अलविदा चुनाव बहुत याद आओगे अगले पांच सालों तक
तकरीबन एक साल से पूरा देश चुनावी बहस में डूबा रहा और सितंबर, 2013 से तो देश में चुनाव और राजनीति को छोड़ कर दूसरी कोई बहस ही नहीं हो रही थी. फेसबुक से लेकर कर चौक बाजार के नुक्कड़ों, बसों, रेलों, दफ्तरों और शादी समारोहों से लेकर दूसरे आयोजनों तक जहां चार लोग जुटते […]
तकरीबन एक साल से पूरा देश चुनावी बहस में डूबा रहा और सितंबर, 2013 से तो देश में चुनाव और राजनीति को छोड़ कर दूसरी कोई बहस ही नहीं हो रही थी. फेसबुक से लेकर कर चौक बाजार के नुक्कड़ों, बसों, रेलों, दफ्तरों और शादी समारोहों से लेकर दूसरे आयोजनों तक जहां चार लोग जुटते थे एक ही बहस होती.
किसकी सरकार बन रही है, कौन पार्टी सही है और कौन गलत है. वैसे तो ऐसी बहसें हर चुनाव में हुआ करती थीं, मगर इस बार मीडिया और सोशल मीडिया की सक्रियता की बदौलत यह इतना सघन हुआ कि कई दफा लगा लोग इसके बारे में कोई बात ही नहीं कर पा रहे हैं. अब जबकि चुनाव बीत चुके हैं और नतीजे भी आ गये हैं, ऐसे में उन दिनों को याद करते हुए ब्लॉगर शेफाली पांडे ने यह अनूठा व्यंग्य लिखा है.
यूं लग रहा है जैसे शरीर से प्राण अलग हो गए हों जैसे किसी की मेहनत से बसी-बसाई दुनिया अचानक से उजड़ गयी हो जैसे आसमान मे एकाएक घटाटोप अँधेरा छा गया हो, जैसे बसंत के खत्म होने से पहले ही पतझड़ आ गया हो. हर तरफ सूनापन दिखाई दे रहा है. और हो भी क्यों न? देशवासियों को लोकतंत्र के इन तमाशों और तमाशबीनों के लिये अब फिर से पांच साल का इंतज़ार जो करना होगा .
इन दिनों सोशल साइट्स की छटा सबसे निराली रही. विद्वजनों का यह भी मानना था कि यह चुनाव अगर फेसबुक पर लड़ा जाता तो कबका निपट गया होता. पता नहीं क्यों इस चुनाव पर इतना धन-बल लुटाया गया. उन दिनों उनके समर्थकों का एक गिरोह हर समय सक्रि य रहता था. दिन हो या रात, यह गिरोह हर समय जागता रहता था. किसी ने कोई स्टेटस पोस्ट किया नहीं, बिना एक भी सेकेण्ड गंवाए ये जांबाज़ गुरिल्ले अपना नेता के समर्थन वाला लेख पेस्ट कर देते थे. ये इतने हिम्मती थे कि किसी के भी मेसेज बॉक्स में भी घुस जाया करते थे. कविता पोस्ट करो या कहानी, एक भी टिप्पणी नहीं मिले तब भी इनकी टिप्पणी हमेशा तैयार रहती थी, जिसमें ये वोट देने की अपील करते थे. रोज़ाना हज़ारों नए फेसबुक अकाउंट खुल रहे थे. एक दिन में सैकड़ों फ्रेंड रिक्वेस्ट आतीं थीं. इनमें से आधों के चेहरों पर अपने नेता जी की शक्ल दिखतीं थीं और आधे रिक्वेस्ट के स्वीकार करते ही फौरन मैसेज बॉक्स में प्रकट हो जाते थे. फेसबुक विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम न रहकर इन बेचारो की अंधभक्ति का माध्यम बन चुका था.
इन दिनों अच्छा-खासा सामान्य इंसान भी असामान्य किस्म का व्यवहार करते हुए पाए जा रहा था. हर चर्चा में वह चुनावी चर्चा को कहीं न कहीं से ले आता था. शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु, नामकरण, सगाई हो या अन्य कोई अवसर हो, चाहे कहीं सफर कर रहे हों, या किसी प्रकार की लाइन में लगे हों, सब जगह एक ही चर्चा चला करती थी. नेताओं के अंधभक्त कहीं भी, किसी भी दिशा से प्रकट हो जाते थे. गली, कुञ्ज, सड़क, पान की दुकान, चाट के ठेले, उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम, आकाश, पाताल कहीं से भी प्रकट हो जाते थे.
इन दिनों सबसे प्रसन्न कोई देश था तो वह था पाकिस्तान. भारत से अलग हो जाने के बाद शायद यह उसकी पहली खुशी थी. वैसे सामान्य दिनों में लोग भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर नेहरू और गांधी जी की नीतियों को दोषी ठहराया करते थे. परन्तु इन दिनों पाकिस्तान के अलग राष्ट्र होने से सभी पार्टियों को बहुत सुविधा हुई थी. भारत से •यादा इन दिनों पाकिस्तान जैसे हमारे दिल में बस गया था. उनको वोट नहीं देने वाले को पाकिस्तान चले जाने को कहा जाता था. जो उनको टक्कर देने की सोचे वह पाकिस्तान का एजेंट कहलाता था. उनके खिलाफ बोलने वालों के लिये कह जाता था कि उन्हें पाकिस्तान पैसा दे रहा है. पाकिस्तान जब-जब यह सुनता, इन चुनावों को धन्यवाद देता कि धन्य भाग मेरे, जो मुझ पर भारत वाले इतना भरोसा कर रहे हैं, इतना भरोसा मेरे देश वाले मुझ पर करते होते तो कितना अच्छा होता. इस चुनाव मे ऐसी हवा बह रही थी कि हर कोई अपने विरोधियों को देशद्रोही ठहराने को बेकरार हुआ जा रहा था.
इन दिनों बस एक ही शहर चर्चा मे था. वह भाग्यशाली शहर था बनारस. भारत इतनी जनसंख्या शायद इसलिये ङोल जाता है क्यूंकि उसके चार नाम हैं. बनारस के भी तीन नाम इसलिये पड़े होंगे जिससे कि वह चुनावों के दौरान देश-विदेश से आने आने वाली भारी भीड़ को ङोल जाए. शहर में पत्रकार, नेता, समर्थक, पर्यटक तो थे ही, सबसे •यादा भीड़ तमाशाइयों की थी. बनारस के नाम से ऐसा रस टपकता था कि जिसका स्वाद लेने के लिये देश-विदेश से लोग टूटे पड़ रहे थे. महीनों तक गाड़ियों में रिज़र्वेशन नहीं मिल रहा था. चारों धाम बनारस से रश्क खाने लगे थे. इतनी भीड़ किसी तीर्थ नगरी मे नहीं उमड़ रही थी जितनी कि बनारस में. इस भीड़- भाड़ से बचने के लिये शहर के अधिकांश वोटर शहर से बाहर घूमने या अपने रिशतेदारों के घर चले गये थे. जो शहर में रह गए थे वे वोटर नहीं थे लेकिन दुनिया को वोटर होने का आभास दे रहे थे. पलक झपकते ही हर पार्टी के समर्थन मे उतनी ही भीड़ जुट जाती थी. आदमी अब आदमी नहीं बल्किभीड़ या कहें कि भे में बदल चुका था जिसे हरा पत्ता दिखा कर जहाँ चाहे हांका जा सकता था.
इन अति व्यस्त दिनों में हम लोग सपरिवार सारे पार्टियों की रैलियों में जाते थे. रैलियों में जाने के पैसे मिलती थे और खाना भी मिलता था. ये कान के सोने के टॉप्स मैंने इन्हीं रैलियों मे जाकर जोडें हैं. कभी-कभी एक ही दिन में चार-चार रैलियां हो जाती थीं, तब खासी मुश्किल का सामना करना पडता था. लेकिन हम भागते-दौड़ते सभी जगह पहुँच ही जाते थे. हम ही क्योंकि हमारे सारे पड़ोसी, रिश्तेदार और जान-पहचान वाले ऐसा ही किया करते थे. नेता भीड़ देखकर खुश हो जाते थे. सभी यह सोचते थे कि हमारा वोट उन्हें ही पड़ रहा है. किसी-किसी साल हम लोग उन रैलियों से मिले पैसों को इकट्ठा करके मतदान वाले दिन पिकनिक मनाने भीड़-भाड़ से बोर होकर कहीं दूर चले जाया करते थे और वापस आकर अपनी-अपनी उँगलियों पर नील से निशान बनाकर फेसबुक पर फोटो अपलोड कर देते थे.
यह समय गहन राज़ों के फाश होने का भी था. माननीयों के नित नए रूप सामने आ रहे थे. लोग टीवी के सीरियलों बजाय मनोरंजन के लिये समाचार चैनलों का सहारा ले रहे थे. बालिका वधू हो या कपिल का कॉमेडी शो, सबकी टीआरपी समाचार चैनलों के मुकाबले औंधे मुंह गिर गयी थी. हम रोज़ उनके मुंह से हज़ारों करोड़ की बातें सुन रहे थे. आज से पहले इन आंकड़ों को हम इन्हीं सीरियलों में सुनते आए थे. टेलीविज़न के नकली मेकअप से पुते हुए कलाकारों के स्थान पर असल जिंदगी के कलाकारों की पूछ बढ़ गयी थी. लोगों की दिलचस्पी अठासी साल की उम्र मे पिता फिर दूल्हा बन रहे तिवारी जी, अढसठ की उम्र मे शादी का ऐलान करते दिलविजय सिँह, बचपन के रिश्ते को स्वीकार करते गोदी दी जी पर केंद्रित हो गयी थी.
दिन क्या थे, बिल्कुल सोने के से थे. हमें स्कूल से घर आने के लिये आसानी से लिफ्ट मिल जाया करती थी. हर लिफ्ट देने वाला गाड़ी में बैठाने के पाँच मिनट के अन्दर अन्दर यह सुनिश्चित कर लेता था कि हमारा वोट सिर्फ उनके नेता को जाना चाहिए. इस चुनाव से पहले ऐसा नहीं होता था. तब लिफ्ट देने वाला जैसे ही यह जान जाता था कि हम सरकारी टीचर हैं वैसे ही बात का रु ख हमारी तनखाह और हमारे सरकारी नौकरी के मज़े पर मोड़ देता था और रोज़ के किराये से •यादा पैसा वसूल किया करता था.
इन दिनों बीमार लोगों ने भी अपनी अपनी बीमारियों की चर्चा वोटिंग काल तक स्थगित कर दी थी. किसी बीमार का हाल पूछने जाओ तो वह भी यही कहता था किसकी सरकार बनाने जा रहे हो? मानो सरकार बनाना आम आदमी के हाथ में हो. बीमार अपने ब्लडप्रेशर, शुगर और दवाइयों की चिन्ता के बजाय सरकार के गठन की चिन्ता में घिरे हुए पाए जाते. इस काल में बीमारों ने स्वयं को काफी बेहतर महसूस किया, और डॉक्टरों के क्लीनिकों मे मंदी की मार छाई रही. घरवाले शुक्र मनाते और प्रार्थना करते काश, कुछ दिन और गुज़ारते ये चुनाव में.
बीते कुछ महीनों को निश्चित रूप से भारत के स्वर्णकाल की संज्ञा दी जा सकती है. यूँ लगता था जैसे इस विशाल देश में अब कोई समस्या हीं नहीं रही. जनता अपने समस्त दु:ख-दर्द भूल चुकी थी. हर जगह चुनाव, चुनावी गणित, जातियों के समीकरण, सीटों के पूर्वानुमान, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण, हिन्दुओं के वोटों का बंटवारा, निर्दलीयों का रु ख, आम आदमी का रूझान, आप पार्टी को गालियाँ, बस यही सुनायी पड़ता था.
इन चुनावों के दौरान अम्बानी को अडानी साथ मिला. अभी तक भारत के लोगों को टाटा के साथ बिरला कहने मे सुविधा होती थी लेकिन उनके साथ अम्बानी कहने में अच्छा तुक नहीं बैठता था. अब अम्बानी के साथ अडानी बोलने मे जनता को बड़ी सुविधा हो गई. रामायण में रोज़ एक नया अध्याय जुड रहा था. किसने किसको कितने रुपये फुट के हिसाब से कहाँ कहाँ ज़मीन बेची है, हमें पता चल रहा था. अगर ये चुनाव नहीं होते तो हम जानकारी के लिहाज़ से कितने पिछड़े रह जाते. किस-किसके रिश्तों की डोर कहां कहां उलझीं हुई है, जैसी राष्ट्रहित के लिए अति महत्वपूर्ण जानकारियां हमें इसी दौरान प्राप्त हुईं.
हमने यह भी घर बैठे-बैठे ही जाना कि किसके शासनकाल में कहाँ-कहाँ और कितने दंगे हुए और उन दंगों के पीछे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से किसका हाथ था. हमें यह भी पता चला कि कई विदेशी मुल्क, जिन्हें हम अपना जानी दुश्मन समझते हैं, वे भारत से बेहद प्यार करते हैं. कई विदेशी फाउंडेशन भी भारत के चुनावों में बहुत रुचि लेते हैं और इस महापर्व में अपना पैसा लगा कर पुण्य बटोरते हैं. किस समाचार चैनल में किस उद्योगपति का कितना पैसा लगा है, यह बताने वाले हमें इसी चुनाव के दौरान मिले.
इन दिनों जो नारे लगते थे, उनके भी एक अलग ही सुर था, अलग ही ताल थी. हमें दिन में कई बार कहा जाता था, अच्छे दिन आने वाले हैं. हमने कई दिनों तक इंतज़ार किया अच्छे दिनों का. अलबत्ता उनके अच्छे दिन ज़रूर आ गए. दूसरी पार्टी वालों का नारा था-कट्टर सोच नहीं, युवा जोश. इसमें मुश्किल यह थी की जिस चेहरे को बार-बार दिखाया जाता था, अंत तक उसे जनता किसी भी हालत में युवा मानने को तैयार ही नहीं हुई.
बहुत याद आएंगी वो चाय की चौपालें, जिनमें आने वालों को सुबह से शाम तक वही चायपत्ती उबाल-उबाल कर ही सही, चाय पिलाई तो जाती थी .
याद आएँगे वे अंडे, टमाटर, स्याही, जो उछाले जाते थे खास पार्टी वालों पर जो मन ही मन खुश हो रहे थे कि इतनी जल्दी यह नौबत आ गयी, वरना तो सालों साल लग जाते हैं ढंग के विरोधी बनने और बनाने में.
इस चुनाव की बहुत याद आएगी. इसकी ज़ुबानी जंग की, आरोपों, प्रत्यारोपों की, वार, पलटवारों की. एक दूसरे को बस माँ-बहन की गालियां ही सरेआम नहीं दी जा रहीं थीं, बाकी सारे अपशब्दों का प्रयोग धडल्ले से हो रहा था.
यह चुनाव कभी भुलाया नहीं जा सकेगा मीडिया की रोचक रिपोर्टिंग के लिए जिसके कारण मुङो अपने कॉलेज के दिनों के चुनावों की याद ताज़ा हो आई. हमारे कॉलेज में छात्रसंघ के लिए मतदान वाले दिन, जब मतदान शुरू हुए पाँच भी नहीं बीते होते थे, नेताओं के समर्थक झुण्ड बनाकर हर बूथ ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते थे, फलाने-फलाने दस हज़ार वोटों से आगे. तब कॉलेज में पांच हज़ार विद्यार्थी भी नहीं होते थे.
(उनके ब्लॉग कुमाउंनी चेली से साभार)