ब्यूरो, नयी दिल्ली
आदिवासियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए संसद ने 13 साल पहले ऐतिहासिक वन अधिकार कानून पारित किया था. कानून बनने के बाद 16 लाख आदिवासियों को वन अधिकार दिये गये, लेकिन बड़ी संख्या में लोगों के अधिकारों के दावे को खारिज किया गया है. ऐसी स्थिति में जंगल में रहने वाले लाखों आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का खतरा बढ़ गया है.
आदिवासियों के वन अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने राज्यसभा में स्पेशल मेंशन के जरिए कहा कि राज्य और केंद्र सरकार से आदिवासियों के दावे की प्रक्रिया कानून के तहत तय मानकों के आधार पर पारदर्शी तरीके से निबटाने की बात कही गयी है.
लेकिन ऐसी रिपोर्ट है कि बिना प्रक्रिया का पालन किये बड़ी संख्या में दावों को खारिज किया गया है. वन अधिकार कानून 2006 ने व्यक्तिगत स्तर पर वनों पर अधिकार के प्रति लोगों को जागरूक किया है, लेकिन वन अधिकार सुनिश्चित करने में असफल रहा है. ऐसे में यह केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि लोगों को वन अधिकार दिया जाये ताकि वे आर्थिक तौर पर सशक्त बन सकें.
स्पेशन मेंशन में रमेश ने भारतीय वन अधिनियम 1927 में बदलाव करने की कोशिशों पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि इससे वन अधिकार कानून 2006 कमजोर हो जायेगा. ऐसे में बदलाव करने से पहले सरकार को सिर्फ राज्य सरकार नहीं बल्कि सिविल सोसाइटी के लोगों से चर्चा करनी चाहिए. भारतीय वन अधिनियम में बदलाव करने से पेसा कानून और पांचवी अनुसूची के तहत मिले विशेष अधिकार कमजोर हो जायेंगे.