जाति के दलदल में धंसती द्रविड़ राजनीति
।।शिप्रा शुक्ला,तमिलनाडु से।। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि पिछले दो दशक से प्रदेश में जातीय दल मशरूम की तरह उभरे हैं. ये पिछड़े वर्ग के वर्चस्व वाले द्रविड़ दलों के पारम्परिक वोट बैंक में सेंध लगा रहे हैं. प्रमुख द्रविड़ दलों की लोकप्रियता में भी कमी आई है और द्रमुक और अन्नाद्रमुक को प्रदेश […]
।।शिप्रा शुक्ला,तमिलनाडु से।।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि पिछले दो दशक से प्रदेश में जातीय दल मशरूम की तरह उभरे हैं. ये पिछड़े वर्ग के वर्चस्व वाले द्रविड़ दलों के पारम्परिक वोट बैंक में सेंध लगा रहे हैं. प्रमुख द्रविड़ दलों की लोकप्रियता में भी कमी आई है और द्रमुक और अन्नाद्रमुक को प्रदेश की सरकार बनाने के लिए गठबंधनों का सहारा लेना पड़ा है. हालांकि द्रविड़ पहचान का सवाल आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आज से सात आठ दशक पहले था जब द्रविड़ आंदोलन की शुरुआत हुई थी.
मलेशिया, सिंगापुर और तमिलनाडु वासियों में फैले द्रविड़ आंदोलन यानी स्वसम्मान आंदोलन की शुरु आत 1925 में समाज सुधारक नेता पेरियार द्वारा हुई थी. लेकिन इतने सालों बाद आज जातियों के राजनीतिक ध्रुवीकरण और अपनी जाति में सम्मान ढूंढने की मनोवृत्ति तमिलनाडु के राजनीतिक परिवेश में साफदेखी जा सकती है. प्रदेश में हाल में हुई वन्नियार और दलित हिंसा की घटनाओं ने जातीय मुद्दों को फिर सामने ला खड़ा कर दिया है. गत वर्ष एक अंतरजातीय विवाह को लेकर प्रदेश में दलितों के करीब 200 घर देखते-देखते राख हो गए और बाद में विवाद के केंद्र में रहा वह पति खुदकुशी कर पत्नी को मुक्त कर गया. हालांकि ऊपरी तौर पर सभी दलों ने इस घटनाक्र म की भर्त्सना की लेकिन वे महज घड़ियाली आंसू थे.
दलितों के हित के लिए लड़नेवाले दल ऐसा मानते हैं कि पुधिय तमिल्गम और विदुथलाई चिरु थाईकल पट्टाली मक्कल कटची ने इस विवाद के लिए को वन्नियार समुदाय को भड़काया था. वन्नियार समुदाय प्रदेश का सबसे बड़ा समुदाय है जो तकरीबन 30 फीसदी मत रखता है. उसके नेता वैसे हर दल में मिल जायेंगे लेकिन मोस्ट बैकवर्ड क्लास में शामिल इस समुदाय के उलेमा पट्टाली मक्काल काची के नेता रामदास माने जाते हैं. 1980 में रामदास के नेतृत्व में वन्नियार संगम का जन्म हुआ था और नौ बरस बाद 1989 में पट्टाली मक्काल काची नाम से राजनीतिक दल बना. दल को सबसे फायदा इस बात से मिलता है कि वन्नियार समुदाय एक मुश्त मत देने के लिए जाना जाता हैं.
पर्यवेक्षक मानते हैं, पीएमके किसी ऐसे मौके की तलाश में था कि वन्नियार समुदाय का ध्रुवीकरण किया जा सके. इसलिए जब दलित इलावरसन और वन्नियार दिव्या के विवाह की खबर निकली तो बिना समय गंवाए पीएमके नेताओं ने इस विवाह के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया और अंतर्जातीय विवाह को समाज के नाम पर धब्बा बताया. धर्म पंचायत ने दिव्या को वापस पिता के घर लौटने की आज्ञा दी और जब बेटी ने इसे नहीं माना तो पिता सामाजिक तिरस्कार का पात्र बन गया जिससे घबरा कर दिव्या के पिता ने फांसी लगा ली. इस पर वन्नियार समुदाय को खून खौल उठा और करीब हज़ार डेढ़ हजार युवकों ने नाथन कॉलोनी और पास के इलाको में लूटपाट और आगजनी की. देखते ही देखते धर्मपुरी जल उठा और दलितों के करीब 200 झोपड़े जल कर राख हो गए और टीवी, फ्रिज और गहने सब उनके घरों से गायब हो गए.
हालांकि वन्नियार समुदाय में रसूख रखने वाले पीएमके नेता हिंसा में दल का हाथ मानने से इनकार करते हैं लेकिन वे मानते हैं कि उनका दल पहले ही से इस विवाह के खिलाफ था और सार्वजानिक रूप से अंतर्जातीय विवाह का विरोध करता आ रहा था. बाद में वन्नियार लड़की पर सामाजिक दवाब इतना बढ़ गया कि उसने अदालत में जाकर अपने पति के पास न वापस लौटने का फैसला कर लिया और इससे दुखी हो कर उसके पति इलावरसन ने आत्महत्या कर ली. इलावरसन के माता पिता इसे हत्या मानते हैं और मामला अदालत और पुलिस जांच के बीच लटका हुआ है लेकिन सच यह है कि जातीय उलेमाओं के चलते दिव्या ने अपने पिता और पति दोनों को खो दिया और जिंदगी भर स्वयं को उनकी मौत का जिम्मेवार मानने के लिए मजबूर है. पीएमके उस समय प्रदेश और केंद्र दोनों सरकारों के गठबंधन में था और शायद यही वजह है कि इस अंतर्जातीय विवाह के खिलाफ खुल कर जहर उगलने वाले नेताओं के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई.
स्वतंत्रता के बाद तमिल राजनीति में जातिगत हिंसा और टकराव आम बात थी. 1957 ने कांग्रेस समर्थक और पिछड़े नेता मुथुरमलिंगम के नेतृत्व वाले दलित आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लाक में खुल कर टकराव हुआ. दलित नेता इम्मानुएल सेकरन की हत्या के बाद कई जिलो में भयंकर जातिगत हिंसा हुई. इसके बाद द्रविड़ दलों के आने पर तमिल पहचान ने प्रदेश में अपना स्थान बनाया और जाति गत सवाल दबे रहे. प्रदेश के सभी प्रमुख दल द्रविड़ मुनेत्र कडगम और अन्नाद्रमुक पेरियार के दल द्रविड़ कडगम की उपज हैं और पेरियार के ब्राह्मणवाद विरोधी आदर्श के समर्थक रहे है. 1967 से प्रदेश की सत्ता इन्हीं दोनों दलों के पास रही है.
80 के दशक में कई वर्गो में द्रविड़ दलों की दादागीरी और जातिगत प्राथमिकताओं पर सवाल उठाये जाने लगे. 80 के दशक के अंत में प्रदेश में खासी संख्या में मौजूद वन्नियार समुदाय ने स्वयं को सबसे पिछड़ी जाति में शामिल करवाने के लिए खूनी संघर्ष किया. इसी दौर में पट्टाली मक्कल कटची का गठन हुआ और जाम लगाने, बसें फूंकने और पेड़ उखाड़ने से शुरू हुआ संघर्ष अब सत्ता की गलियारों में पहुंच कर शांत हो गया है. पीएमके या फिर दलित दल के दोनों ही द्रविड दलों से अच्छे संबंध हैं और अक्सर प्रदेश की सत्ता में शामिल रहते हैं. राजनीतिक ईमानदारी के अभाव के कारण ही दल पीएमके जैसी खाप पंचायतों के खिलाफ एकजुट होने की बजाय उन्हें अपने घटक में शामिल कर राजनीतिक सम्भावनायें तलाशते हैं. पहले यूपीए फिर अन्नाद्रमुक से अलग हो 2014 लोकसभा चुनाव में पीएमके अब भाजपा के घटक का हिस्सा है और केंद्र सरकार में शामिल होने की उम्मीदे लगाये है.