राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने दी रविदास जयंती की शुभकामनाएं, जानें कैसे थे संत रविदास

नयी दिल्ली : "मन चंगा तो कठौती में गंगा" संत रविदास की यह पंक्ति खूब प्रचलित हुई. इस पद के अर्थ को उन्होंने अपने जीवन में भक्ति, कर्म और उच्चादर्शों को आत्मसात कर प्रस्तुत किया. उन्होंने मेहनत की कमाई को वास्तविक कमाई व कर्म का दर्जा दिया. मनुष्य की लोभी प्रवृत्ति पर व्यंग करते हुए […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 31, 2018 11:28 AM

नयी दिल्ली : "मन चंगा तो कठौती में गंगा" संत रविदास की यह पंक्ति खूब प्रचलित हुई. इस पद के अर्थ को उन्होंने अपने जीवन में भक्ति, कर्म और उच्चादर्शों को आत्मसात कर प्रस्तुत किया. उन्होंने मेहनत की कमाई को वास्तविक कमाई व कर्म का दर्जा दिया. मनुष्य की लोभी प्रवृत्ति पर व्यंग करते हुए उन्होंने लिखा-‘माटी को पुतरा कैसे नचतु है, देखै सुनै बोलै दउरियो फिरत है, जब कछु पावै तब गरबु करत है, माईआ गई तब रोबुन लगत है़’

राष्ट्रपति महात्मा गांधी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संत रविदास जयंती पर शुभकामाएं दी. राष्ट्रपति कोविंद ने लिखा, सभी देशवासियों को गुरु रविदास जयंती की शुभकामनाएं. समानता, एकता और सामाजिक सौहार्द की उनकी शिक्षा और सन्देश देश को प्रेरणा देते हैं. प्रधानमंत्री ने उनकी चंद लाइनें ट्वीट की है जिसमें उन्होंने लिखा.
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सब सम बसै, रैदास रहै प्रसन्न।

प्रधानमंत्री ने एक के बाद एक कई ट्वीट किये जिसमें उन्होंने संत रविदास को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके उस सपने का जिक्र किया जिसमें वह सबके लिए समान अधिकार चाहते थे.

आज से 641 वर्ष पूर्व महान संत कवि रविदास का जन्म वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के सीर गोबर्धनपुर ग्राम में एक साधारण चर्मकार परिवार में हुआ था. तब शायद किसी ने यह कल्पना तक न की थी कि आगे चल कर यही बालक संत शिरोमणि कवि रविदास के रूप में विख्यात होगा. इनके पिता संतोष दास और माता कालसा देवी ने रविदास की पढ़ाई के लिए कोई उचित व्यवस्था नहीं की थी, इसके बावजूद रविदास तत्कालीन समाज की विपरीत परिस्थितियों में पाठशाला की पढ़ाई पूरी की. समाज में व्याप्त जात-पात के कारण बचपन से ही रविदास को अस्पृश्यता का शिकार होना पड़ रहा था.

पाठशाला के गुरु पंडित शारदानंद, रविदास को देखते ही पहचान गये थे कि यह कोई साधारण बालक नहीं है. उच्च जाति वालों के विरोध के कारण उन्होंने पाठशाला से बाहर रविदास को प्रारंभिक शिक्षा प्रदान की. संत रविदास हिंदू धर्म में व्याप्त ऊंच-नीच प्रथा को जड़ से मिटा देना चाहते थे.
वे पदों की रचना बाल काल से ही किया करते थे. उनके सभी पद छन्दोबद्ध और गीत, दोहा और काव्य की तुला में खरे, कसे हैं. बड़ी से बड़ी बातों को भी बिल्कुल सहज ढंग से प्रस्तुत किया करते थे. सामाजिक बुराई, ब्राह्मणवाद, जातिवाद, छुआछूत, अंधविश्वास, कुरीति आदि के खिलाफ पद रचने के कारण बहुत जल्द ही रविदास लोकप्रिय हो गये. भक्ति काल में बहुभाषा में लिखने वाले वह एक मात्र कवि थे. गुरुग्रन्थ साहिब में संत रविदास के सबसे अधिक पद समाहित हैं. यह अपने-आप में बड़ी बात है.
संत रविदास, संत कबीर के गुरु भाई थे. संत कबीर ने उन तमाम मान्यताओं को ध्वस्त किया था, जो मनुष्य को मनुष्य से अलग करता हो. संत रविदास ने हिंदू परंपरा के अनुसार दाढ़ी बढ़ाई, माथे पर तिलक और जनेऊ धारण किया.

संस्कृत की क्लिष्टता को उन्होंने सरल किया और शूद्रों को संस्कृत न पढ़ने की मनाही का आजीवन विरोध किया. उन्होंने लिखा कि ‘जाति-जाति में जाति है, जो केतन के पास, रैदास मनुष ना जुड़े सके जब तक जाति न जात…’ जाति को उन्होंने मिथ्या करार दिया. आज की बदली परिस्थिति में रैदास की उक्त उक्ति को चरितार्थ करने की जरूरत है.

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