नौकरी छोड़ राजनीति में आये, अब उम्मीदें बनीं ओढ़ना-बिछौना

बीते आठ सालों से कार्यकर्ता का जीवन जी रहे ललन कुमार चंद्रवंशी एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये. सामाजिक बदलाव का सपना उनकी आंखों में जज्ब रहा है. नौकरी के वक्त उन्हें 30-35 हजार की सैलरी मिलती थी. अब नियमित आय का कोई साधन नहीं. पार्टी और समर्थकों की मदद से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 6, 2014 12:12 PM

बीते आठ सालों से कार्यकर्ता का जीवन जी रहे ललन कुमार चंद्रवंशी एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये. सामाजिक बदलाव का सपना उनकी आंखों में जज्ब रहा है. नौकरी के वक्त उन्हें 30-35 हजार की सैलरी मिलती थी. अब नियमित आय का कोई साधन नहीं.

पार्टी और समर्थकों की मदद से जीवन की गाड़ी खींच रही है. लोजपा के मीडिया प्रभारी ललन मानते हैं कि कार्यकर्ताओं के सामने आज चुनौतियां बेहद गंभीर है. यह चुनौती उनके राजनीतिक कर्म में टिके-बने रहने की है. बहुत सारे कार्यकर्ता राजनीति में आते हैं और प्रतिकूल हालातों के चलते बैक (पीछे) हो जाते हैं. उनके सामने सबसे बड़ा संकट आर्थिक होता है. किसी भी पार्टी में कार्यकर्ताओं को टिकाये रखने का कोई सिस्टम नहीं बन पाया है. यही वजह है कि जिस पार्टी की सरकार होती है, उसके कार्यकर्ता ठेकेदार बन जाते हैं. यह ठीक नहीं है. कार्यकर्ता अगर किसी संगठन की रीढ़ है, तो उसके बारे में विचार किया जाना चाहिए.

राजनीति में मैं अपना गुरु रामविलास पासवान को मानता हूं. पार्टी में मुङो पद की अपेक्षा तो नहीं है. हजारों कार्यकर्ता हैं. उनमें से सबकी अपेक्षाएं पूरी नहीं की जा सकतीं. हालांकि यह बात भी सही है कि हर कार्यकर्ता के दिल में यह बात होती है कि उसे भी कोई पद मिल जाये. इससे हम परे नहीं हैं. मुङो अपने नेतृत्व और पार्टी पर भरोसा है. ललन मानते हैं कि समाज में बदलाव आ रहा है. पर बहुत कुछ बाकी है.

ललन की जीवन यात्रा एकरेखीय नहीं रही. 1975 में घर के लोगों ने जबरन शादी करा दी. तब ललन कुमार चंद्रवंशी ने मैट्रिक भी नहीं की थी. शादी के बाद भागकर पटना आ गये. उनके गांव भोजपुर के एकवारी के एक टीचर पटना में ही रहते थे. उनसे संपर्क किया. वहां खाना बनाने का काम मिला. लेकिन मन में था कि पढ़ना है. ललन ने यह बात अपने गांववाले मास्टर साहब से कही. उन्होंने मदद की. कैथी स्कूल से मैट्रिक पास होने पर फिर पटना आ गये. पर दिक्कते साथ थीं. खाना बनाने के काम के चलते पढ़ने का समय नहीं मिल पाता था.

सो, रिक्शा खींचना शुरू कर दिया. बीएन कॉलेज में एडमिशन का फार्म भर दिया था. एक दिन शाम में एक सवारी मिली. उन्हें बीएन कॉलेज ही जाना था. वहां जाने के बाद पता चला कि वह व्यक्ति बीएन कॉलेज के प्रिंसिपल एसके बोस थे. उन्हें फार्म भरने की बात बतायी. उन्होंने कहा कि लिस्ट में नाम नहीं निकलने पर मिलना. लिस्ट में नाम निकल गया. वहां के शिक्षकों ने काफी मदद की. वहीं रहने की जगह मिल गयी और ट्यूशन के लिए कुछ बच्चे भी. इस तरह रिक्शा के पैंडल से छुटकारा मिला. कॉलेज के वक्त ही वह एआइएसएफ से जुड़ गये. जनशक्ति अखबार के लिए फोटो देना शुरू किया. लंबे समय तक वहां फोटोग्राफर रहे. 1986 में जब टाइम्स ऑफ इंडिया का प्रकाशन पटना से शुरू हुआ तो उसमें नौकरी मिल गयी. फोटोग्राफी में तीन बड़े अवार्ड मिले. लनन भोजपुर के चर्चित एकवारी गांव के रहने वाले हैं. उसी गांव से भोजपुर में नक्सली आंदोलन की शुरुआत हुई थी.

2005 में उन्होंने अखबार की नौकरी छोड़ दी. उसी साल विधानसभा के चुनाव में खड़े हो गये. नतीजा पहले से ही लगभग तय था. उसके अगले साल लोजपा ज्वाइन कर ली. ललन कहते हैं : कोई जरूरी नहीं कि आप जो सोच रहे हैं, वह आपको मिल ही जाये. एक कार्यकर्ता को हमेशा संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए. लोगों से संवाद और उसकी ईमानदारी ही उसे समाज और राजनीति में जगह दिलायेगी.

कार्यकर्ता का दर्द

ललन कुमार चंद्रवंशी (लोजपा)

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