क्यों चलता रहे यह अन्याय

।।पुष्परंजन।। 15 अप्रैल 1952 को पहली लोकसभा का गठन हुआ था, उस समय इसकी 489 सीटें थीं. तब भारत में वयस्क मतदाताओं की संख्या थी 17.3 करोड़. सत्तावन साल बाद 2009 में, यानी पिछले आम चुनाव के दौरान, देश में वोट देने वालों की संख्या बढकर 71.4 करोड हो गई. मतदाताओं की संख्या चार गुना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 20, 2014 9:34 AM

।।पुष्परंजन।।

15 अप्रैल 1952 को पहली लोकसभा का गठन हुआ था, उस समय इसकी 489 सीटें थीं. तब भारत में वयस्क मतदाताओं की संख्या थी 17.3 करोड़. सत्तावन साल बाद 2009 में, यानी पिछले आम चुनाव के दौरान, देश में वोट देने वालों की संख्या बढकर 71.4 करोड हो गई. मतदाताओं की संख्या चार गुना से भी अधिक बढने के बावजूद मात्र 54 सीटों का बढ़ना सही नहीं हुआ. लोकसभा की 543 सीटें, आबादी के अनुपात के हिसाब से पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं देतीं. दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा हम लाख करते रहें, लेकिन जब हम चीन की ओर देखते हैं, तो लगता है कि जनता से जुड़ने के मामले में भी वह हमसे मीलों आगे है. भारत में पहली लोकसभा के दो साल बाद, 1954 में चीनी संसद ‘नेशनल पीपुल्स कांग्रेस’ का गठन हुआ था. तब चीनी संसद में 1226 सदस्य थे, उसमें महिला सदस्यों की संख्या बारह प्रतिशत थी. अब जरा 1954 के 59 साल बाद, जनवरी 2013 की ओर ध्यान दीजिए. पिछले साल जब चीन की बारहवीं संसद का गठन हुआ, तो उसमें महिला सदस्यों की संख्या 23.4 प्रतिशत थी. जनवरी 2013 में चीन की जनसंख्या थी, एक अरब 35 करोड 40 लाख, 40 हजार. तब चीनी संसद की सदस्य संख्या 2987 रही है. इसका अर्थ यह हुआ कि चार लाख तिरपन हजार तीन सौ ग्यारह लोगों का प्रतिनिधित्व एक चीनी सांसद कर रहा है.

भारत में 2011 में एक अरब इक्कीस करोड की जनसंख्या गिनी गई थी, जिसे चीन के मुकाबले सिर्फ दस करोड ज्यादा बता सकते हैं. 2013 में बताया गया कि भारत की आबादी एक अरब सत्ताईस करोड़ हो चुकी है. लेकिन लोकसभा में हमारे सांसद कितने हैं? सिर्फ 543! औसतन तेईस लाख अड़तीस हजार की आबादी पर एक सांसद. क्या इसे देश की जनता के साथ हुआ न्याय कहेंगे? कौन है, जनता को अधिकाधिक प्रतिनिधित्व देने वाला देश? भारत, या चीन? एक पड़ोसी देश की संसद है, जहां पिछले उनसठ सालों में सदस्यों की संख्या बढ़ते-बढ़ते 1761 हो जाती है. दूसरी ओर हमारा भारत महान है, जहां बासठ साल बाद भी लोकसभा की मात्र चौवन सीटें बढीं. जनप्रतिनिधित्व का बेताल उसी डाल पर लटका हुआ है. शायद हम कह सकते हैं कि आबादी का नियोजन हमारे नेता नहीं कर सके, लेकिन संसदीय सीट की नसबंदी हमारे नीति निर्माताओं ने जरूर कर दी.

हम लोकसभा की मात्र चौवन सीटें बढ़ा कर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करते हैं. यह दावा नहीं, छलावा है. चीन के ‘ग्रेट हॉल ऑफ द पीपुल’- जिसे चीनी भाषा में ‘रिनमन ताहुईथांग’ कहते हैं- में संसद सत्र के दौरान 3693 सदस्यों के बैठने का इंतजाम है. यानी भविष्य में चीन इसी ‘ग्रेट हॉल ऑफ द पीपुल’ में 706 अतिरिक्त सदस्यों के बैठने की व्यवस्था कर सकता है, और समय पड़ने पर संसद में सदस्यों की संख्या बढ़ा सकता है. इसे कहते हैं दूरगामी राजनीतिक सोच, जिसकी कमी कई बार हमारे यहां खलती है. क्या इस तरह के इंतजामात के बारे में हमारे नेताओं ने कभी सोचा है? वर्ष 2013 में अठारहवीं जर्मन संसद के गठन के दौरान निचले सदन ‘बुंडेस्टाग’ की सदस्य संख्या 631 रही है, जबकि इस देश की आबादी आठ करोड़ चालीस लाख के आसपास है. इसका मतलब यह निकलता है कि जर्मनी की एक लाख तैंतीस हजार की आबादी का प्रतिनिधित्व वहां का एक सांसद कर रहा है. इसलिए जर्मन सांसद जनता के प्रति ज्यादा उत्तरदायी हैं. उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्र के हरेक मुहल्ले की समस्याओं और लोगों के मिजाज का पता है.

पूरी दुनिया की संसद से हम तुलना करने लगें तो प्रतीत होगा कि अपने यहां का एक निर्वाचित नेता, जनता का नहीं, भीड़ का प्रतिनिधि बन कर रह गया है. इस भीड़तंत्र को लोकतंत्र कह कर हम खुद को नहीं, दुनिया को धोखा दे रहे हैं. अधिकतर संसदीय क्षेत्रों में चौगुनी से अधिक हो चुकी आबादी पर चुनावी खर्च बेतहाशा बढ़ा है. मतदाताओं की समस्याएं जटिल होती गई हैं, अपेक्षाएं तेजी से बढ़ी हैं, और मतदाता चुनावी वायदे को फौरन फलीभूत होते देखना चाहता है. अपने देश में चुनावी वायदे अगर लगातार निराशा पैदा करते रहे हैं, तो इसकी वजह ‘एक अनार सौ बीमार नहीं’, बल्कि ‘एक अनार बीस लाख बीमार’ के रूप में बदलती परिस्थिति है. क्या यह बहस का विषय नहीं है कि एक सांसद, अधिक से अधिक कितनी आबादी की समस्याएं सुनने-सुलझाने की क्षमता रखता है, और कितने वायदों का निष्पादन कर सकता है? यह जन प्रबंधन और ‘गुड गवर्नेंस’ से जुडा सवाल है, जिस पर देशव्यापी बहस होनी चाहिए.

सोलह दिसंबर 2003 को लोकसभा में, और इसके तीन दिन बाद अठारह दिसंबर को राज्यसभा में 91वां संशोधन विधेयक पास किया गया. इस संशोधन के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारें सदन में कुल सदस्य-संख्या की पंद्रह प्रतिशत सीटें मंत्रिपरिषद के लिए आबंटित कर सकती हैं. यहां तक तो गनीमत मानिए, लेकिन 91वें संशोधन विधेयक का सबसे खतरनाक प्रस्ताव यह था कि 2001 और 2011 में हुई और 2021 में होने वाली जनगणना के आधार पर संसद में सदस्यों की संख्या नहीं बढ़ाई जाए. प्रस्ताव में यह साफ कर दिया गया कि 2026 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं की सीटें नहीं बढ़ाई जाएंगी. उस समय केंद्र में राजग सरकार थी, लेकिन 2004 में यूपीए की सरकार आने के बावजूद, इस जिन्न को बोतल में बंद करके रखना ही बेहतर समझा गया.

कई बार अपने यहां के जनसांख्यिकी योजनाकारों के सोच को लेकर हैरत होती है. 2003 में 91वां संशोधन विधेयक पेश करते समय यह तर्क दिया गया कि 2026 तक देश में जनसंख्या स्थिर हो जाएगी. तब आबादी तेज रफ्तार से नहीं बढ़ेगी, उसके बाद यह तय किया जाना आसान होगा कि लोकसभा और विधानसभाओं की सदस्य-संख्या कितनी बढाई जाए. यह जनप्रतिनिधित्व को सीमित बनाए रखने का कुचक्र था. इसका साफ अर्थ निकल रहा था कि 2031 में जनगणना के बाद ही सदन में सदस्यों की संख्या बढाई जाए, तब तक यथास्थिति बनी रहे. मगर इसकी गारंटी कौन दे सकता है कि देश में 2026 के बाद लोग कम बच्चे पैदा करेंगे, या आबादी स्थिर हो जाएगी? बल्किबहस अब इस बात की हो रही है कि 2026 में भारत की जनसंख्या एक अरब चालीस करोड़ को पार कर जाएगी, उस समय चीन हमसे पीछे हो जाएगा.

लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों के परिसीमन के वास्ते 1952, 1962, 1972 और 2002 में समितियां बनाई गई थीं. लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों का मौजूदा परिसीमन 2001 में हुई जनगणना के आधार पर है. जुलाई 2002 में सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में बनी परिसीमन समिति की रिपोर्ट को मील का पत्थर मान लिया गया. इसे स्वीकार कर लिया गया कि 2026 के बाद जब जनगणना होगी, तब नए निर्वाचन क्षेत्र बनाए जाएंगे. लेकिन जनगणना तो उसके पांच साल बाद, 2031 में होगी. गौर से देखिए तो लगेगा कि हर बार कोशिश यही हुई है कि विधायिका में सदस्य-संख्या बढ़ाने की बात को बीस-तीस वर्षों के लिए टाल दिया जाए. आज इसके दुष्परिणामों को देश की जनता भुगत रही है.

पिछले आम चुनाव में दिल्ली ही देश के लिए एक दिलचस्प उदाहरण बना. चुनाव आयोग के अनुसार, बाहरी दिल्ली लोकसभा क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या 33 लाख 68 हजार 399 थी. क्या एक सांसद तैंतीस लाख अडसठ हजार मतदाताओं की समस्या अकेले सुलझा सकता है? उसके एकदम उलट लक्षद्वीप लोकसभा क्षेत्र में देश के सबसे कम मतदाता हैं. मात्र 39 हजार 33 मतदाता! लद्दाख लोकसभा क्षेत्र एक लाख, तिहत्तर हजार वर्ग मील वाला चुनावी क्षेत्र है. इसे देश का सबसे बडा निर्वाचन क्षेत्र माना जाता है, और इसके बरक्स 10.59 वर्ग मील का चांदनी चौक लोकसभा क्षेत्र देश का सबसे छोटा निर्वाचन क्षेत्र है. इन आंकडों पर हम गर्व करें, या रोएं? पता नहीं, हम कैसी व्यवस्था में जी रहे हैं.

केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली में सात सांसद हैं, लेकिन बाकी के छह केंद्रशासित प्रदेशों को एक-एक लोकसभा क्षेत्र दिए गए हैं. अड़तीस लाख की आबादी वाले अंडमान निकोबार को एक सांसद, और 39 हजार की आबादी वाले लक्षद्वीप को भी एक सांसद. राजस्थान में लोकसभा-सदस्य पच्चीस से तीस लाख की आबादी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, तो केरल, तमिलनाडु में सांसद सोलह लाख जनता का प्रतिनिधि है.

वर्ष 1975 में सिक्किम भारतीय संघ का अंग बना. तब से सिक्किम को सिर्फ एक लोकसभा सीट मिली है. केंद्र में जिसकी भी सरकार होती है, लोकसभा में उसे समर्थन देना सिक्किम की मजबूरी होती है. मुख्य कारण, योजना आयोग से मिलने वाला धन है. बीस लाख की आबादी वाला नगालैंड, दस लाख की जनसंख्या वाला मिजोरम भी एक-एक सांसद से संतोष कर रहे हैं. क्या यह न्याय है? पूर्वोत्तर से लेकर देश में कई ऐसे प्रांत हैं, जिनके साथ लोकसभा सीटों के परिसीमन के मामले में ईमानदारी नहीं बरती गई है. क्या इसके विरु द्ध आवाज नहीं उठनी चाहिए? या फिर 2026 तक हम चुप लगा कर बैठे रहें?

(जनसत्ता से साभार)

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