कालेधन की वापसी के लिए बड़े लोगों से जूझने का साहस करना होगा

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अरुण कुमार ने भारत में कालाधन के मसले पर गहन शोध किया है. उनकी पुस्तक द ब्लैक इकॉनामी इन इंडिया इस मसले पर संदर्भ के तौर पर देखी जाती है. वे कहते हैं, अगर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी और बड़े लोगों से जूझने का साहस होगा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 8, 2014 12:08 PM

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक अरुण कुमार ने भारत में कालाधन के मसले पर गहन शोध किया है. उनकी पुस्तक द ब्लैक इकॉनामी इन इंडिया इस मसले पर संदर्भ के तौर पर देखी जाती है. वे कहते हैं, अगर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी और बड़े लोगों से जूझने का साहस होगा तो धर-पकड़ हो सकती है और कम से कम देश में जमा कालाधन और उसे बाहर भेजनेवाले सरगनाओं पर अंकुश लगा सकेगा.

लेकिन ऐसा हो पाने की संभावना नहीं दिखती है. यह मामला तकनीकी नहीं है. कालेधन का लगभग 10 फीसदी ही बाहर जा पाता है. इसलिए कालेधन पर रोक का रास्ता और उसकी मंजिल देश के भीतर ही है. देखना है कि नयी सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए कोई कदम उठाती है या पिछली सरकारों की तरह रस्म अदायगी कर कालेधन के खिलाफ ठोस पहल से परहेज करती है. इस मसले पर प्रकाश कुमार रे ने उनसे लंबी बातचीत की है. इस बातचीत का प्रमुख अंश :

कालेधन के मसले पर गठित हुई एसआईटी को देखते हुए क्या आप उम्मीद करते हैं कि देश में कालाधन वापस आ पायेगा?
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश के अनुसार नयी सरकार ने विशेष जांच दल का गठन तो कर दिया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि कालेधन के मामले में अभी बहुत कुछ किया जा सकता है. अब यह सरकार पर निर्भर करता है कि वह कितनी गंभीरता से जरूरी कदम उठायेगी. मुङो नहीं लगता है कि हमें इस विशेष जांच दल से कोई बहुत उम्मीद रखनी चाहिए. यह जांच दल तो जो मामले अभी सामने आये हैं, उन्हीं को देखेगी और जहां जरूरी होगा, वहां प्राथमिकी दर्ज करेगी. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कालेधन की अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है और जो धन देश से बाहर गया है, उसकी भी मात्र बहुत बड़ी है. सरकार बनने के साथ ही जांच दल के गठन से नयी सरकार को वाहवाही तो जरूर मिली है, लेकिन अभी तक किसी ठोस कदम उठाये जाने कोई संकेत उनकी ओर से नहीं मिले हैं.

सरकार की इंटेलिजेंस एजेंसियों और अन्य संबंधित विभागों के पास बड़ी संख्या में ऐसी सूचनाएं हैं कि देश में कहां, कैसे और कितना हवाला कारोबार चल रहा है तथा विदेशों से उसके तार कहां-कहां और किस हद तक जुड़े हैं. अगर सरकार चाहे तो इन सूचनाओं के आधार पर तुरंत कार्रवाई कर सकती है और इस कारोबार की रीढ़ तोड़ सकती है. यह बात भी किसी से छुपी हुई नहीं है कि बहुराष्ट्रीय बैंक हवाला और गैर कानूनी रूप से धन के लेन-देन में संलग्न हैं. इस बारे में भी सरकार के पास जानकारी है. एचएसबीसी बैंक का मामला कुछ समय पहले सामने आया था, जिसमें 700 लोगों के खाते इस बैंक ने स्विटजरलैंड के ज्यूरिख शहर में खोला था. अब समय आ गया है कि सरकार बैंकों की गोपनीयता संबंधी कानूनों को खत्म करे और जो बैंक अवैध तरीके से भारत के धन को विदेश भेज रहा हो या देश में उनकी हेराफेरी कर रहा हो, उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे. इसी के साथ सूचना के अधिकार कानून का दायरा बढ़ा कर बहुराष्ट्रीय बैंकों को भी उसके अंदर लाने की जरूरत है. लोकपाल विधेयक को तुरंत लागू किया जाना चाहिए. इस तरह के कई उपाय हैं जो सरकार कर सकती है और उसे करना चाहिए.

देश से बाहर गये कालाधन को वापस देश में लाना क्या आज की तारीख में मुमकिन है?
जो धन देश के बाहर चला जाता है, उसकी जांच करना और उसके बारे में पता लगाना बहुत ही कठिन काम है, क्योंकि यह कई स्तरों और सतहों से होकर जाता है, जैसे- भारत से सेंट किट्स, फिर सेंट हेलेन, उसके बाद सेंट लूसिया गया, और वहां से जर्सी आइलैंड और अंतत: स्विटजरलैंड. कालाधन शायद ही कभी सीधे जाता है. अब जब स्विस सरकार से पूछा जायेगा कि कितने भारतीयों का पैसा आपके बैंकों में है तो वे कह देंगे कि भारतीयों का तो बस 9 हजार करोड़ रुपया है जो बिलकुल वैध तरीके से गया होगा. जो धन कई स्तरों से होकर गया है, उसकी तो वे जानकारी नहीं देंगे. वे कह देंगे कि ये तो सेंट लूसिया के किसी क्रोकोडाइल कंपनी का पैसा है. ये धन तो भारत के धन में गिना ही नहीं जायेगा.

ँपिछली सरकार ने कालाधन के मसले पर श्वेतपत्र जारी किया था. उसकी जानकारियां कितनी कारगर हैं?
भारत सरकार ने भी कालेधन पर जो श्वेतपत्र जारी किया था, उसमें तो 12 हजार करोड़ का ही जिक्र था, जो बाद में 9 हजार करोड़ ही रह गया था. सरकार उस समय लोगों की आंख में धूल झोंक रही थी कि जांच में यही जानकारी सामने आयी है. फिर यह कहा गया कि हमने कर चोरों पर लगाम रखने के लिए लगभग 80 देशों के साथ प्रत्यक्ष कर चोरी विरोधी समझौता कर लिया है. अब ऐसी कर चोरी तो उस आय से संबंधित है जो वैधानिक है और जिस पर कर चुकाने में हेराफेरी की गयी है. इसका तो सीधा संबंध कालेधन से नहीं जुड़ता है. इस समझौते में यह है कि आप अपनी आय पर भारत में या उस देश में आयकर दें, जहां आपका कारोबार है. इसका मतलब तो यह है कि यह घोषित आय से जुड़ा हुआ है. लेकिन कालाधन तो अघोषित होता है. इसी तरह कर संबंधी सूचना के आदान-प्रदान का 37 देशों से जो समझौता है, वह भी वैध आय के बारे में है, न कि कालेधन के बारे में. दरअसल, इस पूरे मामले में सरकारें अब तक जनता को बेवकूफ बनाती आ रही हैं.

क्या भारत सरकार इस मसले पर विदेशी सरकारों से मदद ले सकती हैं, जैसा दूसरे देशों ने किया है?

अगर विदेशी सरकारों से इस बारे में भारत को मदद लेनी होगी, तो पहले उन्हें ठोस सबूत दिखाने होंगे, जैसा अमेरिका ने किया. उसने क्रेडिट स्विस को पकड़ा और उस पर ढाई बिलियन डॉलर का जुर्माना लगाया. इसी तरह 2007 में यूबीएस बैंक पर 700 मिलियन डॉलर से अधिक का जुर्माना लगाया गया. इसके साथ ही 4000 से अधिक अमेरिकी खाताधारकों के नाम अमेरिकी सरकार ने लिये. हमारे यहां हालत बिल्कुल उलटी है. जब जर्मनी की सरकार ने एलजीटी के भारतीय खाताधारकों की सूचनावाली डिस्क भारत को देनी चाही, तो पहले हमारी सरकार ने उसे लेने से मना कर दिया. बाद में सर्वोच्च न्यायालय के दबाव में लिया और कहा कि सिर्फ 26 नाम हैं. अब यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि उसमें सिर्फ 26 नाम ही थे या फिर ठीक से इस मामले में अभियोजन हुआ भी या नहीं. ऐसे में सरकार की मंशा पर संदेह होना स्वाभाविक है.

भाजपा ने चुनाव के दौरान कालाधन के मसले को काफी गंभीरता से उठाया था. उससे क्या आपको लगता है कि नयी सरकार इस दिशा में तत्परता के साथ काम करेगी?

कालेधन के बारे में बात करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इस चक्कर में तमाम राजनीतिक दल शामिल हैं. इनके साथ कॉरपोरेट, बड़े व्यापारी और ताकतवर नौकरशाह भी शामिल हैं.

यह कहना भी ठीक नहीं है कि भाजपा ने पूरी गंभीरता से कालाधन को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया. 2009 में भी आडवाणी ने यह मुद्दा उठाया था. यह भी जरूरी नहीं है कि राजनीतिक दल अपने चुनावी मुद्दों को सरकार में आने के बाद पूरा करते ही हैं. अगर ऐसा होता तो इस देश से गरीबी कब की मिट जानी चाहिए थी. अब यह जो विशेष जांच दल बनायी गयी है, यह तो बस न्यायालय के आदेश का पालन भर हुआ है. अभी तक इस बारे में कोई और घोषणा तो हुई नहीं है. अब तो यह भी संभावना है कि कालेधन के बारे में कोई भी मुद्दा उठेगा तो सरकार कह देगी कि यह जांच दल देख लेगी, वही इसकी भी जांच कर लेगी.

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे जांच दल बड़ी धीमी गति से काम करते हैं और अक्सर इनके नतीजे बड़े निराशाजनक होते हैं. मैं इससे बहुत उत्साहित और आशान्वित नहीं हूं. फिर इस दल का काम भी अभी के मामलों तक है. पिछले साठ-सत्तर वर्षों में 40 से अधिक समितियां और आयोग बन चुके हैं, लेकिन इनका कोई परिणाम सामने नहीं आया है. इनके द्वारा दिये गये हजारों सुझाव हैं जिनपर सरकारों ने कभी अमल करने की भी कोशिश नहीं की. इसलिए इस विशेष जांच दल से किसी नए सुझाव या पहल की आशा करना बेमानी है.

फिलहाल इस एसआईटी से आपको कितनी उम्मीदें हैं?कुल मिलाकर, काला धन का पूरा खेल राजनेताओं, नौकरशाहों और व्यावसायियों की तिकड़ी संचालित करती है. जैन हवाला कांड में इतने सारे लोगों के नाम आये थे, लेकिन किसी को कोई सजा नहीं हुई और न ही जांच एक सीमा से आगे बढ़ सकी. आज तो यह हालत है कि हर छोटे-बड़े शहर में हवाला कारोबार फैला हुआ है. सरकार और उसकी एजेंसियों के पास ये सारी सूचनाएं हैं, लेकिन वे इस बारे में कोई कोशिश नहीं करते हैं. अगर प्रधानमंत्री और उनकी सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति होगी और बड़े लोगों से जूझने का साहस होगा तो धर-पकड़ हो सकती है और कम-से-कम देश में जमा कालेधन और उसे बाहर भेजनेवाले सरगनाओं पर अंकुश लगा सकेगा. लेकिन ऐसा हो पाने की संभावना नहीं दिखती है. यह मामला तकनीकी नहीं है. कालेधन का लगभग 10 फीसदी ही बाहर जा पाता है. इसलिए कालेधन पर रोक का रास्ता और उसकी मंजिल देश के भीतर ही है. देखना है कि नयी सरकार राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए कोई कदम उठाती है या पिछली सरकारों की तरह रस्म अदायगी कर कालेधन के खिलाफ ठोस पहल से परहेज करती है.

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