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केजरीवाल के अहंकार से हुआ आम आदमी पार्टी को नुकसान !

-रजनीश आनंद- 26 नवंबर 2012 को जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ, तो लोगों को इस पार्टी से काफी आशाएं थीं. इंडिया अगेस्ट करप्शन के बैनर तले जब अरविंद केजरीवाल और उनके राजनीतिक गुरु माने जाने वाले अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन शुरु किया था, तो ऐसा प्रतीत हुआ था कि अब तो बस […]

-रजनीश आनंद-

26 नवंबर 2012 को जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ, तो लोगों को इस पार्टी से काफी आशाएं थीं. इंडिया अगेस्ट करप्शन के बैनर तले जब अरविंद केजरीवाल और उनके राजनीतिक गुरु माने जाने वाले अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन शुरु किया था, तो ऐसा प्रतीत हुआ था कि अब तो बस भ्रष्टाचार भारत में कुछ ही दिनों की मेहमान है.

अन्ना के आंदोलन को रालेगण सिद्धि से लेकर दिल्ली तक जो समर्थन मिला, उसे देखकर महात्मा गांधी को नहीं देखने वालों ने उन्हें गांधी की संज्ञा भी दे दी. लेकिन अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल का साथ साथ दिनों तक नहीं चला. अन्ना समाज सुधार की बात तो करते थे, लेकिन वे राजनीति दल बनाने के पक्षधर नहीं थे. ऐसे में इंडिया अगेस्ट करप्शन ने जो मुहिम छेड़ी थी, उसे पूरा करना संभव नहीं था, परिणाम यह हुआ कि अन्ना हजारे ने अरविंद केजरीवाल से किनारा करना शुरू दिया.

हालांकि इससे पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में दोनों ने एक साथ अनशन शुरू किया था और उन्हें जनता का भरपूर समर्थन मिला था. अब जबकि पूरा देश अन्ना के आंदोलन से बड़ी उम्मीदें लगा बैठा था, अरविंद केजरीवाल ने यह फैसला किया कि वे एक राजनीतिक दल बनायेंगे और भारत को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने और उसे विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए चुनाव भी लड़ेंगे. अरविंद केजरीवाल को इस निर्णय पर काफी प्रशंसा भी मिली और उनके साथ समाज के विभिन्न वर्गों के लोग जुटते चले गये. जिनमें वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, ब्यूरोक्रेट्स ,कवि और सिनेस्टार भी शामिल थे.

आम आदमी पार्टी के गठन के मात्र एक साल बाद दिल्ली में विधानसभा का चुनाव हुआ और आम आदमी पार्टी ने डंके की चोट पर यह ऐलान किया कि वह चुनाव लड़ेगी. ऐसे-ऐसे चेहरे को दिग्गजों के सामने उतारा गया कि लोग सशंकित थे कि क्या आम आदमी पार्टी अपना खाता भी खोल पायेगी. राजनीतिक नेताओं ने तो यहां तक कहा कि आम आदमी पार्टी तो बस यूं ही चुनाव लड़ रही है, मुकाबला तो कांग्रेस और भाजपा के बीच है.

आम आदमी पार्टी को लोगों ने हलके में लिया और उन्हें अपना प्रतियोगी माना ही नहीं. लेकिन जब दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आना शुरू हुए, तो वे अप्रत्याशित थे और दिग्गजों के पैरों तले जमीन खिसक चुकी थी. दिल्ली में अब तक की सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री के रूप में जानी जाने वाली शीला दीक्षित, जो तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं थीं, उन्हें अरविंद केजरीवाल ने बुरी तरह परास्त कर दिया था. अरविंद केजरीवाल वह नेता थे, जिन्होंने राजनीति में काफी हाथ नहीं आजमाया था और पहली बार चुनाव लड़ रहे थे.

उनकी पार्टी का गठन हुए मात्र एक वर्ष हुए थे लेकिन उनकी पार्टी ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की. भाजपा को 32 सीटें मिलीं थीं लेकिन वह बहुमत के लिए पर्याप्त नहीं था. अंतत: आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से जिसके पास आठ विधायक थे सरकार बनायी. सरकार बनाने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से पूछा कि क्या उन्हें कांग्रेस से समर्थन लेना चाहिए. उस वक्त उन्हें जनता ने सरकार बनाने की इजाजत दे दी थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद केजरीवाल ने जनता को राहत पहुंचाने के लिए काम शुरू किया.

जनता को पानी-बिजली जैसी सुविधाएं मुहैया कराना शुरू किया. लेकिन सत्ता पर पहुंचते ही, ऐसा लगा मानों आम आदमी पार्टी शासन चलाना नहीं जानती. जिन उद्देश्यों को लेकर आम आदमी चली थी, उनकी पूर्ति के लिए जब उन्हें सत्ता मिली, तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे सरकार को कुर्बान कर देना चाहते हैं. भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए जिस लोकपाल कानून को बनाने के लिए आम आदमी पार्टी ने आंदोलन छेड़ा था, उसी लोकपाल कानून को अपने मनमुताबिक सीमित अवधि में बनाने की जिद को लेकर अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. आम आदमी पार्टी के लिए यह संभवत: टर्निग प्वाइंट था.

दिल्ली की सरकार को कुर्बान करने से जनता में यह संदेश चला गया कि आम आदमी पार्टी को काम करने का मौका मिला, लेकिन उसने काम करने की बजाय सरकार को कुर्बान कर दिया. उनके विरोधियों ने भी इस बात का खूब फायदा उठाया. भाजपा-कांग्रेस दोनों ने ही आम आदमी पार्टी पर यह आरोप लगाया कि वह केवल बातें बनातीं है उसे जनता के हित से कुछ लेना-देना नहीं है. संभवत: यही बात जनता के मन में घर कर गयी, जिसका असर लोकसभा चुनाव में साफ दिखा. नरेंद्र मोदी की लहर में आम आदमी पार्टी कुछ ऐसी उड़ी कि शीला को पटखनी देने वाले अरविंद केजरवील बनारस में मुंह दिखाने लायक नहीं रहे.

उम्मीदों से सराबोर आम आदमी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा प्रत्याशी खड़े किये लेकिन उनके मात्र चार उम्मीदवार चुनाव जीत पाये. अमेठी में राहुल को पटखनी देने के लिए कुमार विश्वास ने मेहनत तो बहुत की, लेकिन वह काम नहीं आया. लोकसभा चुनाव के बाद तो आम आदमी पार्टी की हालत और भी खराब हो गयी. उनकी समर्पित कार्यकर्ता शाजिया इल्मी ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि यहां कुछ चुनिंदा लोग निर्णय करते हैं और अरविंद को उन्होंने जकड़ कर रखा है. पार्टी अब लोकतांत्रिक नहीं रही. पार्टी में अंतरविरोध शुरू हो गया है.

सभी एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. केजरीवाल को भी अपनी जिद के कारण जेल जाना पड़ा. पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसौदिया ने आज पार्टी प्रवक्ता योगेंद्र यादव की भूमिका पर सवाल उठाये हैं. उन्होंने आरोप लगाया है कि यादव पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं. पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता विनोद कुमार बिन्नी भी पार्टी को छोड़ चुके हैं और अब तक पार्टी के घोर विरोधी हैं.ऐसे में आम आदमी पार्टी दिशाविहीन सी प्रतीत होती है. समझ में नहीं आ रहा है कि जिन उद्देश्यों को लेकर पार्टी चली थी वह कहां गुम हो गये हैं. आज कार्यकारिणी की बैठक है, लेकिन ऐसा संभव प्रतीत नहीं होता कि आम आदमी पार्टी(आप) अपनी लय में वापस आ पायेगी?

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