नयी दिल्ली : उस बच्ची के लिये बंटवारे का दर्द कैसा होगा जिसके पिता एक हिंदू और मां मुस्लिम हो? सिर्फ 12 साल की उम्र में अपनी डायरी में उसने अपनी मां के लिये खत लिखे जो इस बात के जीवंत प्रमाण हैं कि उस दौर में उसके दिलो-दिमाग में क्या चल रहा था. अपने 12वें जन्मदिन पर निशा को एक डायरी उपहार में मिली. उसमें उसने अपने विचार दर्ज किये. आज जब वह उन्हें पढ़ती है तो उसे लगता है कि वह कभी खुल कर उन विचारों को दूसरों से नहीं कह सकती थी.
इस दौर में सिर्फ निशा ही नहीं बदल रही थी. हालात भी तेजी से बदल रहे थे. देश इतना बदल गया है कि वह उसे नहीं पहचान पाती. यह 1947 का साल था. हिंदुस्तान का बंटवारा हो गया था. हिंदू, मुस्लिम और सिखों के बीच हिंसा फैल रही थी. लोग एक देश से दूसरे देश जा रहे थे और वहां मची मार-काट में ढेर सारे लोग मारे जा रहे थे.
निशा नहीं जानती थी कि वह सरहद की किस तरफ रहेगी. उसकी मां उसे जन्म देने के बाद मर गयी थी. मां को खोने के बाद वह मातृभूमि खोने के बारे में सोच नहीं सकती थी. उसकी मां मुस्लिम थीं, लेकिन वह इस दुनिया से जा चुकी थी. उसके पिता हिंदू थे. उन्होंने कहा कि उनके लिये अब पाकिस्तान में रहना सुरक्षित नहीं है. और इस तरह निशा और उसके परिवार ने शरणार्थी बनकर सीमा के दूसरी तरफ जाने के लिये ट्रेन से और पैदल खतरनाक यात्रा शुरू की.
निशा ने अपनी मां के लिये डायरी में लिखे खत के जरिये जो बातें लिखी थीं, पेंग्विन ने उन्हें ‘द नाइट डायरी’ की शक्ल में प्रकाशित की है. यह इतिहास के बेहद नाटकीय लम्हों और एक घर, अपनी पहचान और उम्मीदों भरे भविष्य की एक लड़की की कहानी है. लेखिका वीरा हीरानंदानी के मुताबिक, ‘इस उपन्यास में निरूपित काल्पनिक परिवार और उनके अनुभव मोटे तौर पर मेरे पिता के परिवार के पक्ष पर आधारित है.’
हीरानंदानी के पिता को इस किताब के किरदार निशा की तरह अपने माता पिता और रिश्तेदारों के साथ मीरपुर खास से सीमा पार कर जोधपुर आना पड़ा.