आज बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस है. आज ही के दिन 1956 में हमारे संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर ने अंतिम सांस ली थी. बाबा साहेब को महिला अधिकारों का पैरोकार माना जाता है. उन्होंने संविधान में महिलाओं को हर वो अधिकार दिये जिसके जरिये उसे एक इंसान के रूप में सम्मान मिले. जिस वक्त हमारा संविधान लागू हुआ उस दौर में कई विकसित देशों में भी महिलाओं को एकसमान नागरिक अधिकार या तो मिले नहीं थे या फिर देर से मिले थे.
भीमराव अंबेडकर एक ऐसी शख्सीयत थे जिन्होंने हमेशा महिलाओं को उनका हक देना चाहा और उनकी सामाजिक स्थिति को सुधारने के प्रयास किये. संविधान में किये गये प्रावधानों की बात तो बाद में आती है, उन्होंने आजादी से पहले हमेशा सभा-सेमिनारों में महिला अधिकारों के लिए आवाज उठायी. उन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए काफी प्रयास किये. नागपुर में संपन्न ‘दलित वर्ग परिषद’ की सभा में डॉ. अंबेडकर ने कहा था – ‘नारी जगत की प्रगति जिस अनुपात में होगी, उसी मानदंड से मैं उस समाज की प्रगति को आंकता हूं. उन्होंने गरीब स्त्रियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘सफाई से रहना सीखों, सभी अनैतिक बुराइयों से बचो, हीन भावना को त्याग दो, शादी-विवाह जल्दी मत करो और अधिक संतान पैदा मत करो’. बाबा साहेब के ये शब्द स्त्रियों के प्रति उनके सोच को दर्शाता है. उन्होंने स्त्री को समाज की एक इकाई मानते हुए कहा था-पुरुष और नारी जीवन-रथ के दो पहिए हैं दोनों को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए. पत्नी को चाहिए की वह अपने पति के कार्यों में एक मित्र, एक सहयोगी के रूप में दायित्व निभाए लेकिन यदि पति गुलाम के रूप में बर्ताव करे तो उसका खुलकर विरोध करे.
संविधान में महिलाओं को दिये अधिकार
बाबा साहेब ने संविधान में महिलाओं को एक समान नागरिक अधिकार दिलाने के लिए हर वो प्रावधान किये जो जरूरी था. हमारे संविधान में महिलाओं को वोट देने का अधिकार पुरुषों की भांति ही मिला. हिंदू मैरिज एक्ट को बाबा साहेब की ही देन मानना चाहिए. इससे पहले देश में बहुविवाह अपराध नहीं था और महिलाओं को तलाक का भी अधिकार प्राप्त नहीं था. बाबा साहेब ने हिंदू कोड बिल तैयार किया था, जिसमें महिलाओं के सम्मान की रक्षा हेतु तमाम प्रावधान किये गये थे, आजादी के बाद भारत का संविधान बनाने में जुटी संविधान सभा के सामने 11 अप्रैल 1947 को डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पेश किया था. इस बिल में बिना वसीयत किए मृत्यु को प्राप्त हो जाने वाले हिंदू पुरुषों और महिलाओं की संपत्ति के बंटवारे के संबंध में कानूनों को संहिताबद्ध किए जाने का प्रस्ताव था.यह विधेयक मृतक की विधवा, पुत्री और पुत्र को उसकी संपत्ति में बराबर का अधिकार देता था. इसके अतिरिक्त, पुत्रियों को उनके पिता की संपत्ति में अपने भाइयों से आधा हिस्सा प्राप्त होता.इस विधेयक में विवाह संबंधी प्रावधानों में बदलाव किया गया था. यह दो प्रकार के विवाहों को मान्यता देता था-सांस्कारिक व सिविल. इसमें हिंदू पुरूषों द्वारा एक से अधिक महिलाओं से शादी करने पर प्रतिबंध और अलगाव संबंधी प्रावधान भी थे. यह कहा जा सकता है कि हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार दिया जा रहा था. मैटरनिटी लीव की व्यवस्था भी बाबा साहेब ने ही करवाई थी. इस बिल में ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर करने की कोशिश की गयी जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी जिंदा रखना चाहते थे. इस बिल को 1951 में अंबेडकर ने संसद में पेश किया था, लेकिन संसद के अंदर और बाहर इसका जमकर विरोध हुआ जिसके बाद बाबा साहेब ने क्षुब्ध होकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था.हालांकि बाद में कुछ संशोधनों के साथ हिंदू विवाह अधिनियम भारत की संसद द्वारा सन 1955 में पारित कर दिया जिसके तहत तीन महत्वपूर्ण कानून बने, हिंदू उत्तराधिका अधिनियम (1955), हिंदू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक अधिनियम (1956) और हिंदू एडॉप्शन और भरणपोषण अधिनियम (1956).