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लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की अवधारणा किस तरह एक छलावे का रूप ले चुकी है और कैसे मौजूदा व्यवस्था में छोटे-मोटे फेर-बदल से किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं जगती. इस मसले पर पढ़िए वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा का नजरिया.. जो आकार अभी राष्ट्र-राज्यों का हो गया है. उसमें मतदाताओं की भागीदारी हो सके ये […]

लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की अवधारणा किस तरह एक छलावे का रूप ले चुकी है और कैसे मौजूदा व्यवस्था में छोटे-मोटे फेर-बदल से किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं जगती. इस मसले पर पढ़िए वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा का नजरिया..

जो आकार अभी राष्ट्र-राज्यों का हो गया है. उसमें मतदाताओं की भागीदारी हो सके ये तो असंभव है. नाम का लोकतंत्र है. जो खुद यूनान से, खासकर एथेंस से, जो एक नगर राज्य था, जहां की आबादी एक लाख की रही होगी. वहां सभी नागरिक आते थे और बैठकर निर्णय लेते थे. इसकी कोई गुंजाइश नहीं रहती थी, किसी व्यक्ति का कोई दूसरा प्रतिनिधित्व करे, जिससे परेशानी हो. सुकरात पर सुनवाई काफी चर्चित रही है. उसमें भी यही हुआ था, एथेंस के लोगों ने आपस में बैठकर बहुमत से फैसला किया था. सुकरात चाहें तो नगर छोड़ कर चले जायें या फिर जहर खाकर जान दे दें. एथेंस की व्यवस्था से लोकतंत्र को साकार किया गया, लेकिन लोकतांत्रिक राष्ट्रों का आधार बहुत बड़ा हो गया. दिलचस्प है कि रूसो, जिसे लोकतंत्र का सबसे बड़ा मसीहा माना जाता है. वो प्रतिनिधित्व के खिलाफ था. वो कहता था, जनता की जनरल विल (आमराय) का प्रतिनिधित्व हो ही नहीं सकता.

फ्रांस की क्रांति के समय तीन-चार तरह के प्रतिनिधित्व हुये. इनमें शहर के आम लोग, दूसरी तरफ जो पढ़े-लिखे लोग थे, लेकिन इसमें रूसो की जो भावना थी कि गरीब लोग ही सब निर्णय करेंगे. इससे वहां के हालात बिगड़ गये. नतीजा ये हुआ, बात-बात में लोगों को एक-दूसरे पर संदेह होता था. इसकी वजह से संघर्ष हुए. इस दौरान हजारों लोगों की हत्या हुई. बुनियादी लोकतंत्र की जो भावना थी, वह बड़े राज्यों में हुई नहीं. फ्रांस के अंदर जो जनरल एसेंबली बैठी, वह अंतिम रूप से संविधान नहीं बना सकी. बाद में नेपोलियन ने हस्तक्षेप किया और सबको तितर-बितर कर दिया. इसके बाद सत्ता उसके हाथ में आ गयी. इसके बाद फ्रांस में दो-तीन क्रांतियां हुईं. इनमें भी कुछ समय तक लोगों के हाथों में प्रतिनिधित्व रहा, फिर नेपोलियन के भतीजे ने अपने हाथ में सत्ता ले ली. अंतत: वहां लोकतंत्र हुआ नहीं.

1871 के बाद जब फ्रांस पर हमला हुआ और वह पराजित हो गया. इसके बाद दुबारा वहां पर लोकतंत्र की स्थापना हुई. लोकतंत्र को लेकर शुरू से ही समस्या रही है. इतने बड़े आकार में प्रतिनिधित्व हो तो लोकतंत्र कायम रह सकता है क्या? मुङो ऐसा लगता है, इतने बड़े आकार में लोकतंत्र कहीं भी प्रभावशाली नहीं रह सकता? जैसे, सबसे पहला लिखित संविधान अमेरिका का था, जो 1887 में बना. उस पर भी हमेशा विवाद होता रहा. नीग्रो की गुलामी को लेकर युद्ध हुआ, जिसमें लिंकन की जीत हुई. अमेरिका में शुरू से ही राज्य थे, जिन्हें मिला कर यूनाइटेड स्टेट्स बना था. असली प्रभुसत्ता तो स्टेट्स (राज्यों) के हाथ में रहती थी. बाद में जब संविधान बना और सीनेट का प्रावधान हुआ. सीनेट ने स्टेट्स को बराबर भागीदारी दी. आज भी अमेरिका के अंदर लोकतंत्र में आम लोगों की वास्तविक भागीदारी होती है क्या? वहां तो जो प्रत्याशी होते हैं, वही प्रचार करते हैं. उसी दौरान कोई नेता उभरता है. उसके हाथ में सत्ता आ जाती है. भारत जैसे देश में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है. सही मायने में लोकतंत्र तभी हो सकता है, जब बहुत छोटे आकार के राज्य हों.

जहां फेडरल स्ट्रक्चर (संघीय ढांचा) हो, वहां ज्यादा से ज्यादा सत्ता का विकेंद्रीकरण हो. एक उदाहरण स्विटजरलैंड का है. वहां पर कैंटन (परगना) हैं, जो स्वायत्त हैं. कुछ कैंटन तो ऐसे हैं, जिनमें कुछ हजार लोग ही शामिल हैं. वहां भी किसी-किसी मुद्दे पर सहमति नहीं बनती है, तो रेफरेंडम (जनमत संग्रह) होता है. इसमें किसी न किसी तरह से सहमति बनाने पर जोर होता है. सही अर्थ में लिंकन ने जो कहा था, लोगों की सरकार, लोगों के लिए और लोगों के द्वारा..वो तो कहीं होता नहीं है. असल बात ये है कि कुछ ऐसे लोग हैं, जो लोगों के जनमत का चालाकी से इस्तेमाल करते हैं. इसमें जो माहिर होता है, उसी के हाथ में सत्ता आती है. मुङो तो नहीं लगता भारत जैसे विशाल देश में वास्तविक सत्ता जनता के हाथ में होती है. इसमें तो सिर्फ कुछ अलग-अलग वादे करके और तात्कालिक रूप से जनता का समर्थन लिया जाता है. अगर लोगों के अंदर नाराजगी होती है, तो दूसरे चुनाव में वो सत्ता बदल देते हैं.

इसके अलावा एक और बात. भारत में इतनी विविधता है, कहने के लिए तो हम एक राष्ट्र हैं, लेकिन पूरे देश के लिए कोई निर्णय होता है क्या? जो बिहार का साधारण मतदाता है, उसे क्या पता है, तमिलनाडु और केरल में क्या समस्याएं हैं. उसके जो प्रतिनिधि होते हैं. वो सारे देश के बारे में नीतियां बनाते हैं. ऐसे में मुङो नहीं लगता है. अभी तक लोकतंत्र का कोई संतोषप्रद ढांचा बन पाया है. लोकतंत्र तभी सफलीभूत होगा, जिसमें बहुत छोटी इकाइयां बनें. जैसे कि गांधी जी ने स्वायत्त ग्रामीण गणतंत्र की बात की. मूलरूप से लोकतंत्र का वही रूप हो सकता है. लोकतंत्र शब्द की शुरुआत अगर एथेंस जैसे राज्य से होती है, जो छोटा सा नगर राज्य था, तो एक छोटे राज्य की स्थिति से पैदा हुई अवधारणा, उसको लेकर आप एक अरब से ज्यादा की आबादी पर लागू कर रहे हैं, जिसमें बड़ी विविधता है. हमारे यहां के दिल्ली जैसे शहर की आबादी में में सैकड़ों एथेंस समा जायेंगे.

हमको लगता है सीट बढ़ाने की जो बात हो रही है. उससे कुछ नहीं होगा. यही लोग उन सीटों से भी चुन कर जायेंगे. मान लिया जाये, बिहार में चालीस की जगह सौ सीट कर दी जाये. उससे क्या फायदा होगा? मान लीजिये, मुजफ्फरपुर से कोई सांसद होता है, वो ज्यादा से ज्यादा अपने आसपास के संसदीय क्षेत्रों के बारे में जानेगा, जिनके बारे में सही तरीके से फैसला ले सकता है. उसे आप दिल्ली में बैठा देते हैं, जिसे नागालैंड के बारे में फैसला लेना होता है. वह कैसे हो सकता है. सही बात ये है, अभी जो सारी व्यवस्था है. वह कार्यपालिका (ब्यूरोक्रेसी) के हाथ में है. एक ढांचा बन गया है. ब्यूरोक्रेसी बैठ कर शासन चला सकती है. ये कोई लोगों की प्रधानतावाली सत्ता नहीं है. ये व्यवस्था है, जिस पर पांच साल में आप चुने हुये प्रतिनिधियों से मुहर लगवा लेते हैं. इसमें बहुत बदलाव नहीं होता है. चाहे चुनाव में दल भले ही एक-दूसरे के खिलाफ बात करें, लेकिन सरकार में आने के बाद हेर-फेर करके सरकारें वही काम करती हैं.

मुझे तो लगता है, सही अर्थ में लोकतंत्र के लिए बहुत छोटी इकाइयों में बांटना चाहिए. इसे फेस-टू-फेस डेमोक्रेसी कहते हैं, जहां पर लोग एक-दूसरे को जानते-पहचानते हों. एक-दूसरे की समस्याओं से अवगत हों. अभी तो दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र का सफल ढांचा नहीं बन पाया है, लेकिन जो बहुत छोटे राज्य हैं, वहां कुछ हद तक सफलता मिली है, लेकिन वहां भी विविधता बहुत ज्यादा है. जैसे यूरोप के अंदर चेकोस्लोवाकिया है. छोटा सा राज्य था. फिर भी दो मूल के चेक और स्लोवाक लोगों ने बिना किसी संघर्ष के खुद को अलग कर लिया. ऐसे ही युगोस्लोवाकिया भी है. वास्तव में लोगों की भावनात्मक आत्मीयता बहुत छोटे समूहों में होती है, लेकिन स्थितियों की वजह से बड़े-बड़े राज्य बन गये. जैसे इंग्लैंड. वहां का बड़ा संसदीय ढांचा है.

वहां 17वीं शताब्दी में संसदीय क्रांति हुई, लेकिन शुरू से ही इंग्लैंड व स्कॉटलैंड का झगड़ा चल रहा है. वहां की स्कॉटिस्ट नेशनलिस्ट पार्टी कह रही है. हम अलग राज्य बनायेंगे. अब ये माना जा रहा है, इंग्लैंड से स्कॉटलैंड अलग हो जायेगा. असल में वास्तविक लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जो स्थितियां होनी चाहिए. उसके लिए जरूरी है, लोग एक-दूसरे से परिचित हों. उनकी जो समस्याएं हों, वह भी मिलती-जुलती हों. ऐसा लोकतंत्र छोटी इकाइयों में ही संभव है. अभी लोकतंत्र के नाम पर दुनियाभर में काम चलाऊ ढांचा चलाया जा रहा है. इसको जोड़नेवाली चीज आज की तकनीक है, जिसके बढ़ जाने से ब्यूरोक्रेसी की पकड़ मजबूत हो गयी है. सरकार आती रहे, जाती रहे, लेकिन ब्यूरोक्रेसी अपने हिसाब से काम करती है. असल में अभी जो शासनतंत्र है, वह ब्यूरोक्रेसी का है, उसमें एकरूपता है. चुनाव तो इसमें पांच साला महोत्सव है, जिसमें सब लोग मिल कर ये तय कर देते हैं, अगले पांच साल तक इस ब्यूरोक्रेटिक व्यवस्था को कौन चलायेगा. इससे ज्यादा लोकतंत्र का रूप हमें नहीं दिखायी देता है. हम तो शुरू में मार्क्‍सवाद से ज्यादा प्रभावित थे. महात्मा गांधी की आलोचना ही करते थे, लेकिन जैसे-जैसे दुनिया का अनुभव सामने आता है. हमको लगता है, गांधी जी ने जो ग्राम गणराज्य की कल्पना की है वह वास्तविक लोकतंत्र से मेल खाती है. उसी के माध्यम से आम लोगों की समस्याओं का समाधान हो सकता है. ऐसा समाधान जो भावनात्मक रूप से भी उनके करीब हो.
प्रस्तुति-शैलेंद्र

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