पहले वोट की खुशी और कई सवाल

2014 के लोकसभा के चुनाव में मुङो पहली बार वोट डालने का अवसर मिला. हमारे लोकसभा क्षेत्र रायबरेली में चुनाव थे. मन ही मन यह सोचकर गौरवान्वित हो रहा था कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का मैं भी एक वोटर हूँ. तकरीबन 6 माह पहले ही मैंने मतदाता पहचान पत्र बनवाने के लिए बीएलओ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 6, 2014 11:54 AM

2014 के लोकसभा के चुनाव में मुङो पहली बार वोट डालने का अवसर मिला. हमारे लोकसभा क्षेत्र रायबरेली में चुनाव थे. मन ही मन यह सोचकर गौरवान्वित हो रहा था कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का मैं भी एक वोटर हूँ.

तकरीबन 6 माह पहले ही मैंने मतदाता पहचान पत्र बनवाने के लिए बीएलओ को सारे कागजात दे दिए थे? महीने में मेरा वोटर आईडी कार्ड बनकर घर आ गया था. तो वोटर आईडी कार्ड बनवाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. प्रत्येक चुनाव की तरह इस चुनाव में भी मतदान केंद्र गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल में बनाया गया था. एक और बूथ पास के ही दूसरे गांव के सरकारी स्कूल को बनाया गया था. ऐसे तो कोई गांव के सरकारी स्कूल की तरफ भूलकर भी नहीं जाता है सिर्फ वोट देने के बहाने ही उधर जाना पड़ता है. उसकी हालत ऐसी हो गयी है कि कभी पूरे गांव में शिक्षा की अलख जगाने वाला स्कूल आज बदहाल है. बच्चे स्कूल पढ़ने नहीं खाना खाने आते हैं.

सुबह ही वोट डालने का प्लान बनाया क्योंकि दोपहर तक लम्बी लाइन और कड़ी धूप से दो-चार होने की आशंका थी. हालांकि तैयार होते-होते साढ़े ग्यारह बज गए. मेरे परिवार में पापा-मम्मी और मेरा वोट था. पापा की चुनाव में ड्यूटी लगी थी और मम्मी का शाम को वोट डालने का प्लान था. मेरे साथ 2 चचेरे भाई भी थे. उन दोनों के पास पिछले विधानसभा चुनाव में वोट डालने का अनुभव था, लिहाजा उनमें वह उत्साह नहीं नजर आ रहा था. वोट डालने के लिए हम घर से निकल लिए नहर के कच्चे रास्ते से. मेरी याद में नहर में कभी इतना पानी नहीं आया था कि अपने आप खेतों तक पहुंचाया जा सके, पानी को खेतों तक ले जाने के लिए पम्पिंग सेट का सहारा लेना पड़ता है. वैसे तो नहर में पानी भी नहीं आता है, मगर जब जरूरत नहीं होती तो यह भरा रहता है.

सोनिया गांधी के यहां से चुनाव लड़ने की वजह से रायबरेली एक वीआइपी सीट है. इस बार यहां से 17 प्रत्याशी दावेदारी पेश कर रहे हैं. हालांकि मुख्य रूप से तीन ही प्रत्याशी मुकाबले में हैं, कांग्रेस से सोनिया गांधी, बसपा से प्रवेश सिंह और बीजेपी से अजय अग्रवाल. इस बार कुछ खास प्रचार भी नहीं किया गया. बीजेपी प्रत्याशी ने ही प्रचार किया. पिछले हफ्ते से प्रियंका गांधी भी आ रही थीं. रायबरेली की सात में से पांच विधानसभा सीट जीतने वाली समाजवादी पार्टी ने अप्रत्याशित रूप से यहां से कोई उम्मीदवार ही नहीं खड़ा किया. वैसे कांग्रेस ने भी मुलायम सिंह के संसदीय क्षेत्र मैनपुरी से कोई उम्मीदवार नहीं खड़ा किया है. बीजेपी की ओर से सुब्रमण्यम स्वामी से लेकर उमा भारती तक के यहां से उतारे जाने की चर्चा थी, मगर अंतत: सुप्रीम कोर्ट के वकील अजय अग्रवाल को यहां से प्रत्याशी बनाया गया. आम आदमी पार्टी की ओर से शाजिया इल्मी के यहां से चुनाव लड़ने कि सुगबुगाहट जरूर थी. लेकिन पार्टी ने अर्चना श्रीवास्तव को उम्मीदवार बना दिया.

जब पोलिंग बूथ पर पहुंचा तो बाहर मतदाता पर्चियां बनायी जा रही थीं.

पोलिंग बूथ पर पहुंचते ही मैं दंग रह गया एकदम सन्नाटा. उम्मीद थी कि 12 बजे लम्बी लाइन लग गयी होगी. मैंने मजाक में ही कहा कि ‘‘इतना सन्नाटा क्यों है भाई.’’ तो वहां पर तैनात सुरक्षा कर्मी ने हंसते हुए कहा ‘‘क्योंकि ये लोकसभा का चुनाव है प्रधानी का नहीं.’’ वाकई ये मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी क्योंकि पिछले जितने भी चुनाव होते रहे हैं मैं पोलिंग बूथ के पास हमेशा आता था. भले ही तब मेरा वोट नहीं था. हमेशा 100-200 मीटर लम्बी लाइन तो ज़रूर ही लगी रहती थी चाहे वो विधानसभा के चुनाव हो या त्रिस्तरीय पंचायत के. पंचायत के चुनाव में तो हर प्रत्याशी की तरफ से वोटर को लाने और ले जाने की सुविधा भी प्रदान करवाई जाती है.

पोलिंग बूथ पर पुराना सहपाठी नदीम भी मिल गया. हम सब लाइन में खड़े हो गये नदीम सबसे आगे था, उसके पीछे मैं और मेरे पीछे दोनों चचेरे भाई. शायद नदीम का नाम दूसरे बूथ पर था जो लगभग 500 मीटर दूर था. मतदान कर्मी ने उसे दूसरे बूथ पर जाने को कहा तो वह गुस्से से परची फाड़कर निकल गया. अब मेरी बारी थी.

वोट डालने में बमुश्किल 2 मिनट लगे. ईवीएम मशीन के बीप की आवाज़ के साथ दिल से भी एक हूक निकली. इसी के साथ मैंने अपनी जिंदगी का पहला वोट डाल दिया. नदीम के पर्ची फाड़ने से एक बात तो स्पष्ट हो गयी थी कि उसके लिए इस लोकसभा के चुनाव और वोट डालने का कोई महत्त्व नहीं था. अगर विधानसभा या पंचायत का चुनाव होता तो यकीनन वह ऐसा नहीं करता.

हम वोट डालकर बाहर आ चुके थे. इतनी गर्मी में घर पर कोई काम तो होता नहीं है, चुनाव के दिन तो बिलकुल नहीं. लिहाजा बूथ पर चल रही चुनावी चक्कलस में हम भी शामिल हो लिए. अगर आप किसी से पूछें कि आपने किसको वोट किया तो शायद वो झूठ बोल देगा. लेकिन अगर आप उससे यहां के हालत के बारे में विस्तार से पूछें तो आपको सही जानकारी मिल सकती है कि उसने किसको वोट दिया है. वैसे लोकसभा चुनाव में लोग झूठ कम ही बोलते हैं और सच-सच बता देते हैं कि किसको वोट दिया है.

मेरा गांव रायबरेली जिला मुख्यालय से 30 किमी दूर है. जिला मुख्यालय तक पहुंचने के साथ यहां से इलाहबाद, कानपुर, लखनऊ के लिए सीधे हाईवे हैं. गांव में आवागमन की कोई समस्या नहीं है. लेकिन अस्पताल, शिक्षा, रोज़गार, बिजली जैसे कई जरूरतें आज भी पूरी नहीं हो पायी है.

गांव से 4 किमी दूर एनटीपीसी का पावर प्लांट है, जिससे 6 राज्यों में बिजली भेजी जाती है, मगर हम सभी गांव वाले ग्रामवासियों को बिजली के लिए तरसना पड़ता है. हर बार 24 घंटे बिजली देने के वादे किये जाते हैं मगर हालात जस के तस रह जाते हैं. इन्हीं मुद्दों पर वहां चर्चा हो रहीं थी. मुङो अच्छा लगा कि गांव के लोग इन सभी मुद्दों पर बात कर रहे हैं लेकिन जब वे किसी और को वोट देकर अपना वोट बर्बाद करने की बात करते हैं तो बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता. अरे भाई वोट देना तो स्वतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रि या का हिस्सा है, इसमें किसी बेहतर प्रत्याशी को वोट देने से वोट कैसे बर्बाद हो जाता है?

शायद मैं उन्हें समझाने का असफल प्रयास कर रहा था! मुङो लगता है कि आज का युवा बहुत ही असमंजस में और भटका हुआ है. वह बदलाव तो लाना चाहता है लेकिन बदलाव का हिस्सा नहीं बनना चाहता. दूसरी ओर सभी राजनीतिक दल लम्बी चौड़ी बातें करके सिर्फ सत्ता हथियाना चाहते हैं उन्हें देश के नागरिकों की समस्या से कोई वास्ता नहीं है. रायबरेली में बहुत सारे प्रोजेक्ट लगाये गए हैं. एनटीपीसी, हिन्दुस्तान पेपर मिल, राजीव गांधी पेट्रोलियम संस्थान, फिरोज गांधी इंजीनियरिंग कॉलेज, रेल कोच फैक्टरी. जो बंद हो चुकी है उनमें इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्री, स्कूटर इंडिया और कुछ का शिलान्यास भी हो चुका है. जैसे-अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान केंद्र,भारतीय महिला विश्वविद्यालय. लेकिन इन सब से यहाँ के निवासियों को कुछ खास फायदा नहीं हुआ है. उच्च शिक्षा के लिए युवाओं को लखनऊ, कानपुर, इलाहबाद जाना पड़ता है, ग्रामीणों को खाद बिजली पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है. अस्पताल बदहाल हैं, रोज़गार के लिए युवा भटकते रहते हैं, वे पंजाब-दिल्ली और मुंबई भागते हैं.

बूथ के बाहर एक अधेड़ उम्र के सज्जन भी मिले पुराने कांग्रेसी कार्यकर्ता हैं. मैंने उनसे पूछा कि क्यों दद्दा अबकी बार एजेंट नहीं बने हो का.. तो उन्होंने सारी खुन्नस हमारे सामने निकल दी..

अरे काहे के एजेंट, ..जमाने से चुनाव करवा रहे हैं अबकी बार हमारा ध्यान ही नहीं दिया गया.. बाहर से एमबीए होल्डर चुनाव कराने आये हैं.. ससुरे…!! अबकी बार मैडम (सोनिया गांधी) को अहसास हो जाएगा कि कौन बेहतर है.. हम पुराने कार्यकर्ता या ये एमबीए होल्डर.. वोट दे के आये हैं…दूसरी पार्टी को…लहर के चलते नहीं… सोनिया को अपनी ताकत का अहसास कराने के लिए..!!! दरअसल चुनाव में ही तो कार्यकर्ताओं को याद किया जाता है कुछ सेवा-मेवा भी दिया जाता है. लेकिन इस बार हमें कुछ भी नहीं मिला..

उसके बाद मैं पास के कुछ पोलिंग बूथ पर गया वहां पर वोटरों ने कहा उनके मन में सोनिया गांधी के प्रति रोष तो है लेकिन सिर्फ अपने वोट का सदुपयोग करने के चलते किसी दूसरे को वोट नहीं कर रहे.

तीन बूथों पर घूम कर जब घर वापस लौटने लगा तो गाँव के किनारे खेतों में कुछ महिलायें पिपरमेंट (मेंथा) कि निराई कर रहीं थी. जब मैंने उनसे पूछा ..

दादीजी वोट देने नहीं गयी का.?

उन सभी का कहना था उससे का होगा.?
दरअसल उनका मानना है कि वोट देने से उनके जिंदगी में कोई बदलाव आने वाला तो है नहीं..उन्हें तो जिंदगी भर यही निराई-गुड़ाई, मजदूरी करनी है. पेंशन के लिए, सरकारी कॉलोनी के लिए, राशन के लिए प्रधान जी की जी हुजूरी करनी ही पड़ेगी चाहे जिसको वोट करें. चाहे जो जीते उनकी जिंदगी में कोई बदलाव आने वाला नहीं है. वे महिलाएं दलित और पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखती थीं उन सभी ने विधानसभा चुनाव में बसपा को वोट दिया था लेकिन अबकी बार उन्हें बसपा का भी प्रत्याशी सही नहीं लगा तो वोट ही नहीं देने गयीं. यह सब सुनकर मैं मायूस हो गया. रास्ते भर सोचता रहा, सभी राजनीतिक दल लम्बी चौड़ी बातें करते हैं. विज्ञापन पर हजारों करोड़ रु पये खर्च करते हैं, विकास के मॉडल कि बातें करते हैं. लेकिन इन मजदूरों, दलितों, गरीबों की मूलभूत समस्या का समाधान उनके पास है क्या? गांव के अधिकतर गरीब, मजदूर लोग वोट देने ही नहीं गए. शायद इसीलिए इस बार भी वोट प्रतिशत कुछ खास नहीं रहा. पिछली बार रायबरेली में 48 फीसदी मतदान हुआ था तो इस बार थोड़ा बढ़कर 54 फीसदी रहा. हालांकि पंचायत चुनाव में यह आंकड़ा 80-90 प्रतिशत होता है.

अगर सभी राजनीतिक दल ऐसे ही सांठ-गांठ करते रहेंगे, सत्ता लोभ में चूर होकर ऐसे ही शासन करते रहेंगे, और मतदाता ऐसे ही वोट का ‘सदुपयोग’ करते रहेंगे तो यह व्यवस्था यूं ही चलती रहेगी.

Next Article

Exit mobile version