अंग्रेजों के जमाने की पहली भारतीय महिला डाॅक्टर को Google ने दिया सम्मान
नयी दिल्ली : अंग्रेजों के जमाने में जब शिक्षा आैर खासकर उच्च शिक्षा किसी खास परिवार के लोगों की चीज हुआ करती थी, उस जमाने में रुक्माबार्इ ने ऊंची शिक्षा प्राप्त करके डाॅक्टरी पेशा को अख्तियार किया. यह वह समय था, जब उन्होंने उस जमाने में डाॅक्टरी का पेशा अख्तियार करने वाली पहली भारतीय महिला […]
नयी दिल्ली : अंग्रेजों के जमाने में जब शिक्षा आैर खासकर उच्च शिक्षा किसी खास परिवार के लोगों की चीज हुआ करती थी, उस जमाने में रुक्माबार्इ ने ऊंची शिक्षा प्राप्त करके डाॅक्टरी पेशा को अख्तियार किया. यह वह समय था, जब उन्होंने उस जमाने में डाॅक्टरी का पेशा अख्तियार करने वाली पहली भारतीय महिला बन गयीं. बुधवार को दुनिया भर के सर्च इंजनों का बादशाह गूगल ने रुक्माबार्इ के जन्मदिन पर डूडल बनाकर उन्हें सम्मानित किया है.
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रूक्माबाई का जीवन संघर्षों से भरा रहा है. जब वह 11 वर्ष की उम्र की थीं, तब 19 वर्षीय दुल्हे दादाजी भीकाजी से उसकी शादी कर दी गयी थी, लेकिन उन्होंने दादाजी के साथ में रहने से मना कर दिया. 1884 में दादाजी ने पत्नी का साथ पाने के लिए कानूनी दावा पेश किया. बाल विवाह और महिलाओं के अधिकारों पर एक बड़ी सार्वजनिक चर्चा हुई. रुक्मा ने उनकी गरीबी और खराब स्वास्थ्य के आधार पर उन्हें अस्वीकार कर दिया.
उन्होंने 11 की उम्र में हुए विवाह की वैधता पर भी प्रश्न उठाया. 1885 में जजों के निर्णय ने दादाजी के वैवाहिक अधिकारों के सौंपे जाने के दावे को रद्द कर दिया. दादाजी भीकाजी बनाम रुखमाबाई, 1885 को भीकाजी के "वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना" मांगने के साथ सुनवाई के लिए आया था और न्याय न्यायाधीश रॉबर्ट हिल पिनहे ने निर्णय पारित किया गया था. पिनहे ने कहा कि पुनर्स्थापना पर अंग्रेजी उदाहरण यहां लागू नहीं होते, क्योंकि अंग्रेजी कानून सहमत परिपक्व वयस्कों पर लागू किया जाना था. अंग्रेजी कानून के मामलों में कमी थी और हिंदू कानून में कोई मिसाल नहीं मिली.
उन्होंने घोषणा की कि रुखमाबाई की शादी उसके "असहाय बचपन" में कर दी गयी थे और वह एक युवा महिला को मजबूर नहीं कर सकते थे. हालांकि, बाद में 1888 में दोनों पक्षों के मध्य एक समझौता हुआ, जिसमें रुक्मा द्वारा अपने पति को कुछ आर्थिक हर्जाना दिलवाया और उसे साथ रहने से मुक्त किया. फिर 19 वर्ष की आयु में रूक्माबाई की शादी एक विधुर, डॉ सखाराम अर्जुन से कर दी गयी, लेकिन रुखमाबाई परिवार के घर में ही रही और फ्री चर्च मिशन पुस्तकालय से पुस्तकों का उपयोग करके घर पर ही पढ़ाई की. रूखमाबाई ने इस दौरान अपनी पढ़ाई जारी रखी और एक हिंदू महिला के नाम पर एक अख़बार को पत्र लिखे.
उसके इस मामले में कई लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ और जब उस ने अपनी डाक्टरी की पढ़ाई की इच्छा व्यक्त की, तो लंदन स्कूल ऑफ मेडिसन में भेजने और पढ़ाई के लिए एक फंड तैयार किया गया. उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारत की पहली महिला डॉक्टरों में से एक (आनंदीबाई जोशी के बाद) बनकर 1895 में भारत लौटी और सूरत में एक महिला अस्पताल में काम करने लगी. रुक्माबाई एक सक्रिय सामाजिक सुधारक थी. 25 सितंबर,1991 में उनकी मौत हो गयी.