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500 साल से चली आ रही है जोधपुर में चीलों को खाना खिलाने की परंपरा

जोधपुर : यदि आप जोधपुर की यात्रा पर हैं और कुछ अनोखा देखना चाहते हैं, तो चीलों को खाना खिलाते देखना अपने आप में एक अलग अनुभव हो सकता है. जोधपुर राजघराने की मान्यता है कि चीलें उनकी रक्षक हैं. इसीलिए मेहरानगढ़ किले से दोपहर में एक निश्चित समय पर उनको खाना खिलाया जाता है. […]

जोधपुर : यदि आप जोधपुर की यात्रा पर हैं और कुछ अनोखा देखना चाहते हैं, तो चीलों को खाना खिलाते देखना अपने आप में एक अलग अनुभव हो सकता है. जोधपुर राजघराने की मान्यता है कि चीलें उनकी रक्षक हैं. इसीलिए मेहरानगढ़ किले से दोपहर में एक निश्चित समय पर उनको खाना खिलाया जाता है.

चीलों को खाना खिलाने वाले लतीफ कुरैशी ने बताया, ‘मेरा परिवार पिछली कई पीढ़ियों से यही काम कर रहा है. यह परंपरा करीब 500 साल पहले, राव जोधाजी के समय से शुरू हुई. हमारे बाप-दादा भी यही काम करते रहे हैं. यहां दिन में एक बार मेहरानगढ़ किले के बुर्ज से चीलों को मांस खिलाया जाता है.’

उन्होंने बताया कि राजघराने की मान्यता है कि चीलें उनकी रक्षक हैं और जब तक वह यहां रहेंगी, तब तक राजघराना और मेहरानगढ़ का किला भी रहेंगे. चीलों को यहां चामुंडा देवी का रूप माना जाता है. कुरैशी ने बताया, ‘एक बार में चीलों को खिलाने के लिए बकरे का करीब पांच से छह किलो मांस लग जाता है.’

वह खुद शहर में मांस की दुकान चलाते हैं और इस काम के लिए किसी से कुछ लेते नहीं. लोग दान और श्रद्धा से इस काम के लिए जो कुछ दे जाते हैं, उनकी पूर्ति उसी से हो जाती है.

यहां चीलों को खाना खिलाने के दौरान एक बात विशेष तौर पर देखने लायक होती है. मांस के टुकड़े चाहे जमीन पर पड़े हों या किले की मुंडेर पर रखे हों, जब तक कुरैशी उन्हें अपने हाथ से उछालकर नहीं देते, तब तक चील उन टुकड़ों को छूते भी नहीं.

इस बारे में कुरैशी ने बताया, ‘मैं जब भी खाना उछालता हूं, चील तभी उसे पकड़ते हैं और वह कभी भी उसे नीचे नहीं गिरने देते.’

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