जलवायु परिवर्तन का असर : 10 गुणा तक कम हो जायेगा दूध का उत्पादन, 60 लाख टन घट जायेगी गेहूं की उपज
नयी दिल्ली : जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लोबल वार्मिंग के भारत में असर और चुनौतियों के दायरे में फल और सब्जियां ही नहीं, दुग्ध भी है. जलवायु परिवर्तन के भारतीय कृषि पर प्रभाव संबंधी अध्ययन पर आधारित कृषि मंत्रालय की आकलन रिपोर्ट के अनुसार, अगर तुरंत नहीं संभले, तो इसका असर 2020 तक 1.6 मीट्रिक […]
नयी दिल्ली : जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लोबल वार्मिंग के भारत में असर और चुनौतियों के दायरे में फल और सब्जियां ही नहीं, दुग्ध भी है. जलवायु परिवर्तन के भारतीय कृषि पर प्रभाव संबंधी अध्ययन पर आधारित कृषि मंत्रालय की आकलन रिपोर्ट के अनुसार, अगर तुरंत नहीं संभले, तो इसका असर 2020 तक 1.6 मीट्रिक टन दूध उत्पादन में कमी के रूप में दिखेगा.
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रिपोर्ट में चावल समेत कई फसलों के उत्पादन में कमी और किसानों की आजीविका पर असर को लेकर भी आशंका जतायी गयी है. पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से संबद्ध संसद की प्राक्कलन समिति के प्रतिवेदन में इस रिपोर्ट के हवाले से अनुमान व्यक्त किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण दूध उत्पादन को लेकर नहीं संभले, तो 2050 तक यह गिरावट 10 गुणा तक बढ़कर 15 मीट्रिक टन हो जायेगी.
भाजपा सांसद मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा संसद में पेश प्रतिवेदन के अनुसार, दुग्ध उत्पादन में सर्वाधिक गिरावट उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगी. रिपोर्ट में दलील दी गयी है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण, ये राज्य दिन के समय तेज गर्मी के दायरे में होंगे और इस कारण पानी की उपलब्धता में गिरावट पशुधन की उत्पादकता पर सीधा असर डालेगी.
रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लोबल वार्मिंग से खेती पर पड़ने वाले असर से किसानों की आजीविका भी प्रभावित होना तय है. रिपोर्ट के मुताबिक, चार हेक्टेयर से कम कृषि भूमि के काश्तकार महज खेती से अपने परिवार का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं होंगे.
उल्लेखनीय है कि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में खेती पर आश्रित 85 प्रतिशत परिवारों के पास लगभग पांच एकड़ तक ही जमीन है. इनमें भी 67 फीसदी सीमांत किसान हैं, जिनके पास सिर्फ 2.4 एकड़ जमीन है. फसलों पर असर के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 तक चावल के उत्पादन में चार से छह प्रतिशत, आलू में 11 प्रतिशत, मक्का में 18 प्रतिशत और सरसों के उत्पादन में दो प्रतिशत तक की कमी संभावित है.
इसके अलावा एक डिग्री सेल्सियस तक तापमान वृद्धि के साथ गेहूं की उपज में 60 लाख टन तक की कमी आ सकती है. फल उत्पादन पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के बारे में रिपोर्ट के अनुसार, सेब की फसल का स्थानांतरण हिमाचल प्रदेश में समुद्र तल से 2500 मीटर ऊंचाई तक हो जायेगा. अभी यह 1250 मीटर ऊंचाई पर होता है.
इसी प्रकार, उत्तर भारत में जलवायु परिवर्तन के कारण कपास उत्पादन थोड़ा कम होने, जबकि मध्य और दक्षिण भारत में बढ़ोतरी होने की संभावना है. वहीं, पश्चिम तटीय क्षेत्र केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर राज्यों, अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप में नारियल उत्पादन में इजाफा होने का अनुमान है.
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भविष्य की इस चुनौती के मद्देनजर मंत्रालय की रिपोर्ट के आधार पर समिति ने सिफारिश की है कि अनियंत्रित खाद के इस्तेमाल से बचते हुए भूमिगत जलदोहन रोक कर उचित जल प्रबंधन की मदद से युक्तिसंगत सिंचाई साधन विकसित करना ही एकमात्र उपाय है. इसके लिए जैविक और जीरो बजट खेती को बढ़ावा देने की सिफारिश की गयी है.