नयी दिल्ली: व्यभिचार से जुड़े दंडात्मक कानूनों को असंवैधानिक घोषित करते हुए उन्हें निरस्त करने का फैसला पढ़ते हुए सुप्रीम कोर्ट के जजों ने भारत में विवाहेतर संबंध को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में रखने संबंधी पुराकालीन कानून के उद्भव और विकास के पूरे घटनाक्रम का जिक्र किया है.
फैसला सुनाने वाले पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने अपने-अपने फैसलों में इसका जिक्र किया कि आखिरकार व्यभिचार भारत में अपराध कैसे बना. दोनों ही जजों ने 1860 के कानून के तहत भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में शामिल इस पुराकालीन कानून को निरस्त करने का फैसला दिया.
जस्टिस नरीमन ने कहा कि प्रावधान का असल रूप तब सामने आता है, जब वह कहता है कि पति की सहमति या सहयोग से यदि कोई अन्य व्यक्ति विवाहित महिला के साथ यौन संबंध बनाता है, तो वह व्यभिचार नहीं है.
यह रेखांकित करते हुए कि वर्ष 1855 तक हिंदू जितनी महिलाओं से चाहें, विवाह कर सकते थे, जस्टिस नरीमन ने कहाकिवर्ष 1860 में जब दंड संहिता लागू हुई, उस वक्त देश की बहुसंख्यक जनता हिंदुओं के लिए तलाक का कोई कानून नहीं था, क्योंकि विवाह को संस्कार का हिस्सा समझा जाता था.
पीठ में शामिल एकमात्र महिला जज जस्टिस मल्होत्रा ने भी अपने फैसले में यह रेखांकित किया कि भारत में मौजूद भारतीय-ब्राह्मण परंपरा के तहत महिलाओं के सतीत्व को उनका सबसे बड़ा धन माना जाता था. पुरुषों की रक्त की पवित्रता बनाये रखने के लिए महिलाओं के सतीत्व की कड़ाई से सुरक्षा की जाती थी.
जस्टिस मल्होत्रा ने कहा, ‘इसका मकसद सिर्फ महिलाओं के शरीर की पवित्रता की सुरक्षा करना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि महिलाओं की यौन इच्छा पर पतियों का नियंत्रण बना रहे.’
जस्टिस नरीमन ने अपने फैसले में कहा, ‘ऐसी स्थिति में यह समझा पाना बहुत मुश्किल नहीं है कि एक विवाहित पुरुष द्वारा अविवाहित महिला के साथ यौन संबंध अपराध की श्रेणी में नहीं था. उस वक्त तलाक के संबंध में कोई कानून ही नहीं था, ऐसे में व्यभिचार को तलाक का आधार बनाना संभव नहीं था. उस दौरान हिंदू पुरुष अनके महिलाओं से वकवाह कर सकते थे, ऐसे में अविवाहित महिला के साथ यौन संबंध अपराध नहीं था, क्योंकि भविष्य में दोनों के विवाह करने की संभावना बनी रहती थी.’
उन्होंने कहा किहिंदू कोड आने के साथ ही 1955-56 के बाद एक हिंदू व्यक्ति सिर्फ एक पत्नी से विवाह कर सकता था और हिंदू कानून में परस्त्रीगमन को तलाक का एक आधार बनाया गया.जस्टिस मल्होत्रा ने अपने फैसले में इस तथ्य का जिक्र किया कि वर्ष 1837 में भारत के विधि आयोग द्वारा जारी भारतीय दंड संहिता के पहले मसौदे में परस्त्रीगमन को अपराध के रूप में शामिल नहीं किया गया था.