अरविंद केजरीवाल : आंदोलन से उभरा शख्स कैसे वन मैन शो बनने की राह पर बढ़ गया?
नयी दिल्ली : अन्ना हजारे के अंदोलन से राजनीतिक पार्टी की जमीन तैयार करने वाले अरविंद केजरीवाल अब उन क्षत्रप नेताओं की तरह हो गये जिनका अपनी पार्टी में एक छत्र राज है. केजरीवाल ने पिछले कुछ सालों में अपने कई अहम साथी खो दिये. सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और अब […]
नयी दिल्ली : अन्ना हजारे के अंदोलन से राजनीतिक पार्टी की जमीन तैयार करने वाले अरविंद केजरीवाल अब उन क्षत्रप नेताओं की तरह हो गये जिनका अपनी पार्टी में एक छत्र राज है. केजरीवाल ने पिछले कुछ सालों में अपने कई अहम साथी खो दिये. सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और अब विश्वास खो रहे हैं. केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के तौर पर कई काम किये होंगे लेकिन पार्टी के संयोजक के तौर पर अपनी पार्टी को समेटे रखने में असफल रहे.
पार्टी के 20 विधायकों को लाभ के पद पर बने रहने के आरोप में चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति से इन्हें अयोग्य घोषित करने की अनुसंशा कर दी. कुछ विधायकों पर आरोप लगे तो कुछ ने सीधे केजरीवाल पर आरोप-प्रत्यारोप करते हुए किनारा कर लिया. शपथ ग्रहण के बाद से ही केजरीवाल दिल्ली के अहम फैसले लेने के लिए खुद को कमजोर बताते रहे. तत्कालीन उप राज्यपाल नजीब जंग से केजरीवाल की जंग आये दिन मीडिया की सुर्खियों में रहती थी. इस खींचतान में सबसे ज्यादा नुकसान दिल्ली वालों का हुआ. जंग से जंग खत्म हुई तो पार्टी अपने ही कई फैसलों में फंसती गयी. पढ़ें कैसे आंदोलनकारी से एकक्षत्रप राजनेता बनते जा रहे हैंअरविंद केजरीवाल…
आंदोलन का वह दौर और आज के मुख्यमंत्री की तुलना
जनलोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के पीछे केजरीवाल समेत कई लोग खड़े थे. और इन सबके पीछे थे आम भारतीय. गांव-गांव में तिरंगा के साथ जनलोकपाल के समर्थन में रैलियां निकलती थी. इस आंदोलन का शोर इतना तेज था कि लोकतंत्र केपवित्र मंदिर तक इसकी आवाज गूंजने लगी थी. जनलोकपाल की मांग को लेकर एक बिलड्राफ्ट हुआ, केंद्र सरकार से मांग हुई की इन नियमों के आधार पर जनलोकपाल बने. कई राजनीतिक नेताओं ने इस मंच का इस्तेमाल करने की कोशिश की लेकिन आंदोलन इतना तेज था कि किसी नेता को इसका हिस्सा बनने से रोक दिया गया. कांग्रेस के दिग्गज नेतादिग्विजय सिंह ने बयान दे दिया कि अगर इन्हें लगता है कि इनकी मांगों के आधार पर बिल बने तो यह चुनाव लड़ें जीतें और जनलोकपाल पास कर लें. वक्त बदला केजरीवाल ने दिल्ली से चुनाव लड़ा पहली बार में पार्टी को अधूरी सफलता मिली.
आत्मविश्वास से भरे केजरीवाल ने दोबारा चुनाव का ऐलान कर दिया. पार्टी ने 2015 में विधानसभा की 70 में से 67 सीटें जीत ली. दिल्ली की जनता ने साथ दिया. केजरीवाल सत्ता में आ गये. एक ऐसा व्यक्ति सत्ता में आया जिसने आंदोलन के मंच से सरकार को ललकारा था. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर भी केजरीवाल का आंदोलनकारी अंदाजा खत्म नहीं हुआ. कभी सड़क पर उतर कर वहीं रात बिता दी तो कभी अनशन पर बैठ गये. जिस जनलोकपास को लेकर आंदोलनकारी सत्ता की कुरसी तर आ गये थे उसे पास करने पर भी बवाल मच गया. जिस लोकपाल की मांग को लेकर केजरीवाल के कई साथी लड़े उन्ही साथियों ने इसे जोकपाल बता दिया. अन्ना हजारे भी इससे खुश नहीं थे, उन्होंने आंदोलन की धमकी तक दे दी.
कैसे एक- एक कर छूटते गये साथी
आम आदमी पार्टी की पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी की बैठक में दो अहम नेताओं को जगह नहीं मिली. मीडिया में कई दिनों से अनबन की खबरें आ रही थी. कुछ पत्र सार्वजनिक हुए. अचानक पार्टी के दो मजबूत पिलर प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को पार्टी से बाहर कर दिया गया. खबरें आयी कि कुछ लोग अरविंद केजरीवाल के दो पदों पर बने रहने को लेकर सवाल खड़े कर रहे थे. पार्टी के सबसे मजबूत नेता को यह बात पसंद नहीं है. पीएसी ने इन दोनों को बाहर निकालने का फैसला कर लिया.
बड़ी सफलता के लिए यह आवश्यक होता है कि आप वैचारिक रूप से असहमति वाले लोगों को भी साथ लेकर चल सकें.योगेंद्र यादव व प्रशांतभूषणकेजाने के बाद इस मामले में केजरीवाल विफल दिखे. भाजपा व कांग्रेस के राष्ट्रीय पार्टी होने का एक कारण यह भी है कि वहां तमाम वैचारिक असहमतियों व मतभेदों के बावजूद लोग एक साझा उद्देश्य के लिए एक शख्स के नेतृत्व में काम करते हैं. वहीं, 90 में उभार वाला समाजवादी धड़ा अपनी असहमतियों के कारण बिखरता गया और उनका राजनीतिक आभामंडल भी कम हो गया. ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी भी इसी राह पर चल पड़ी है. उसने दिल्ली के बाद पंजाब को छोड़ कर कहीं उल्लेखनीय छाप नहीं छोड़ी है.
बहरहाल, इस फैसले के बाद पार्टी के अंदर विद्रोह की आवाज उठी साजिया इल्मी, कपिल मिश्रा समेत कई लोग पार्टी से अलग हुए. किरण बेदी आंदोलन का हिस्सा रहीं लेकिन पार्टी का हिस्सा नहीं बनीं. राज्यसभा की सीट के लिए जब उम्मीदवारों का चयन हुआ तो पार्टी का विश्वास डगमगा गया. खुले मंच पर कई बार कुमार विश्वास ने राज्यसभा जाने के सवालों का जवाब दिया था. उनके बयान से साफ लगता था कि वह पार्टी की तरफ से राज्यसभा जाना चाहते हैं. पार्टी ने जब तीन नामों का फैसला लिया उसमें पार्टी के नेता संजय सिंह, कारोबारी एनडी गुप्ता और सुशील गुप्ता का नाम शामिल था. केजरीवाल ने इस लिस्ट से कुमार विश्वास को बाहर कर दिया. पार्टी पर विश्वास का विश्वास मोटे तौर पर अब भी कायम है. उन्होंने पार्टी से दूरी नहीं बनायी और ना ही आधिकारिक तौर पर कोई ऐलान किया लेकिन इस फैसले के बाद विश्वास का दर्द उनकी कविताओं में भी नजर आता है और वे रह-रह कर सवाल उठा देते हैं.
दिल्ली की उम्मीदों पर कितनी खरी है ‘आप’ सरकार
दिल्ली सरकार तीन साल के कामकाज पर अपनी पीठ थपथपा रही है. केजरीवाल ने कहा, जो पिछले 70 सालों में नहीं हुआ हमारी सरकार ने तीन सालों में कर दिखाया. सस्ती बिजली, मुफ्त पानी, प्रदूषण को लेकर चलाया गया ऑर्ड- इवन का फार्मूला, मोहल्ला क्लीनिक हेल्थ स्कीम, सरकारी स्कूलों में बेहतर शिक्षा व्यवस्था दी है. सरकार इन्हें सामने रखकर अपनी उपलब्धियां गिना रही है. दूसरी तरफ कांग्रेस-भाजपा समेत विरोधी पार्टियां केजरीवाल सरकार के उन वादों की याद दिला रही है जिसे सरकार पूरा नहीं कर सकी. दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने एक एक करके कई चीजें गिनायी है. डीटीसी और कलस्टर बसों में न तो सीसीटीवी और न ही कोई मार्शल की व्यवस्था हो पाई, कैबिनेट में कोई महिला मंत्री नहीं
दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड ने अभी तक महज 29 फीसदी टॉयलेट का निर्माण कराया यानी कि 384. जबकि लक्ष्य 1314 का था. महिला सशक्तिकरण के लिए कांग्रेस की प्रमुख योजना जीआरसी यानी लिंग संसाधन केंद्र और महिला हेल्पलाइन नंबर 181 को निष्क्रिय कर दिया है. दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने कहा, सरकार विज्ञापन की सरकार है… भ्रम पैदा करने की मास्टरी है. केजरीवाल सरकार की असफलता के कारण 3 साल में 30 साल पीछे हो गई है दिल्ली.