एक हथेली जब मुट्ठियों में तब्दील हो गयी

बांबे में 1950 के दशक में जार्ज फर्नाडीस की पहचान मजदूर नेता की कायम हो चुकी थी. इस क्रम में उन्हें कंपनियों के गुंडों का सामना करना पड़ा. कई बार जेल गये. वह 1961 से 68 तक बांबे म्युनिस्पल कॉरपोरेशन के सदस्य रहे. वह लगातार मजदूरों के आर्थिक व दूसरे शोषण की बात प्रखर होकर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 27, 2014 9:21 AM

बांबे में 1950 के दशक में जार्ज फर्नाडीस की पहचान मजदूर नेता की कायम हो चुकी थी. इस क्रम में उन्हें कंपनियों के गुंडों का सामना करना पड़ा. कई बार जेल गये. वह 1961 से 68 तक बांबे म्युनिस्पल कॉरपोरेशन के सदस्य रहे. वह लगातार मजदूरों के आर्थिक व दूसरे शोषण की बात प्रखर होकर उठाते रहे.

पादरी की दीक्षा लेने से अपने युवा जिंदगी का सफर शुरू करने वाले जार्ज फर्णाडीस ने मजदूर आंदोलनों को न सिर्फ संगठित किया बल्कि उसमें नयी ताकत भी भरी. उन्हें पादरी की दीक्षा लेने मैंगलोर से बंगलुरु भेज दिया गया. तीन साल वहां रहने के बाद फर्णाडीस 1949 में बांबे आ गये. बांबे में उन्होंने मजदूरों के आंदोलनों को नयी धार दी. पचास और साठ के दशक में जार्ज की पहचान एक ट्रेड यूनियन के फायर ब्रांड नेता की बन गयी थी. 1974 का देशव्यापी रेल हड़ताल उनकी ही अगुवाई में हुआ था. तब वह ऑल इंडिया रेलवे मेन्स फेडरेशन के अध्यक्ष थे. देश में आपातकाल (25 जून 1975 से 21 मार्च 1977) के दौरान वह भूमिगत रहे. हालांकि इसी दौरान बड़ौदा डायनामाइट मामले में पकड़े गये थे.

आम नौजवानों की तरह ही जिंदगी की चुनौतियां जार्ज के सामने भी थीं. बंगलुरु में सेमिनरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद जार्ज काम की तलाश में बांबे आ गये. वहां पहले से कोई बना-बनाया ठिकाना नहीं था. उनका जीवन संघर्ष शुरू हुआ. चौपाटी के रेत में बने बेंच पर उन्होंने कई रातें गुजारीं. इस दौरान उन्हें कई कड़वे अनुभवों से भी गुजरना पड़ा. चौपाटी के बेंच पर सोते हुए देर रात वहां पुलिस वाले धमक आते और जगह वहां से भगा देते. कई बार तो उन्होंने फुटपाथ को ही अपना आसरा बनाया. उन्हीं दिनों वह जाने माने ट्रेड यूनियन नेता डीमेलो और समाजवादी राममनोहर लोहिया के संपर्क में आये. बाद में भी उन पर समाजवादी विचारों का गहरा असर हुआ. उसी समय उन्होंने होटल और रेस्टोरेंट में काम करने वाले मजदूरों के अधिकारों को लेकर आंदोलन शुरू किया. वहां काम करने वाले मजदूरों को संगठित किया तथा उनकी लड़ाई आगे बढ़ायी.

बांबे में 1950 के दशक में जार्ज फर्णाडीस की पहचान मजदूर नेता की कायम हो चुकी थी. इस क्रम में उन्हें कंपनियों के गुंडों का सामना करना पड़ा. कई बार जेल गये. वह 1961 से 68 तक बांबे म्युनिस्पल कॉरपोरेशन के सदस्य रहे. वह लगातार मजदूरों के आर्थिक व दूसरे शोषण की बात प्रखर होकर उठाते रहे. जार्ज की अब तक यात्र से बनी पहचान बांबे तक ही सीमित थी. बाहरी दुनिया को उनके बारे में तब पता चला जब उन्होंने 1967 के आम चुनाव में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे. बांबे साउथ वह क्षेत्र था जहां से कांग्रेस के दिग्गज एसके पाटिल चुनाव जीतते आ रहे थे. पाटिल की गिनती कद्दावर नेताओं में होती थी. उनकी आम लोगों पर जबरदस्त पकड़ थी और लोगों में वह उतने ही लोकप्रिय भी थे. पाटिल की दो दशक की राजनीति को चुनौती देना किसी के लिए भी आसान नहीं था. लेकिन कहते हैं कि बदलाव का पहिया हमेशा आगे की ओर घूमता था. 1967 के चुनाव में भी ऐसा ही हुआ. जार्ज फर्णाडीस ने पाटिल को परास्त कर दिया. उस चुनाव में जार्ज को 48.5 फीसदी वोट मिले थे. पाटिल जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञ को जार्ज ने शिकस्त दी तो उन्हें जाएंट किलर पुकारा जाने लगा.

साठ के उत्तरार्ध तक बांबे में मजदूरों के अनेक हड़तालों को नेतृत्व देने वाले जार्ज की नेतृत्व क्षमता को नया आवेग 1969 में मिला जब उन्हें संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का महासचिव बनाया गया. 1973 में वह पार्टी के महासचिव बने. पर 1970 के दशक के बाद बांबे में उद्योगों में निजी क्षेत्र के प्रवेश के बाद जार्ज कोई बड़ा हस्तक्षेप करने में नाकाम रहे. दरअसल, यह उनके मजदूर आंदोलन की यही सीमा थी.

जार्ज के नेतृत्व में ज्यादातर मजदूर हड़ताल तब हुई जब वह रेलवे मेन्स फेडरेशन के अध्यक्ष थे. अखिल भारतीय रेल हड़ताल आजाद भारत की पहली बड़ी और प्रभावकारी हड़ताल थी. यह हड़ताल 1974 में हुई थी.

उसके चलते पूरा देश एक तरह से ठहर सा गया था. रेलों का आना-जाना पूरी तरह ठप पड़ गया था. यह रेल हड़ताल रेलवे मजदूरों की उस मांग को सामने रखकर की गयी थी जिस पर बीते दो दशक तक कोई ध्यान नहीं दिया गया था. यहां तक की 1947 से 74 तक तीन वेतन आयोगों में से किसी ने भी रेल मजदूरों की मांगों पर तवज्जो नहीं दिया. रेल हड़ताल के पहले सभी रेल यूनियनों को एक छतरी के नीचे लाया गया और इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोआर्डिनेशन कमेटी बनी. विपक्षी दलों को भी इस हड़ताल का समर्थन लिया गया. 8 मई 1974 को हड़ताल शुरू हुई. बांबे में इलेक्ट्रीक, टैक्सी ड्राइवर और ट्रांसपोर्ट मजदूरों ने भी रेल हड़ताल को अपना समर्थन दे दिया.

बिहार के गया में हड़ताल समर्थक रेल मजदूरों के परिवार वाले रेलवे ट्रैक पर बैठ गये. हड़ताल के प्रति एकजुटता जाहिर करने के लिए मद्रास के इंटीग्रल कोच फैक्ट्री के करीब दस हजार मजदूरों ने दक्षिण रेल के मुख्यालय की ओर कूच कर दिया. देश के अलग-अलग भागों में रेल मजदूरों की हड़ताल के समर्थन में लोग सड़क पर उतर गये. लेकिन 27 मई 1974 को एक्शन कमेटी ने एकतरफा हड़ताल खत्म करने की घोषणा कर दी. उसके बारे में तब जार्ज ने कहा था: हड़ताल को संचालित करने की जिन पर जिम्मेदारी थी, वे अलग-अलग बातें बोल रहे थे. अब तक उनके नेतृत्व में हुए आंदोलन किसी कंपनी या कारखाने के विरोध में थे. पर रेल हड़ताल सीधे सरकार के खिलाफ थी. आपातकाल हटने बाद हुए चुनाव में जार्ज ने बिहार के मुजफ्फरपुर से जीत हासिल की थी. सरकार बनी तो उसमें वह उद्योग मंत्री बनाये गये. तब उन्होंने अमेरिकी मल्टीनेशनल आइबीएम और कोका कोला को भारत से चले जाने को आदेश दिया क्योंकि दोनों कंपनियों पर निवेश संबंधी कानून के उल्लंघन के आरोप थे.

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