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‘आप’ की अराजकता, देश बिखरने के बीज!

– हरिवंश – ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) का उदय, सड़ांध में ताजी हवा की तरह है, यह यकीन करनेवालों में हम भी हैं. पर ‘आप’ की नयी मुहिम का संदेश क्या है? सरकार चला नहीं सकते, तो अपनी सरकार खुद गिरा दें. शहीद बन जायें. शहादत की इस पूंजी को 2014 लोकसभा चुनावों में भुनायें. […]

– हरिवंश –

‘आप’ (आम आदमी पार्टी) का उदय, सड़ांध में ताजी हवा की तरह है, यह यकीन करनेवालों में हम भी हैं. पर ‘आप’ की नयी मुहिम का संदेश क्या है? सरकार चला नहीं सकते, तो अपनी सरकार खुद गिरा दें. शहीद बन जायें. शहादत की इस पूंजी को 2014 लोकसभा चुनावों में भुनायें. इतिहास बार-बार कहता है कि दुनिया की कोई भी व्यवस्था अराजकता से नहीं चलती. आंदोलन, धरना-प्रदर्शन आसान हैं.

सृजन, नया निर्माण कठिन. ‘आप’ में बदलाव की रोशनी देखनेवाले भी कहने लगे कि अब तक इस सरकार ने 22 दिनों में एक भी उल्लेखनीय काम नहीं किया, जो इन्हें अलग पहचान दे. घोषित 18 आश्वासनों में से कितने पूरे हुए? क्या दिल्लीवासियों को आधी रेट पर बिजली मिल रही है? क्या सबको मुफ्त 700 लीटर पानी मिलने लगा है? ऐसे अनेक वायदे ‘आप’ के लोगों ने दिल्ली की जनता से किया है.

श्रेष्ठ रास्ता तो यह होता कि यह सरकार अपने एकाध वायदों में से किसी एक को भी पूर्ण साकार करती, तो देश की जनता को इनकी सृजन क्षमता, शासनशैली, राजकाज चलाने में निपुणता और इनके व्यक्तित्व की झलक मिलती. अब विरोधी कह रहे हैं कि शुरू से ही सरकार के वायदे हवा में हैं. आदर्शवाद की देन, पर व्यवहारवाद की दृष्टि से असंभव. मसलन, दिल्ली में रोजाना हर घर को 700 लीटर पानी देना! क्या यह वायदा करने के पहले यह सोचा गया कि दिल्ली को कुल कितना पानी चाहिए? आज दिल्ली को कितना पानी मिल रहा है? अतिरिक्त कितना पानी चाहिए? उसकी आपूर्ति कहां से होगी और कौन करेगा? जमुना तो सूख रही है. क्या दिल्ली में जल संचय का अभियान चलेगा? वह भी रातोंरात नहीं हो सकता? क्या इंद्रदेव को यह सरकार विवश कर पायेगी कि वह दिल्ली के लिए पानी का कोटा बढ़ा दें?

इस सरकार में शामिल लोगों के पुण्य-प्रताप व तप में अगर इतना बल है, तो ‘गाइड’ फिल्म से प्रेरणा मिल सकती है. पर ऐसे वादे धरातल पर उतारने के पहले ‘आप’ को लंबी तैयारी करनी होगी. उसके लिए बड़े विशेषज्ञ चाहिए, संसाधन चाहिए और यह सब करने का सपना देखनेवाला चाहिए, जिसमें संकल्प हो, धैर्य हो, अनासक्त काम करने की क्षमता हो. मसलन दिल्ली में जिस इंसान (ई. श्रीधरण) ने मेट्रो को साकार किया. वर्ल्ड क्लास रेल सर्विस दिल्ली को दी. वह आदमी अपने जीवन का सूत्र मानता है, अनासक्त कर्म. अनवरत श्रम. लंबे तप से सृजन. उस आदमी की प्रेरणा पुस्तक है, गीता. ‘आप’ की राजनीति कुछ नया करना चाहती है, तो क्यों नहीं वह किसी एक काम को अलग तौर-तरीके से करती है और श्रीधरण (मेट्रो रेल के जनक) की तरह दुनिया में छाप छोड़ती है. श्रीधरण ने मेट्रो चला कर साफ -सुथरा (दुनिया के टॉप देशों के समकक्ष) रख कर, बिल्कुल समय पर रेल चलाकर यह तो साबित कर ही दिया कि भारत में भी यह संभव है.

पर ‘आप’ वह अपनी ही सरकार को गिराने पर तुली है. क्योंकि उसे शहीद होना है. याद रखिए, किसी बड़े मुद्दे के लिए नहीं. खुद अरविंद केजरीवाल अपने को अराजकतावादी कहते हैं. यह अलग सवाल है कि एक मुख्यमंत्री या उनके सरकार के मंत्रियों का धरना-प्रदर्शन में शामिल होना कितना सही है या गलत? पर क्या उनके मंत्री खुद कानून हैं? क्या किसी व्यवस्था में कोई मंत्री खुद कानून बन सकता है? वह व्यवस्था चल पायेगी? ‘आप’ के कानूनमंत्री, दिल्ली में अफ्रीकन लोगों को नशीली दवाओं की तस्करी में संलग्न मानते हैं. वह खुद कार्रवाई चाहते हैं.

‘आप’ के महिला व बाल कल्याण मंत्री पुलिस को आदेश देती हैं कि वह बिना गिरफ्तारी वारंट के किसी घर में घुस जाये. ‘आप’ के मुख्यमंत्री जनता दरबार बुलाते हैं. वह भीड़तंत्र बनता है. अराजकता फैलती है. उन्हें भागना पड़ता है. उन्हें नीतीश कुमार से सीखना चाहिए कि किस इफीशिएंट व्यवस्था के तहत वह आठ वर्षों से जनता दरबार बिहार में चला रहे हैं? एक मंत्री की गाड़ी पर एक बच्चे की गेंद लगती है, वह राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है. एक मंत्री जजों की बैठक चाहते हैं. इसका प्रावधान संविधान में ही नहीं है. क्या इसी योग्यता, लियाकत या लूर से यह देश चलेगा? यह रास्ता तो देश को टुकड़े-टुक ड़े में बांट देगा. खंड-खंड कर देगा. क्या यह राजतंत्र है? क्या मंत्री राजा है कि उनकी बात मानना कानूनन बाध्यकारी है या वे भी उस कानून के तहत हैं, जिसके तहत उन्हें यह पद मिला है. 15 दिनों में यह सरकार जन लोकपाल बिल लाने वाली थी, उसका क्या हुआ, किसने रोका है. इसके एक मंत्री कहते हैं कि फलां नेता के मुंह पर थूक देना चाहिए, फिर उसके एक बड़े नेता माफी मांगते हैं. एक मंत्री मीडिया को धमकाते हैं तो एक नेता कहते हैं कि पुलिस लाठी से मारे तो पुलिस पर पीछे से हमला करो. इसके एक मंत्री पुलिस कमिश्नर को यह कहते हैं कि हम उन्हें देख लेंगे. क्या इसी ‘शालीन’ आचरण से ‘आप’ देश के सड़ रहे राजनीतिक दलों का विकल्प बन पायेगा या उसका अंग-दिशा बन जायेगा? जरूरत है कि ‘आप’ अब भी चेते और अपने ऐतिहासिक दायित्व को समझें.

एक तरफ दिल्ली के अखबारों की सुर्खियों में खबर है कि अरविंद केजरीवाल खुद को अराजकतावादी मान रहे हैं और दिल्ली में अराजकता फैला रहे हैं. उसी दिन ‘इकनामिक टाइम्स’ में बड़ी खबर है, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन की बात. उन्होंने कहा है कि देश में आतंकवादी हमले की संभावना है. उन्होंने यह भी कहा है कि भारत, तालिबान का अगला पड़ाव होगा. उसी दिन ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की बड़ी खबर है कि इंडियन मुजाहिद्दीन का एक समूह भारत में सक्रिय है. वह बड़ा हमला करने की क्षमता रखता है. दूसरी तरफ चीन के आतंक और ताकत के सामने भारत विवश और असहाय है. भारत जब बाहरी मोरचों पर इस कदर घिरा हो, अर्थव्यवस्था चौपट हाल में हो, तब राजनीतिक अराजकता की कीमत, देश क्या चुकायेगा? क्या यह किसी ने सोचा? यह भी सूचना है कि कांग्रेस अंदर-अंदर केजरीवाल के इस आंदोलन से प्रसन्न है. इस प्रसन्नता का कारण है कि केजरीवाल के नेतृत्व में ‘आप’ इस कदर टीवी पर चर्चा में है या केजरीवाल मुद्दा इतना छा गया कि नरेंद्र मोदी को टीवी न्यूज में मिलनेवाला महत्वपूर्ण समय-हिस्सा और प्रचार नहीं मिल रहा है? अगर कांग्रेस जैसा दल अपने सोच में इतना संकीर्ण हो जाये, तो यह देश बचना मुश्किल है? यह सवाल नरेंद्र मोदी, कांग्रेस या ‘आप’ का नहीं है. सवाल है कि देश संकट में है. देश को कैसे अंदर और बाहर से मजबूत बनाया जाये? हर गंभीर आदमी देश की मौजूदा स्थिति को समझ कर मर्यादित व्यवहार करेगा, तो यह मुल्क बचेगा. दल, निजी अहंकार या निजी पद से देश बड़ा है. अराजकता से भारत का भविष्य बड़ा है. इसलिए आज देश के बड़े नेताओं को पहले मुल्क के बारे में सोचना चाहिए. आगामी 26 जनवरी को जब जापान के प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य अतिथि के रूप में दिल्ली में होंगे, तो यह अराजकता, धरना-प्रदर्शन, इन सब से क्या संदेश जायेगा? देश बिगाड़ना आसान है, बनाना कठिन? अगर बनाने की क्षमता नहीं है, तो यह आंदोलन छोड़ दें. देश का कल्याण होगा. अरविंद केजरीवाल ने आंदोलन करने के लिए पुलिस से समर्थन मांगा है. याद करिए, इंदिरा गांधी ने जेपी पर यह आरोप लगाया था कि वह सुरक्षाबलों-पुलिस को विद्रोह करने के लिए उकसा रहे हैं. और देश पर इमरजेंसी थोप दी. ‘द टेलीग्राफ’ अखबार के अनुसार अरविंद केजरीवाल ने पुलिस को आंदोलन के लिए न्योता, जिसका आशय था पुलिस विद्रोह का आह्वान. लगता है, ‘आप’ के मित्रों की रणनीति है कि वे मिस्र के तहरीर चौर की तरह पूरे भारत की सड़कों पर आंदोलन, धरना-प्रदर्शन और अराजकता न्योत दें.

आज तक अरब बसंत (अरब देशों में जब ऐसे जनउद्धार के आंदोलन हुए. तब लोगों को लगा कि कुछ बड़ा होगा, पर हुआ नहीं) ने जो टीस अरब देशों की दी, अव्यवस्था, अराजकता और हिंसा दी, लगता है दिल्ली में 22 दिन पुरानी ‘आप’ की सरकार भारत में वही स्थिति चाहती है. पर कई वर्षों बाद भी अरब के देश अपने यहां कानून-व्यवस्था की स्थिति सामान्य नहीं बना सके हैं. जनता अराजकता से पिंड छुड़ाने के लिए व्यवस्था चाहती है. अरब मुल्कों की रियाया बेचैन, त्रस्त और परेशान हैं, पर अरब देशों में ऐसे अराजकतावादी आंदोलनों के गर्भ से कोई सार्थक व्यवस्था अब तक जन्म नहीं ले सकी. पूछना चाहिए ‘आप’ पार्टी के लोगों से कि आपने शीला दीक्षित या कांग्रेस के भ्रष्ट मंत्रियों या दिल्ली मेट्रोपोलिटन में भ्रष्टाचार करनेवाले भाजपाइयों को सत्ता मिलते ही जेल भेजनेवाले थे, उस वायदे का क्या हुआ? दिल्ली के पानी टैंकर माफियाओं के खिलाफ आप कार्रवाई करनेवाले थे, उन्हें पकड़वाने वाले थे, वे आश्वासन कहां है? यह भी खबर है कि दिल्ली की सबसे उच्च सुरक्षा क्षेत्र में धरने पर बैठे ये लोग सड़क पर ही सरकारी फाइल निपटा रहे हैं. मुख्यमंत्री भीड़ में सरकारी फाइल कर रहे हैं. क्या भीड़, धरना, शोर और अराजकता में निपटाई जानेवाली फाइलों पर इंसाफ होगा या उसके लिए समय चाहिए?

यह सरकार गांधी का नाम लेती है. गांधी के रास्ते पर ही इसने शुरुआत की. वही इसकी ताकत व पूंजी रही है. पर इस सरकार के मुखिया अगर गलत बोलें, तो ‘आप’ की एकमात्र पूंजी विश्वसनीयता ही खत्म हो जायेगी. अरविंद केजरीवाल ने 20.01.14 को दिल्ली में अपने मंत्री सोमनाथ भारती के समर्थन में यूगांडा हाईकमीशन का पत्र दिखाया, जिसमें सेक्स रैकेट का उल्लेख था. ‘द टेलीग्राफ’ अखबार की रिपोर्ट है कि यह पत्र पिछले साल का है. इस प्रकरण से इसका कोई सरोकार नहीं. वह निजी शिकायतपत्र है. इस अखबार ने यूगांडा के उच्चायुक्त से पता किया. वहां का कोई आदमी सोमनाथ भारती से नहीं मिला. जब सोमनाथ भारती से इस पत्र के झूठ के बारे में इस अखबार ने पूछा, तो उन्होंने कहा कि यूगांडा स्थित इंडियन हाइकमीशन सेक्स रैकेट चलाने में संलग्न है. क्या एक मंत्री को यह बचकाना बयान देना चाहिए? अब भारत सरकार के विदेश मंत्रालय को सभी अफ्रीकन देशों के दूतावास के लोगों को इमरजेंसी मीटिंग बुला कर यह आश्वासन देना पड़ रहा है कि हम आपके यहां अतिरिक्त पुलिस फोर्स की तैनाती करेंगे. यूगांडा और नाइजीरिया की छह महिलाओं ने सोमनाथ भारती के साथ गयी भीड़ का अपमान और दुर्व्यवहार सहा. यह दिल्ली पुलिस में एफआइआर है. इन नौसिखिये मंत्रियों के कामकाज का भारत की गरिमा पर गहरा असर पड़ रहा है, यह इन्हें नहीं मालूम? हम देश के अंदर लड़ सकते हैं, देश सुधारने के लिए. पर देश के बाहर जब देश की फजीहत हो, तो हमें एक होना चाहिए? याद करिए, जब 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय अटल जी ने इंदिरा जी को दुर्गा कहा, जिनके वो सबसे बड़े आलोचकों में थे.

दरअसल ‘आप’ के साथ एक गंभीर समस्या है. ‘आप’ के कुछ टॉप लोग विचारवान, समझदार और अनुभवी हो सकते हैं, पर नीचे के कार्यकर्ता अनुशासनहीन हैं. गांधी को याद करें. उन्होंने जीवन में तीन ही बड़े आंदोलन किये. 1919-1921 का दौर. 1929-1931 का दौर और 1942 का दौर. इसके बीच ठहर कर वह कार्यकत्ताओं का चरित्र निर्माण करते रहे. इसलिए उनके आंदोलन से कामराज जैसे अपढ़ निकले, जो आधुनिक भारत के निर्माता बने. अपने चरित्रबल के कारण. ऐसे लाखों कार्यकत्ताओं को गांधी ने पैदा किया. ‘आप’ को सत्ता मिल गयी है. अब उसे अपने लोगों को समझदार, शालीन और चरित्रवान बनाने का अभियान चलाना चाहिए, ताकि वे राजनीति की भीड़ में एक नयी आभा का केंद्र बन सकें. अगर ‘आप’ उस नयी उम्मीद को तोड़ते हैं, जो उन्होंने मुल्क में पैदा किया है, तो देश में बदलाव के चिह्न दूर-दूर तक नहीं होंगे. आजादी के बाद सरदार पटेल का समाजवादियों को प्रस्ताव था कि वे कोई एक राज्य चुन लें, वहां अपने आदर्शों, सिद्धांतों और कल्पना के अनुसार उसे आदर्श राज्य बना दें. फिर सरदार पटेल ने कहा कि वह उनके पीछे होंगे और समाजवाद के इस मॉडल के तहत पूरा चलने में वे समाजवादियों की मदद करेंगे. इस रूप में ‘आप’ के पास मौका है कि वे दिल्ली में भिन्न शासन कर के दिखाये.

इस भीड़ में अलग चरित्र के राजनेता बन कर दिखें. पूरा देश बिना आंदोलन, प्रचार के उनके पीछे चल पड़ेगा. याद करिए, 1974 में जेपी आंदोलन हुआ, भ्रष्टाचार के खिलाफ. तब बिहार के मुख्यमंत्री थे, अब्दुल गफूर. उनकी ईमानदारी की प्रशंसा जेपी को भी करनी पड़ी. कहने का तात्पर्य है कि तब तक सत्ता में ऐसे कांग्रेसी थे, जिनके पास एक चरित्रबल था. पर जेपी आंदोलन सफल हुआ. पर, जेपी विरासत के उत्तराधिकारियों ने राजनीति में सफाई के बदले गंदगी का कीर्तिमान बनाया. उससे कई बड़े नेता निकले. कुछेक नीतीश कुमार जैसे अपवादों को छोड़ दें, तो वे किस विरासत के वाहक हैं? कुछ लोग कहते हैं कि अगर जेपी आंदोलन नहीं होता, तो कांग्रेस को पतन के मौजूदा दौर तक पहुंचने में काफी समय लगता. 1989 आते-आते प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे. बोफोर्स के खुलासे से जो आंदोलन पैदा हुआ, उससे वीपी सिंह को गद्दी मिल गयी. पर, आंदोलन का वह अपना वायदा भूल गये कि प्रधानमंत्री की गद्दी मिलते ही, चौबीस घंटे में बोफोर्स में शामिल लोगों के नाम उजागर करेंगे. इसका असर क्या हुआ? भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गयी. भ्रष्टाचार 65 करोड़ से बढ़ कर 2जी, कोयला, कॉमनवेल्थ खेल जैसे प्रकरणों तक जा पहुंचा, जिसमें कई-कई लाख करोड़ के घोटाले अब आम हो गये हैं. इन घोटालों के माहौल में ‘आप’ का उदय एक नयी उम्मीद के साथ हुआ है. अगर ‘आप’ (जो बार-बार उसके मंत्री या नेता सत्ता में आने के पहले कहते रहे हैं) पहले की कांग्रेसी सरकार पर, जिन आरोपों की सीढ़ी चढ़ कर सत्ता में आयी, उसे खुलासा कर, शीला दीक्षित, कांग्रेस सरकार या भाजपा के दोषी लोगों को जेल पहुंचाये, तो एक नयी शुरुआत होगी. यह मूल काम छोड़ कर ‘आप’ अपनी सरकार को शहीद बनाने के लिए यह आंदोलन अगर चला रही है, तो देश की राजनीति में जो उम्मीद की किरण पैदा हुई है, वह धुंध में बदल जायेगी. ‘आप’ की विफलता, देश में बदलाव के सपनों को ही आनेवाले कई दशकों के लिए खत्म कर देगी. आज जब भारत को बचाने-मजबूत बनाने के लिए दिल्ली में मजबूत सरकार चाहिए, तब यह अराजकता देश को कहां पहुंचायेगी?

संतोष हेगड़े ने ठीक कहा है कि ‘आप’ की सरकार बनी तो खुश था, अब निराश हूं. यह देश के हम जैसे करोड़ों लोगों की भावना का प्रतिबिंब है.

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