मनमोहन सिंह यानी दुविधा के दस साल
मनमोहन सिंह अपने किसी कौशल से प्रधानमंत्री नहीं बने थे. वे सोनिया गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे. पर यूपीए-1 के कार्यकाल में उनकी छवि अपेक्षाकृत बेहतर थी. उनकी सरकार पर सहयोगी वाम मोर्चा लगातार हमले करता रहता था, पर वे झुके नहीं. अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के बाद उनकी साख भी बढ़ी. […]
मनमोहन सिंह अपने किसी कौशल से प्रधानमंत्री नहीं बने थे. वे सोनिया गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे. पर यूपीए-1 के कार्यकाल में उनकी छवि अपेक्षाकृत बेहतर थी. उनकी सरकार पर सहयोगी वाम मोर्चा लगातार हमले करता रहता था, पर वे झुके नहीं. अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के बाद उनकी साख भी बढ़ी.
सरकार का यह आखिरी हफ्ता है. भविष्य का पता नहीं, पर इतना तय है कि मनमोहन सिंह अब प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे. पिछले हफ्ते सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की आखिरी बैठक हुई तो मीडिया के लिए बड़ी खबर नहीं थी. दिल्ली में यूपीए की सरकार बनेगी या नहीं कहना मुश्किल है, पर फिलहाल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी नहीं होगी. होगी तो शायद किसी नए नाम और किसी नए एजेंडा के साथ होगी. प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह और उनके समानांतर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का होना कांग्रेसी दुविधा को रेखांकित करता है. बेशक मनमोहन सिंह को एक भले, शिष्ट, सौम्य और ईमानदार व्यक्ति के रूप में याद रखा जाएगा. पर सच यह है कि यूपीए सरकार के सारे अलोकिप्रय कार्यों का ठीकरा उनके सिर फूटा है.
मनमोहन सिंह देश के तेरहवें और कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर से आए तीसरे प्रधानमंत्री हैं. मनमोहन सिंह का कार्यकाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद तीसरे नम्बर पर रहा. उनमें जरूर कोई विशेषता थी कि इतने लम्बे समय तक उन्होंने देश का नेतृत्व किया. यह विशेषता है उनका ढाल बने रहना.
लम्बी जद्दोजेहद के बाद 22 मई 2004 को मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. और 4 जून को सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन हुआ. यह पार्टी का फोरम नहीं था बल्कि भारत सरकार ने इसे बनाया था. पर इसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं, जिससे इसकी राजनीतिक शक्ल जाहिर थी. चूंकि यह परिषद प्रधानमंत्री को सलाह देने के लिए बनी थी इसलिए प्रधानमंत्री इसके सदस्य नहीं थे. पिछली छह मई को हुई इसकी फेयरवेल मीटिंग में प्रधानमंत्री भी शामिल थे. शिक्षा का अधिकार, आरटीआई, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण कानूनों का श्रेय इसे जाता है. व्यावहारिक सच यह है कि इनमें से अधिकारों को लागू करने के पहले सरकार और पार्टी के बीच मतभेद रहा. पर यह संस्था पार्टी की नहीं, सरकार का अंग थी.
इस साल 3 जनवरी को जब मनमोहन सिंह ने संवाददाता सम्मेलन बुलाया तो एकबारगी लगा कि शायद वे अपने बारे में कोई सफाई देंगे. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने यह साफ किया कि मैं तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का इच्छुक नहीं हूं. प्रधानमंत्री ने अपने दस साल के कार्यकाल की उपलब्धियों का जिक्र किया, पर हमेशा की तरह सारी बहस उनके नेतृत्व पर उठे सवालों तक सिमट गई. उन्होंने यूपीए-2 की विफलताओं के जो कारण गिनाए उनसे सामान्य व्यक्ति की सहमति नहीं थी.
उनके शासन के दौरान हमेशा यह लगता रहा कि वे कुछ छिपा रहे हैं. पिछले साल विधानसभा चुनाव में दिल्ली और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों की पराजय स्थानीय कारण से नहीं हुई, बल्कि केंद्र सरकार की छवि के कारण हुई. केंद्र सरकार पर ‘पॉलिसी पैरलिसिस’ का आरोप किसी बाहरी ने नहीं प्रधानमंत्री के सलाहकार कौशिक बसु ने लगाया था. पर मनमोहन सिंह ने इस बात की सफाई देने की कोशिश कभी नहीं की. बल्कि उन्होंने कहा कि सत्ता के दो केंद्रों का प्रयोग सफल रहा. आम धारणा इसके विपरीत है. पिछले साल सितम्बर में राहुल गांधी ने जब दागी सांसदों को जीवनदान देने वाले अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देने की बात की, उससे मनमोहन सिंह की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा था. पर वे इस बात को खामोशी से सहन कर गए. इन सब बातों के कारण धीरे-धीरे उनकी मिस्टर क्लीन की छवि के स्थान पर ‘निष्क्रि य और दब्बू’ होने का दाग गाढ़ा होता गया. उन्हें अपनी सादगी को तारीफ नहीं मिली. इसे मीडिया की साजिश नहीं कह सकते. उन्होंने मीडिया के साथ संवाद किया ही नहीं. अलबत्ता 3 जनवरी के संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने यह जरूर कहा कि मेरा आकलन इतिहास हमदर्दी के साथ करेगा. सवाल है क्या उनकी विदाई के बाद अब इतिहास उन्हें लेकर जागेगा?
दो साल पहले वॉशिंगटन पोस्ट ने मनमोहन सिंह के बारे में आम भारतीय नागरिक के दृष्टिकोण को पेश करने की कोशिश की थी. उसके अनुसार घोटालों ने मनमोहन सिंह की छवि को सबसे ज्यादा धक्का पहुंचाया. अखबार ने लिखा कि एक विनम्र और बुद्धिमान मनमोहन की जगह निष्प्रभावी ब्यूरोक्रेट ने ले ली जो गहराई तक भ्रष्ट सरकार के सिंहासन पर बैठा है. इसके पहले ‘टाइम’ ने अंडर अचीवर बताकर उनकी आलोचना की थी.
मनमोहन सिंह अपने किसी कौशल से प्रधानमंत्री नहीं बने थे. वे सोनिया गांधी की कृपा से प्रधानमंत्री बने थे. पर यूपीए-1 के कार्यकाल में उनकी छवि अपेक्षाकृत बेहतर थी. उनकी सरकार पर सहयोगी वाममोर्चा लगातार हमले करता रहता था, पर वे झुके नहीं. सन 2008 में अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के बाद उनकी साख भी बढ़ी. उनके पूर्व सलाहकार संजय बारू की तमाम बातों से असहमत हुआ जा सकता है, पर इस बात पर विश्वास होता है कि उन्हें सन 2009 में चुनाव लड़ने की सलाह दी गई थी. शायद वे चुनाव लड़कर एक बड़े नेता के रूप में सामने आ सकते थे.
वे पंजाब की किसी सीट से चुनाव लड़ते तो अकाली दल तक उनकी मदद में आता. पर उस चुनाव की विजय का श्रेय उन्हें न मिलकर राहुल गांधी को मिला. सन 2009 की विजय के बाद मनमोहन सिंह की छवि लगातार गिरती ही गई. पर उन्होंने अपने पक्ष को रखने की कोशिश कभी नहीं की. वे कभी गठबंधन धर्म को कोसते रहे, कभी आरटीआई को, कभी सीएजी को और कभी अदालतों को. इन बातों से वे खुद को असहाय और कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में साबित करते गए. दस साल के यूपीए शासन में कुछ अच्छा हुआ भी है तो उसके श्रेय से वे वंचित रहेंगे. या हम इंतज़ार करें इतिहास का जो उनकी उपलिब्धयों पर रोशनी डाले.
प्रमोद जोशी