होगा कि समाज को बदलने के बारे में सोचने से पहले खुद को बदलना होगा. इस सिद्घान्त का व्यावहारिक प्रयोग गांधी के जीवन में भली-भांति देखा जा सकता है. उस व्यक्ति ने भारत जैसे देश के स्वाधीनता संग्राम का प्रतिनिधित्व किया, वह भी अपनी शर्तों पर. उन्होंने न तो अंग्रेजों से समझौता किया न अपने देश की जनता से. उन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा फिर भी क्या उनसे बड़ा कोई जनप्रतिनिधि हो पाया. गांधी जी इस बात का प्रतीक हैं कि जिस परिवर्तन को हम अपना लक्ष्य मानते हैं, पहले उसका प्रयोग हमें अपने आप पर करना होगा. कामरेड राय जैसे विचार वैसे व्यवहार के सिद्घान्त में विश्वास रखते हैं. उनके धनबाद (झारखण्ड) के कार्यालय में आधुनिकता के नाम पर एक बल्ब और एक टेलीफोन है और जहां वे रहते हैं वहां तो बिजली ही नहीं है. उनके घर में उनका साथी है लालटेन और कुछ किताबें.

जिस क्षेत्र का श्री राय प्रतिनिधित्व करते हैं वह देश की कोयला राजधानी कहलाता है और वहां उन्होंने मजदूरों के शोषण के खिलाफ अनगिनत लड़ाई लड़ी है. बिहार कोलियरी कामगार यूनियन के अध्यक्ष के रूप में कहते हैं कि नये रहन-सहन का भारत के लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं है. संपन्नता और भौतिक सुखों के प्रचार-प्रसार का उद्देश्य केवल बाजारवादी सोच को स्थापित करना है ताकि जीवन की रचनात्मकता समाप्त हो जाये. अपनी जड़ों से कटकर कोई समाज किसी भी तरह के परिवर्तन के लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकता है. इस भ्रम को भी तोड़ना होगा कि पाश्चात्य संस्कृति अपनाना या अंग्रेजी भाषा बोलना विकास का कोई सूचक है.

एके राय मानते हैं कि सदन में सही बात बोलने वाले और सुनने वाले दोनों ही कम हैं परन्तु जब भी सही बात कही जाती है तो उसका सदन पर प्रभाव तो पड़ता है, भले ही यह बहुत सीमित होता हो. परन्तु इसका दूसरा पहलू और अधिक महत्वपूर्ण है- जिस समाज को हम बदलना चाहते हैं न तो उस तक सदन की बात और मंशा पहुंचती है, न ही उस समाज की बात और मंशा सदन में गूंजती है. संसद के जरिये समाज को बदलना संभव नहीं है. सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया नीचे से शुरू करना होगी, लोगों को खुद यह दायित्व निभाना होगा क्योंकि परिवर्तन के मार्ग में अब सबसे बड़ी बाधा तो खुद उनके प्रतिनिधि बन गये हैं.

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