आठ फीसदी स्कूलों में ही शिक्षा का अधिकार

पुष्यमित्र दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ते वक्त आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में उल्लेख किया था कि दिल्ली में इस वक्त महज 2674 स्कूल संचालित हो रहे हैं, जिनमें राज्य के तकरीबन 24 लाख बच्चे पढ़ते हैं. वे अगर सरकार बनाते हैं तो कम से कम 500 स्कूल और खोलेंगे. आम आदमी पार्टी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 6, 2014 12:23 PM

पुष्यमित्र

दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ते वक्त आम आदमी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में उल्लेख किया था कि दिल्ली में इस वक्त महज 2674 स्कूल संचालित हो रहे हैं, जिनमें राज्य के तकरीबन 24 लाख बच्चे पढ़ते हैं. वे अगर सरकार बनाते हैं तो कम से कम 500 स्कूल और खोलेंगे.

आम आदमी पार्टी में आम तौर पर प्रबुद्ध, समाजसेवी और शिक्षा से जुड़े लोगों का प्रभाव माना जाता है, मगर फिर भी, घोषणापत्र बनाते वक्त शायद उनकी दिमाग में यह बात नहीं आ पायी कि साल 2010 से देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू है. इसके तहत हर एक किलोमीटर में प्राथमिक और तीन किलोमीटर के दायरे में माध्यमिक विद्यालय होना कानूनन जरूरी है. इसके अलावा हर स्कूल में 30-35 बच्चों पर एक शिक्षक का होना भी उसी तरह अनिवार्य है.

ये प्रावधान मार्च 2013 तक लागू हो जाने थे, लिहाजा अगर ये प्रावधान लागू नहीं हो पाये तो यह अवमानना का मामला है. ऐसे में स्कूलों का खोला जाना कोई चुनावी वादा नहीं हो सकता यह तो कानूनन जनता का अधिकार हो गया है. इसके अलावा दिल्ली में महज 500 स्कूल खोलने से काम नहीं चलेगा. क्योंकि पांच सौ स्कूल हो भी गये तो प्रति स्कूल बच्चों की संख्या 750 से अधिक होगी, जो किसी लिहाज से ठीक नहीं मानी जा सकती. यहां पार्टी की भावनाओं पर सवाल नहीं है, सवाल उनकी अनभिज्ञता पर है कि देश में एक कानून शिक्षा की गारंटी देने के लिए बना है, मगर एक प्रबुद्ध राजनीतिक दल को इस बारे में ठीक से खबर नहीं है.

हालांकि दोष अकेले आम आदमी पार्टी को ही दिया जाना ठीक नहीं. इन दिनों खुद को विकास पुरुष साबित करने और गुजरात मॉडल को सबसे बेहतर मॉडल बताने वाले नरेंद्र मोदी भी अहमदाबाद में महज 14 फीसदी स्कूलों में इस कानून को ठीक से लागू करवा पाये हैं. और तो और जिस कांग्रेस की सरकार ने इस महत्वपूर्ण कानून को लागू किया है और उसके नेता राहुल गांधी चुनावी भाषणों में बार-बार इस तथ्य का उल्लेख करते हैं. एक अध्ययन के मुताबिक खुद उनके चुनाव क्षेत्र अमेठी में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने की दर उत्तर प्रदेश में न्यूनतम है. वहां महज एक फीसदी स्कूल ही शिक्षा का अधिकार (आरटीई) मानकों का पालन करते हैं.

और राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्र की तसवीर यह है कि वहां इसके अनुपालन की दर देश भर में सबसे न्यूनतम है. जब कानून बना था तो तय हुआ था कि मार्च, 2013 तक देश के सभी स्कूलों में इस कानून को लागू करा लिया जायेगा. मगर अध्ययन बताते हैं कि अप्रैल, 2014 को जब इस कानून के बने हुए चार साल का वक्त बीत चुका है. अभी महज 8 फीसदी सरकारी स्कूलों में ही शिक्षा का अधिकार कानून को लागू कराया जा सका है. 92 फीसदी स्कूलों के लिए शिक्षा का अधिकार कानून आज भी सपना है. विडंबना यह है कि कानूनन जहां एक-एक बच्चे को उसकी पढ़ाई का हक मिलना चाहिए था, आज की तारीख में मानव संसाधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक 80 लाख और जनगणना के आंकड़ों के आधार पर 7 करोड़ बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. तय मानकों के हिसाब से आज भी देश भर में शिक्षकों के 5 लाख पद रिक्त हैं. देश भर में संचालित होने वाले 11 फीसदी से अधिक स्कूलों में एक ही शिक्षक कार्यरत है और 5 फीसदी स्कूल एक ही कमरे से संचालित होते हैं. आज भी एक लाख से अधिक बस्तियों के बच्चों को स्कूल जाने के लिए तीन किलोमीटर से अधिक की दूरी तय करनी पड़ती है.

गंभीर नहीं हैं सरकारें
इन आंकड़ों से जाहिर है कि कानून बनने के बावजूद सरकार सबको शिक्षा उपलब्ध कराने के अभियान में कितनी गंभीर है. दोष सिर्फ केंद्र सरकार का नहीं राज्य की सरकारों का भी है. तकरीबन हर राज्य में शिक्षकों की कमी है, स्कूल भवनों की परेशानियां बरकरार है. अप्रशिक्षित शिक्षक काम कर रहे हैं. नामांकन के मामले में जरूर बढ़त बनायी जा रही है, मगर उसमें भी कई जगह से फर्जीवाड़े की सूचना है, ताकि मध्याह्न भोजन और दूसरी विभिन्न योजनाओं में भ्रष्टाचार के रास्ते खोले जा सकें. अधिकांश राज्यों में नियमित शिक्षकों के बदले पारा शिक्षकों की भरती की जा रही है, जो आम तौर पर योग्यता के मानदंडों पर खरे नहीं उतरे. उन्हें मानदेय भी बहुत कम मिलता है, लिहाजा वे किसी खास उपयोग के साबित नहीं होते. इसका असर न सिर्फ पढ़ाई की गुणवत्ता पर पड़ता है बल्कि सरकारी स्कूलों से लोगों का मोहभंग भी होता है. आज यही वजह है कि सुदूर देहात में भी बड़ी संख्या में प्राइवेट स्कूल खुल रहे हैं. इन स्कूलों का कोई स्तर नहीं होता. बस अंग्रेजी पढ़ाने के नाम पर ये अभिभावकों का दोहन करते हैं. न इनके पास बेहतर भवन होते हैं, न दूसरे संसाधन. जबकि इनसे सौ गुना बेहतर संसाधन वाले सरकारी स्कूलों में लोग अपने बच्चों का नामांकन महज इस वजह से नहीं करवाना चाहते कि वहां पढ़ाई की गुणवत्ता बेहतर नहीं होती. आज मजदूर वर्ग का व्यक्ति भी चाहता है कि उसका बच्च प्राइवेट स्कूल में पढ़े. जबकि हमारे टैक्स की बड़ी राशि शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित कराने में फूंकी जा रही है, जिससे पढ़ने वाला बच्च किसी काम का साबित नहीं हो सकता है.

गुणवत्ता का मसला
स्कूलों में पढ़ाई की गुणवत्ता को लेकर असर की ओर से हर साल रिपोर्ट जारी की जाती है. उन रिपोर्टो में हर साल हमें बताया जाता है कि कक्षा पांचवी का बच्च ठीक से गुना-भाग नहीं कर पाता है. हालिया रिपोर्ट के मुताबिक कक्षा तीन का बच्च शब्दों को नहीं पहचानता और तीन चौथाई बच्चे घटाव करना नहीं जानते वहीं कक्षा तीन के सौ में से महज सात बच्चे ही भाग देना जानते हैं. यही वे हालात हैं कि आज लोग सरकारी स्कूलों से विमुख हो रहे हैं, वहां केवल वही बच्च पढ़ता है जिनके माता-पिता निजी स्कूलों का खर्च वहन नहीं कर पाते हैं. आखिर यह विडंबना क्यों है, अगर सरकार बच्चों की पढ़ाई लिखाई के लिए हजारों करोड़ रुपये हर साल व्यय कर रही है तो फिर महज गुणवत्ता की वजह से लोगों को निजी स्कूलों की ओर रुख करना पड़ रहा है. जबकि आज से महज 15-20 साल पहले तक 90 फीसदी परिवारों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे. वहां उस वक्त संसाधनों की कमी होती थी. मगर उसी स्कूल से पढ़ने वाले बच्चे शैक्षणिक और दूसरे क्षेत्रों में उच्च सफलता हासिल करते रहे हैं. जाहिर सी बात है कि इस अधोपतन के पीछे राजनीति और हमारा सरकारी तंत्र जिम्मेदार है. जो शिक्षा को आज भी अपनी प्राथमिकता में नहीं रखता. शिक्षा के नाम पर कानून जरूर बन गये हैं मगर इनका अनुपालन नहीं होने के कारण ये कानून महज दिखावटी बनकर रह गये हैं.

बजट की समस्या
शिक्षा का अधिकार कानून बनाने वाली हमारी सरकार की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के प्रति प्रतिबद्धता का पता उसके बजटीय प्रावधान से चलता है. साल 2010 में जब यह कानून लागू हुआ था, तो केंद्र सरकार का आकलन था कि इस कानून को लागू कराने के लिए सालाना 231,000 करोड़ रुपये की राशि की जरूरत होगी. मगर उसी साल जब सरकार ने इस कानून को लागू करने के लिए बजटीय प्रावधान किये थे तो वह कॉमनवेल्थ गेम्स के आयोजन के बजट से आधा महज 24,000 करोड़ था. यह जानकारी सरकार की इस कानून को लेकर गंभीरता को स्पष्ट कर देती है. हालांकि इसके बाद भी कभी बजटीय प्रावधान को संतुलित बनाने की कोशिश नहीं की गयी.

साल दर साल घटा बजट

तालिका बजट

2012-13 12,990 करोड़

2013-14 11,287 करोड़

2014-15 10,910 करोड़

जबकि यह जाहिर था कि हम सब को शिक्षा देने के अपने अभियान में लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. मार्च, 2013 की डेडलाइन गुजर चुकी है और अप्रैल, 2014 तक आरटीई महज 8 फीसदी स्कूलों में ही पूरी तरह लागू हो पाया है. ऐसे में इस कानून को लागू करने की दिशा में बजट का इस तरह घटता चला जाना यह इशारा करता है कि सरकार इस दिशा में ज्यादा गंभीर नहीं है.

अंतरराष्ट्रीय दबाव
दरअसल बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत में शिक्षा का अधिकार कानून अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से लागू किया गया है. 1990 में थाइलैंड में शिक्षा के मसले पर आयोजित एक वर्ल्ड कांफ्रेंस में भारत समेत 155 देशों ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वे साल 2000 तक सभी के लिए शिक्षा को सुनिश्चित करेंगे. मगर जब 1998 में यूनेस्को और अन्य एजेंसियों ने भारत में शिक्षा के प्रसार के इसके प्रयासों का आकलन किया तो उन्होंने पाया कि हमारा देश अभी उन लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में काफी पिछड़ गया है. पाया गया कि भारत इस मसले पर सबसे निचले पायदान पर खड़ा है.

अप्रैल 2000 में डकार (सेनेगल) में आयोजित वर्ल्ड एजुकेशन फोरम में दुनिया के 193 देशों में से 180 देश शामिल हुए. वहां यह तय पाया गया कि अब भी गरीब और वंचित समुदाय के बच्चे शिक्षा से वंचित हैं. बहस के बाद यह सहमति बनी कि शिक्षा के अधिकार को आधारभूत अधिकार माना जाये. इस तरह डकार फ्रेमवर्क तैयार हुआ. इसके तहत एक बार फिर शपथ ली गयी कि 2015 तक शिक्षा हर एक व्यक्ति को उपलब्ध कराना सुनिश्चित किया जायेगा. हालांकि उस मौके पर भी भारत सरकार ने सिर्फ प्राथमिक शिक्षा सब तक पहुंचाने की जिम्मेदारी ली. हालांकि इसके बाद भी हमारी सरकारों ने बहुत गंभीरता का प्रदर्शन नहीं किया. सर्वशिक्षा अभियान की शुरुआत कर दिखावे के प्रयास जरूर किये गये. यह तो देश के शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का दबाव था कि 2009 में सरकार को शिक्षा का अधिकार कानून को मंजूरी देनी पड़ी.

लक्ष्य बहुत दूर
2015 के आने में बहुत वक्त बचा नहीं है. मगर हम आज भी लक्ष्य से काफी दूर हैं. जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक आज की तारीख में 6 से 14 के तकरीबन 25 करोड़ बच्चे देश में होंगे. अगर शिक्षा का अधिकार कानून ढंग से लागू कराया जाये तो इसके लिए हमें देश भर में 75 लाख शिक्षकों और 20 लाख से अधिक स्कूलों की जरूरत होगी. जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त देश में 18.78 करोड़ बच्चों को 13 लाख स्कूलों में 58 लाख शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जा रहा है. ऐसे में समझा जा सकता है कि तय समय में इस लक्ष्य को हासिल करना सरकारों के लिए तकरीबन असंभव है. इस बार भी आकलन में हमारा देश पिछड़ने वाला है और 2015 के डेडलाइन बीतने के बाद हमें एक नया डेडलाइन चुनना होगा. जबकि सर्वशिक्षा अभियान महज इनरोलमेंट बढ़ने और ड्राप आउट घटने के आंकड़ों को देखकर खुद ही अपनी पीठ थपथपा रहा है.

क्या हैं परेशानियां
मानव संसाधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक देश में इस वक्त शिक्षकों के 5 लाख पद रिक्त हैं. फिलहाल जो शिक्षक बच्चों को पढ़ा रहे हैं उनमें से 6,60 हजार शिक्षक अप्रशिक्षित हैं. ऐसे में देश के 11 फीसदी स्कूल महज एक शिक्षक के भरोसे संचालित हो रहे हैं. लिहाजा उन स्कूलों में पढ़ाई महज औपचारिकता ही साबित होती है. ऐसे में सबसे पहला काम शिक्षकों की नियुक्ति करना है. मगर राज्य सरकारें जिन्हें यह काम करना है, बहुत सक्रिय नजर नहीं आतीं. शिक्षकों की नियुक्ति के नाम पर हर राज्य में पारा शिक्षक बहाल किये जा रहे हैं. कई राज्यों में तो अप्रशिक्षित शिक्षक बहाल कर लिये गये हैं. छठे वेतन आयोग का बोझ देखकर राज्य सरकारें नियमित शिक्षक नियुक्त करने में कतराती हैं और अंतत: इसका असर शिक्षा के अभियान पर पड़ता है. सरकारी स्कूलों के गुणवत्ताहीन होने की सबसे बड़ी वजहों में से एक यह भी है.

इसके अलावा सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अभी 80 लाख बच्चे स्कूलों से बाहर हैं. जबकि जनगणना के आंकड़ों को देखा जाये तो 7 करोड़ बच्चे स्कूलों में नहीं हैं. इसकी वजह ड्राप आउट, पलायन और दूसरे कारण हैं. मगर इन बच्चों को जब तक स्कूल नहीं लाया गया. समस्या जस की तस रहेगी. बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, ओड़िशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य मौसमी पलायन के शिकार हैं. यहां बड़ी आबादी साल में छह महीने या अधिक समय के लिए पलायन करती है. ऐसे में सपरिवार पलायन करने वाले परिवारों के बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं. हालांकि इनके लिए भी कानूनी प्रावधान हैं. ये चाहें तो उन स्कूलों में भी पढ़ सकते हैं, जहां ये पलायन की अवधि के दौरान रहते हैं. मगर व्यवहारिक तौर पर यह मुमकिन हो नहीं पा रहा है.

कहां है बाधा
बाधा न तो संसाधनों को लेकर है और न ही और दूसरी. दरअसल, कमी राजनीतिक इच्छाशक्ति की है. यह सच है कि आज भी देश में कानून के मुताबिक स्कूल नहीं खुल पाये हैं और बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल से बाहर हैं. मगर यह भी देखने योग्य तथ्य है कि बजट के अभाव में भी हर साल स्कूलों में ठीक-ठाक राशि खर्च हो रही है. आज सरकारी स्कूलों में भवन भी बनने लगे हैं, उपस्कर भी हैं. मुफ्त पढ़ाई के साथ-साथ मध्याह्न भोजन, किताबें, पोषाक, खेलकूद के सामान, पुस्तकालय और दूसरी तमाम चीजों की व्यवस्था है. हर स्कूल में कम से कम एक शिक्षक तो है ही. अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति होती तो इतने संसाधनों में ही इन स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन कराया जा सकता था.

इसे इन उदाहरणों से समझ सकते हैं. झारखंड के रांची जिले के खलारी पंचायत की मुखिया तेजी किस्पोट्टा ने अपने पंचायत के स्कूलों में मध्याह्न भोजन बनाने वाली रसोइया की नियुक्ति के वक्त यह खास तौर पर ध्यान रखा कि वे कम से कम इंटर पास हों ताकि आवश्यकता पड़ने पर बच्चों को पढ़ा भी सकें. धनबाद के एक स्कूल में अभिभावकों ने उस वक्त शिक्षक किराये पर रखकर स्कूल का संचालन सुनिश्चित कराया जब सारे शिक्षक हड़ताल पर चले गये थे. इसी तरह मेघालय में राज्य सरकार ने स्कूलों का प्रबंधन समाज को सौंप दिया और उसके बेहतर नतीजे सामने आये. केरल के बाद त्रिपुरा राज्य भी शत-प्रतिशत साक्षर हो चुका है यह राजनीतिक इच्छाशक्ति का ही कमाल है. ऐसे में अगर सरकारें इस दिशा में मनोयोग से आगे बढ़ें तो यह लक्ष्य असंभव कतई नहीं है. मगर..

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