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‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” अभियान साबित हो सकता है ‘एक तीर से तीन शिकार” : यूनिसेफ

नयी दिल्ली : भारत द्वारा वर्ष 2017 में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग में बच्चों की मृत्युदर में गिरावट विश्व औसत से कहीं अधिक रहने की यूनिसेफ के एक विशेषज्ञ ने सराहना करते हुए कहा है कि देश को अब नवजात शिशु मृत्यु दर की गिरावट में भी यही उपलब्धि हासिल करनी होगी. इसमें […]


नयी दिल्ली :
भारत द्वारा वर्ष 2017 में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग में बच्चों की मृत्युदर में गिरावट विश्व औसत से कहीं अधिक रहने की यूनिसेफ के एक विशेषज्ञ ने सराहना करते हुए कहा है कि देश को अब नवजात शिशु मृत्यु दर की गिरावट में भी यही उपलब्धि हासिल करनी होगी. इसमें ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ अभियान ‘‘एक तीर से तीन शिकार ” साबित हो सकता है.

यूनिसेफ के भारतीय कार्यालय से जुड़े स्वास्थ्य प्रमुख डॉ.गगन गुप्ता ने हाल में इस संस्था की एक रिपोर्ट की चर्चा करते हुए कहा कि भारत की प्रगति काफी अच्छी है. उन्होंने बातचीत में कहा 1990 से 2015 में भारत ने पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर में 66 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की. इसमें भारत के लिए 66.5 प्रतिशत का लक्ष्य निर्धारित किया गया था. वैश्विक स्तर पर इसमें 55 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है.

डा. गुप्ता ने कहा कि वर्ष 2016 में पांच साल के कम आयु वर्ग में 2015 की तुलना में करीब एक लाख 20 हजार बच्चों की कम मृत्यु हुई है. उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए खुशी की बात तो हो सकती है किंतु यह पूरी तरह राहत देने वाली बात नहीं है. हमारी चिंता के दो अन्य विषय हैं. पहला नवजात बच्चों की मृत्युदर में जो कमी आनी चाहिए, वह हम संतोषजनक ढंग से हासिल नहीं कर पा रहे. इसमें 55 प्रतिशत की दर से गिरावट आयी है जबकि पांच साल तक के आयु वर्ग में यह गिरावट 65 प्रतिशत दर्ज की गयी.

उन्होंने कहा कि ध्यान देने का दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र बच्चियां हैं. हमें बच्चियों को जीवित रखने और उनके स्वास्थ्य देखभाल पर बहुत अधिक ध्यान देना होगा. भारत में पांच साल तक के आयु वर्ग में लड़कों की तुलना में लड़कियों के मरने की दर 11 प्रतिशत अधिक है. उन्होंने कहा कि भारत का यह रूख विश्व रूख के विपरीत है. विश्व भर में इस आयु वर्ग में लड़कियों की तुलना में लड़कों के मरने की दर अधिक रहती है. उन्होंने कहा कि दुनिया भर में यह माना जाता है कि लड़कों की तुलना में बच्चियों की जीवनशक्ति अधिक होती है.

किंतु हमारे यहां बच्चियों के साथ सामाजिक भेदभाव किया जाता है. उनके स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखा जाता, समय पर टीके नहीं लगवाये जाते. इन सबसे बच्चियों का कुदरती रूप से मजबूत होने के पक्ष को निष्प्रभावी बना दिया जाता है. जन्म के बाद 28 दिनों के भीतर कोई बच्चा जीवित नहीं बच पाता है तो उसे नवजात मृत्यु में शामिल किया जाता है. डॉ गुप्ता ने कहा कि यदि हमें पांच साल की आयु वर्ग तक के बच्चों के मरने की दर को कम करना है तो हमें सबसे अधिक ध्यान बच्चे के जन्म लेने के बाद के चार सप्ताहों पर देना होगा. बच्चे के मरने का जोखिम सबसे अधिक पहले दिन, फिर पहले सप्ताह और फिर पहले महीने तक होता है.

उन्होंने बच्चियों के मृत्युदर को घटाने के उपायों की चर्चा करते हुए कहा कि जिला अस्पतालों में नवजात शिशु सघन चिकित्सा इकाइयां होती हैं जहां नि:शुल्क सेवा दी जाती है. इन इकाइयों में वर्ष 2017 में लड़कों की तुलना में डेढ़ लाख कम लड़कियों को भर्ती कराया गया. यह बताता है कि लोग लड़कियों को इलाज के लिए कम लाते हैं. यदि लड़कियां एक बार इन केंद्रों पर आ जाये तो उनकी जीवन प्रत्याश बढ़ जाती है.

उन्होंने कहा कि ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ अभियान का गहरा अर्थ है. बच्चों की मृत्यु का उनकी मां के शिक्षित होने से बहुत गहरा नाता है. यदि मां बिल्कुल अशिक्षित है तो उसके बच्चे के मरने का जोखिम 2.71 प्रतिशत अधिक होता है. मां के शिक्षित होने का असर टीकाकरण, संस्थागत प्रसव आदि उपायों पर भी स्पष्ट देखने को मिलता है. तो यह बात वैज्ञानिक रूप से बिल्कुल सही है कि बेटी पढ़ेगी तो बेटी बचेगी और बेटी बचेगी तो बेटी पढ़ेगी.

उन्होंने कहा कि बच्चियों को बचाने के लिए तीन बातें महत्वपूर्ण हैं, पढ़ाई पर ध्यान दें, स्वास्थ्य पर ध्यान दें और जन्म के एक माह की अवधि पर सबसे ज्यादा ध्यान दें. उन्होंने कहा कि बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान ‘एक तीर से तीन शिकार’ हासिल करने के समान साबित होगा. डॉ गुप्ता ने कहा कि यदि नवजात बच्चे को प्रसव के एक घंटे के भीतर मां का दूध मिल जाये तो उसके मृत्यु की आशंका 22 प्रतिशत कम हो जाती है.

उन्होंने कहा कि देश में आज 10 में से आठ महिलाओं का संस्थागत प्रसव हो रहा है किंतु 10 में मात्र चार महिलाएं ही अपने बच्चों को प्रसव के एक घंटे के भीतर अपना दूध पिला पाती हैं. एक घंटे के भीतर नवजात को दूध नहीं पिला पाने के कारणों में सिजेरियन प्रसव, मां को एक घंटे के भीतर दूध पिलाने का महत्व नहीं मालूम होना, प्रसव कराने वाली कर्मी के कहीं और व्यस्त हो जाने, कुछ सामाजिक रूढ़ियां जैसे घुट्टी आदि पिलाना हैं. एक और विचित्र बात है. बाकी सारे मुद्दे ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक हैं. किंतु नवजात को एक घंटे के भीतर मां का दूध नहीं मिल पाने के मामले शहरी क्षेत्रों में अधिक हो रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ ने इसी सप्ताह ‘एवरी चाइल्ड अलाइव’ (द अर्जेंट नीड टू ऐंड न्यूबॉर्न डैथ्स) शीर्षक से जारी एक रिपोर्ट में भारत समेत दस देशों में नवजात बच्चों को जीवित रखने के लिए सर्वाधिक ध्यान देने की जरूरत बतायी है.

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