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कांग्रेस के वर्चस्व को केरल ने तोड़ा था

।।रामचंद्र गुहा।।सन् 1952 के चुनावों में नेहरू के लिए सबसे मजबूत वैचारिक चुनौती दक्षिणपंथी खेमे की तरफ से जनसंघ ने और वामपंथी खेमे से समाजवादियों ने दी थी. लेकिन अब वे दी दोनों पार्टियां बिखरी हुई थीं. इसकी एक वजह उन पार्टियों के कद्दावर नेताओं का निधन भी था. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो […]

।।रामचंद्र गुहा।।
सन् 1952 के चुनावों में नेहरू के लिए सबसे मजबूत वैचारिक चुनौती दक्षिणपंथी खेमे की तरफ से जनसंघ ने और वामपंथी खेमे से समाजवादियों ने दी थी. लेकिन अब वे दी दोनों पार्टियां बिखरी हुई थीं. इसकी एक वजह उन पार्टियों के कद्दावर नेताओं का निधन भी था. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु हो गयी थी और जयप्रकाश नारायण ने सामाजिक कार्यो के लिए राजनीति को अलविदा कह दिया था. पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस को चुनौती देने वाला लगभग कोई नहीं था. इसने उत्तर भारत की 226 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें इसे 195 सीटों पर कामयाबी हासिल हुई थी जिससे संसद में पार्टी की कुल सीटों का आंकड़ा 371 तक पहुंच गया. पार्टी को संसद में आराम से बहुमत मिल गया.

दक्षिण भारत में भी कांग्रेस के खिलाफ एक क्षेत्रीय चुनौती पनप रही थी. यह डीएमके के शक्ल में सामने आयी जो ईवी रामास्वामी नायकर के द्रविड़ आंदोलन से निकली थी. पेरियार (महान व्यक्ति) के नाम से मशहूर रामास्वामी नायकर, राजनीति, संस्कृति और धार्मिक क्षेत्र में उत्तर-भारतीयों के वर्चस्व घनघोर विरोधी थे. उन्होंने दक्षिण भारत में द्रविड़नाडु के नाम से एक अलग देश की मांग बुलंद की. लेकिन कांग्रेस द्वारा पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने के दावे को सबसे गहरा धक्का भारतीय संघ के सबसे दक्षिणी छोर पर स्थित राज्य ने दिया. वह राज्य केरल था जहां फिर से उठ खड़ी हो रही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस के सामने सत्ता का एक मजबूत विकल्प बनकर सामने आयी थी. लोकसभा के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी ने 18 में से 9 सीटों पर कब्जा कर लिया. विधानसभा चुनावों में जो कि साथ-साथ करवाये गये थे कम्युनिस्टों ने 126 में से 60 सीटें जीत लीं और 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से उसे मामूली बहुमत मिल गया.

केरल विधानसभा चुनाव में कम्युनिस्टों की जीत ने एक बड़ी संभावना की राह दिखायी जिसे एक जमाने में लेनिन का संसदीय दिवालियापन करार दिया था. कम्युनिस्टों को पहली बार किसी बड़े देश के बड़े सूबे में चुनाव के दवारा सत्ता हासिल करने का मौका मिला था. दुनिया में शीतयुद्ध की तपिश बढ़ती जा रही थी, उस लिहाज से केरल में कम्युनिस्टों का सत्ता में आना पूरे दुनिया की दिलचस्पी की वजह बन गयी. लेकिन इसने भारत की संघीय प्रणाली के भविष्य पर भी सवाल खड़ा कर दिया. हालांकि अतीत में ऐसे वाकये हुए थे जब प्रांतीय सरकारें विपक्षी पार्टियों या कांग्रेस असंतुष्टों द्वारा चलायी गयी थी, लेकिन नयी दिल्ली को अब तक जिस चुनौती का सामना करना पड़ा वो पहले से कहीं बिल्कुल अलग था. अब एक ऐसी पार्टी सत्ता में आ गयी थी जो कल तक बिल्कुल भूमिगत थी, जो सशस्त्र विद्रोह में आस्था रखती थी और जिसके नेताओं के बारे में माना जाता था कि वे कभी-कभी मॉस्को से भी दिशा-निर्देश लेते थे.

सीपीआई की केरल इकाई एक जमीन से जुड़ी पार्टी थी. इसके सबसे प्रभावशाली नेताओं ने कांग्रेस में अपना राजनीतिक प्रशिक्षण हासिल किया था, फिर वे वाम की तरफ चले गये थे. उन्होंने रैयतों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए किसान संघों की स्थापना की. कम्युनिस्टों ने भूमिहीन मजदूरों की मजदूरी में इजाफे और उसके काम की बेहतर स्थितियों के लिए श्रमिक संघों की स्थापना की. उन्होंने वाचनालयों की स्थापना की जहां बुद्धिजीवी लोग आते और अपने कम खुशनसीब भाइयों को आंदोलनकारी विचारों से अवगत कराते. वामपंथी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए नाटक और नृत्य का भी इस्तेमाल किया गया. सन् तीस के दशक के आखिरी सालों में कम्युनिस्टों ने केरल में काफी तरक्की की. उनकी जड़ें जमती गयीं. उस समय दुनिया में आयी वैश्विक महामंदी और द्वितीय महायुद्ध की वजह से उनका विचार और उनकी आदर्शवादिता ने बंटे हुए समाज को काफी प्रभावित किया.

!!भारत गांधी के बाद से लेख का संपादित अंश!!

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