अटल-आडवाणी की जोड़ी भाजपा को कांग्रेस विरोधी राजनीति से आगे राष्ट्रीय फलक के केंद्र में लायी

नयी दिल्ली : अटल बिहारी वाजपेयी को अक्सर ही भाजपा का मुखौटा कहा जाता था, जिन्हें उनकी पार्टी बाहरी जगत के लिए एक सर्व-स्वीकार्य चेहरे के रूप में पेश किया करती थी. और यदि ऐसा था तो इसके पीछे असल में लाल कृष्ण आडवाणी थे, जो हिंदुत्व के मूल जन नायक थे. अटल और आडवाणी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 17, 2018 10:59 PM

नयी दिल्ली : अटल बिहारी वाजपेयी को अक्सर ही भाजपा का मुखौटा कहा जाता था, जिन्हें उनकी पार्टी बाहरी जगत के लिए एक सर्व-स्वीकार्य चेहरे के रूप में पेश किया करती थी. और यदि ऐसा था तो इसके पीछे असल में लाल कृष्ण आडवाणी थे, जो हिंदुत्व के मूल जन नायक थे.

अटल और आडवाणी की जोड़ी भाजपा को कांग्रेस विरोधी राजनीति से निकाल कर राष्ट्रीय फलक के केंद्र में लेकर आयी. दोनों नेताओं ने लोकसभा में पार्टी को 1984 में मिली दो सीटों से आगे ले जाते हुए 1999 में 182 सीटों तक पहुंचाया.

उन दोनों का प्रभाव इस कदर था कि अटल-आडवाणी का नाम एक दूसरे का पर्याय बन गया था, जिसका 1990 के दशक से लेकर वर्ष 2000 के शुरूआती वर्षों तक अक्सर ही कई नेता और राजनीतिक विशेषज्ञ जिक्र किया करते थे.

वाजपेयी के निधन के बाद अब आडवाणी (90) भाजपा की उस पीढ़ी के दिग्गज नेताओं में अकेले बच गये हैं. हालांकि, अब इन नेताओं की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले नये नेतृत्व ने ली है जिनकी लोकप्रियता शायद उनके मार्गदर्शकों से भी अधिक हो गयी है.

भाजपा के एक नेता ने बताया कि आडवाणी के राम मंदिर आंदोलन ने पार्टी के लिए अपार जनसमर्थन जुटाया, जो इसे पहले कभी नहीं मिला था. उन्होंने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर बताया, लेकिन वाजपेयी पार्टी को अगले मुकाम तक ले जाने वाले सही व्यक्ति थे.

अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि में आडवाणी ने वाजपेयी के साथ अपने लंबे जुड़ाव का स्मरण किया. उन्होंने उन दिनों को याद किया, जब वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, जनसंघ के नेता, आपातकाल के दौरान का संघर्ष और फिर भाजपा में सहकर्मी रहे.

आडवाणी ने कहा, मेरे लिए अटल जी एक वरिष्ठ सहकर्मी से कहीं बढ़ कर थे- वह 65 साल से भी अधिक समय तक मेरे करीबी मित्र थे. दरअसल, वह आडवाणी ही थे जिन्होंने अयोध्या में राम मंदिर बनाने का एजेंडा सामने रख कर पार्टी के उभरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 1990 में अपनी रथयात्रा के जरिये देश भर में लोगों को लामबंद किया.

हालांकि, आक्रामक हिंदुत्व का कभी सहारा नहीं लेने वाले और कमंडल की राजनीति से दूर रहे वाजपेयी आरएसएस के कभी उतने चहेते नहीं रहे, जैसे कि आडवाणी रहे हैं. वाजपेयी ने 1986 में पार्टी अध्यक्ष पद के लिए आडवाणी का मार्ग प्रशस्त किया.

वर्ष 1989 का चुनाव नजदीक आने पर आडवाणी के तहत भाजपा ने राम मंदिर निर्माण के पक्ष में अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक प्रस्ताव स्वीकार किया. हालांकि, इसके चलते उसे गैर कांग्रेसी पार्टियों का साथ खोना पड़ा लेकिन भाजपा को लोकसभा में 85 सीटें प्राप्त हुई, जो इसका पूर्ववर्ती दल जनसंघ कभी हासिल नहीं कर पाया था.

फिर, 1991 में यह राम जन्मभूमि आंदोलन के सहारे 120 सीटों पर पहुंच गयी. उस वक्त आडवाणी भाजपा के प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक पसंद थे. लेकिन उन्होंने 1995 में मुंबई में एक बैठक में यह घोषणा कर दी कि यदि पार्टी सत्ता में आती है, तो उनके वरिष्ठ सहकर्मी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी जाये.

पार्टी के नेताओं का कहना है कि गठबंधन की राजनीति के दौर में वाजपेयी को एक शांति दूत और अपनी पार्टी के उदार चेहरे के रूप में देखा जाता था. आडवाणी नये सहयोगी दलों को साथ लाने के लिए उन्हें उपयुक्त व्यक्ति मानते थे क्योंकि 1992 में बाबरी मस्जिद का ढांचा गिराये जाने के बाद क्षेत्रीय दलों के लिए भाजपा कथित तौर पर एक अछूत पार्टी बन गयी थी.

भाजपा के एक पूर्व सहयोगी ने कहा कि संगठन पूरी तरह से आडवाणी की देखरेख में था, लेकिन संभावित सहयोगियों और लोगों के बीच वाजपेयी की व्यापक स्वीकार्यता सहयोगी दलों को अपील किया करती थी क्योंकि वह कट्टर हिंदुत्व से दूरी बना कर रखते थे.

यदि आडवाणी के वैचारिक नेतृत्व ने पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश भरा तो वाजपेयी की वाक शैली, लोगों के मन को छू जाना, सहज आकर्षण और उनके खुशनुमा तौर तरीकों ने लोगों को आकर्षित किया तथा नये सहयोगियों को साथ लाया.

करीब 15 साल तक (2013 तक) भाजपा के करीबी सहयोगी रहे और वाजपेयी कैबिनेट में मंत्री रहे विपक्षी नेता शरद यादव ने वाजपेयी को भाजपा का चेहरा और आडवाणी को इसका निर्माता करार दिया.

उन्होंने कहा, वाजपेयी और आडवाणी, दोनों ने ही राष्ट्र हित को ध्यान में रख कर काम किया लेकिन वे दोनों बिल्कुल ही अलग-अलग शख्सियत वाले हैं. वर्ष 2004 में भाजपा के केंद्र की सत्ता से बेदखल होने के बाद वाजपेयी धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन से दूर होते चले गए.

हालांकि, आडवाणी सक्रिय रहे और उनकी पार्टी ने 2009 के चुनावों में उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी बनाया. लेकिन पार्टी को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा.

इसके चलते आरएसएस ने नेतृत्व के लिए युवा पीढ़ी के एक नेता की तलाश शुरू कर दी और इससे मोदी का मार्ग प्रशस्त हुआ. 2014 के आम चुनावों में मोदी लहर के साथ भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया और पार्टी ने केंद्र में अपनी बहुमत वाली पहली सरकार बनायी. इसके शीघ्र बाद आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में शामिल कर दिया गया.

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