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नेहरू, गांधी से अलग राष्ट्रीय प्रतीक क्यों गढ़ना चाहते हैं मोदी?

-राहुल सिंह- मोदी सरकार के पहले बजट की कुल मिला कर इस बार तारीफ ही हुई है. लेकिन इसबजट के जिस एक बिंदु पर पत्रकारों, विशेषज्ञों व बुद्धिजीवियों ने आपत्तिजतायी वह है गुजरात सरकार को राज्य में बनने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेलके प्रस्तावित स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के लिए 200 करोड़ रुपये की सहायता देनेका. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 21, 2014 3:48 PM

-राहुल सिंह-

मोदी सरकार के पहले बजट की कुल मिला कर इस बार तारीफ ही हुई है. लेकिन इसबजट के जिस एक बिंदु पर पत्रकारों, विशेषज्ञों व बुद्धिजीवियों ने आपत्तिजतायी वह है गुजरात सरकार को राज्य में बनने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेलके प्रस्तावित स्टेच्यू ऑफ यूनिटी के लिए 200 करोड़ रुपये की सहायता देनेका. गुजरात सरकार (मोदी के सीएम रहते) के इस कार्यक्रम के लिए मोदी केखास सिपहसलार वित्तमंत्री अरुण जेटली ने अपने पहले बजट में बेटीबचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम के लिए किये गये बजट आवंटन की दोगुणी राशि दीहै.

चर्चित पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने बजट भाषण जारी रहने के दौरान ही इसपर ट्विट कर चुटकी ली कि बेटी बचाने के लिए 100 करोड़ और स्टेच्यू के लिए200 करोड़! स्वाभाविक है मोदी अपने संकल्प के अनुरूप अमेरिका के स्टेच्यूऑफ लिबर्टी से ऊंची सरदार पटेल की प्रतिमा बनाने के सपने को सच करने केलिए अगले बजटों में भी आवंटन करायेंगे.

मोदी की कार्यशैली बताती रही हैकि उनके फैसले उनके आलोचकों के बयानों से प्रभावित नहीं होते, बल्कि उसकेउलट वे अपने फैसले के प्रति और अधिक दृढ़ दिखने लगते हैं. जाहिर है वेदेश के प्रधानमंत्री के रूप में और सरदार पटेल को एक प्रकार से अपनाआदर्श मानने का बार-बार संकेत देने के कारण इस प्रतिमा के निर्माण केस्वप्न को और दृढ़ता से सच करेंगे.

सवाल उठता है कि आखिर इसकी जरूरत क्यों है? मोदी इसके माध्यम से क्यासाबित करना चाहते हैं? क्या मोदी नये राष्ट्रीय प्रतीक गढ़ना चाहते हैं,जो गांधी-नेहरू से अलग और कहीं अधिक दृढ़ दिखे? या फिर वे खुद का अक्सपटेल में देखने के कारण ऐसा करना चाहते हैं? दरअसल मोदी के राजनीतिक गुरुव संरक्षक रहे लालकृष्ण आडवाणी भी हमेशा अपना अक्स सरदार पटेल में हीढूंढते रहे हैं. उन्हें सरदार पटेल से अपनी तुलना हमेशा एक सुखद अनुभूतिदेती रही है. भारतीय राजनीति के अपने स्वर्णिम दिनों में भी वे ऐसीपरस्थितियां बनाने की जुगत में रहते कि उनकी तुलना सरदार पटेल से हो.

पर, वाजपेयी सरकार में जब-जब आंतरिक व घरेलू मोर्चो पर सरकार कमजोर दिखी,मीडिया वालों ने अपने खबरों व आलेखों में आडवाणी की खूब खबर ली. उपहास वव्यंग के साथ लौह पुरुष शब्द का उल्लेख कर आलेख व खबरें लिखे गये. यह भीदिलचस्प है कि वाजपेयी सरकार के पतन के बाद यूपीए सरकार बनने पर और चुनावकरीब आने पर आडवाणी शुभचिंतकों ने उनके लिए पीएम इन वेटिंग जैसा मजाकियाजुमला गढ़ा. यूपीए – 1 का कार्यकाल पूरा होने पर हुए आम चुनाव में आडवाणीने डॉ मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री बता कर चुनाव प्रचार किया.आडवाणी का यह नारा चुनाव अभियान में उनका एक सूत्री कार्यक्रम बन गया था.वे अपने कार्यक्रम उतने प्रभावशाली तरीके से लोगों तक नहीं रख सके.परिणामत: डॉ सिंह ने आडवाणी को चुनाव में पटकनी दे दी.

पितृ संगठनराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2009 में आडवाणी के चुनाव प्रचार के तरीके सेखुश नहीं था. संघ के गलियारे में चुनाव अभियान के बाद गुस्से व कोफ्त केसाथ यह चर्चा होती रही कि आडवाणी डॉ सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री कह करचुनाव प्रचार करते रहे और इन्हें ही डॉ मनमोहन सिंह ने पटकनी दे दी.दरअसल, इस प्रसंग का उल्लेख करना इस लेख के मूल विषय से विभ्रमित होनानहीं है.

बल्कि यह याद दिलाना है कि मोदी और उनके राजनीतिक गुरु आडवाणीमें बारीक और अहम अंतर है. मोदी विरोधियों पर जितने तीखे हमले करते हैं,उससे भी कहीं अधिक मजबूती से अपने कार्यक्रम बताते हैं और उससे भी कहींअधिक ढंग से उसको लेकर मन से संकल्पवान रहते हैं. सालों पहले गुजरातचुनाव के दौरान उनको दी गयी उपाधि मौत के सौदागर अब सपनों के सौदागर मेंरूपांतरित हो गयी और सपनों के इस सौदागर को देश की जनता व युवाओं नेहाथों-हाथ इसलिए लिया, क्योंकि इस शख्स ने सपनों को बड़े योजनाबद्ध तरीकेसे आमलोगों में बेचा.

अब जब मोदी ठोस बहुमत के साथ सत्ता में हैं तो वे संघ के एक प्रचारक केमुख्य स्वभाव यानी खामोशी से अपने उस सपने को सच करने की कोशिश में हैं,जिसके तहत वे कांग्रेसमुक्त भारत बनाना चाहते हैं. आप कांग्रेस की जगहनेहरू -गांधी परिवार शब्द को भी चस्पां कर इस पंक्ति को पढ़ और समझ सकतेहैं. मोदी अपने सार्वजनिक संबोधनों से बार-बार यह संकेत देते रहे हैं किवे नेहरू-गांधी परिवार को ही कांग्रेस का पर्यायवाची मानते हैं.

यानी वेएक ऐसा भारत बनाना चाहते हैं, जिसमें पिछले 67 सालों से कायम नेहरू-गांधी परिवार का राजनीतिक एकाधिकार खत्म हो जाये. मोदी देश की समस्याओंका कारण इस परिवार के एकाधिकार को बताते रहे हैं और वे इस परिवार के पहलेपीडि़त और प्रतिरोध के सबसे सशक्त प्रतीक (आजाद भारत में) सरदार पटेल केव्यक्तित्व व कृतित्व की जड़ें देश की जनता विशेषकर युवा जन-मानस केमन में गहरे जमाना चाहते हैं. मोदी चाहते हैं कि अबतक लोग जिस तरह से

पंडित नेहरू व इंदिरा गांधी से सर्वाधिक प्रभावित रहे हैं, उसी तरह आनेवाली पीढि़यां सरदार पटेल से प्रभावित दिखें. युवाओं से बात करें और उसकाबारीक विश्लेषण करें तो आपको ऐसा होने का अहसास भी हो होगा. यह धारणा बहुतआम हो चली है कि सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो जम्मू कश्मीर की समस्यानहीं होती और देश की सूरत अलग होती और इसकी पहचान मौजूदा स्थिति से कहींअधिक मजबूत व संपन्न राष्ट्र की होती.

मोदी सरकार के पहले बजट में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीनदयालउपाध्याय, पंडित मदन मोहन मालवीय के नामों से योजनाएं हैं, लेकिन अबतक केज्यादातर बजटों की तरह पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के नामसे योजनाएं नहीं हैं. एक मोटी गणना के अनुसार, देश में फिलहाल 450 सेअधिक योजनाएं अकेले नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर चल रही हैं. लोगों केलिए तो गिनना भी मुश्किल है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनकी बेटीइंदिरा गांधी और नाती राजीव गांधी के नाम पर किस-किस तरह की योजनाएं चलरही हैं.

उदाहरण के लिए राजीव गांधी के नाम पर राजीव गांधी पंचायतसशक्तीकरण अभियान शुरू किया गया है. यूपीए सरकार अगर चाहती तो इस अभियानको देश के पहले पंचायती राज मंत्री एसके राय के नाम पर शुरू कर सकती थी.पंचायती राज को लेकर उनका अहम योगदान रहा और मंत्री पद से हटने के बाद भीउन्होंने जीवन पर्यत पंचायत व्यवस्था के लिए ही काम किया. लेकिन कांग्रेसमें चाटुकारिता की परंपरा इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी हैं कि उसके नेताओं कोपंडित नेहरू, इंदिरा गांधी व राजीव गांधी के अलावा किसी अन्य नेता केयोगदान को सम्मान देने की सुध कभी नहीं रही.

सोनिया गांधी की कांग्रेसपार्टी के अधिकतर नेताओं के कमरे में आपको उनकी सास व पति (इंदिरा-राजीव)की तसवीरें अवश्य मिलेंगी. जबकि कांग्रेस में कई महान नेता हुए. अब आनेवाले सालों में कांग्रेस नेताओं की इस कमी की भरपाई मोदी करेंगे, वे भीअपने ही अंदाज में. संभव है कि इसका असर कांग्रेस से ज्यादा नेहरू-गांधी

परिवार पर ही पड़ेगा.मोदी सरकार के पहले बजट में ही जिन तीन नेताओं के नाम पर नयी योजनाएंशुरू की गयी हैं, उसमें दो नेता – पंडित मदन मोहन मालवीय व डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी मूल रूप से कांग्रेसी रहे हैं. महामना मालवीय तो चार बारकांग्रेस के अध्यक्ष रहे और महात्मा गांधी भी उनका गुरुतुल्य सम्मान करते

और उनसे मार्गदर्शन लेते. राष्ट्र निर्माण में उनका अमूल्य योगदान रहाहै. काशी हिंदू विश्वविद्यालय जैसे अद्वितीय शैक्षणिक संस्थान कीउन्होंने स्थापना की, जिसने देश के हर क्षेत्र में कार्य करने के लिएश्रेष्ठ प्रतिभाएं तैयार की और राष्ट्र निर्माण को इससे दशकों तक गतिमिलती रही. पर, आजादी के बाद कांग्रेस के हुए परिवारीकरण में उनकी न तोवैसी चर्चा हुई और न ही उन्हें वह सम्मान मिला, जिसके वे हकदार रहे.

इतिहास की पुस्तकों में उनका वैसा प्रभावी उल्लेख नहीं किया गया है. इसबात का दु:ख बुद्धिजीवी वर्ग के बहुत सारे लोगों को है. अब- जब मोदीमहामना के शहर बनारस से सांसद चुन कर देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तो वेअपने ही तरीके से इस मोर्चे पर कार्य करेंगे. पंडित मदन मोहन मालवीय नवअध्यापक प्रशक्षिण पाठ्यक्रम के माध्यम से वे देश की नयी पीढ़ी को नयापाठ पढ़ायेंगे.

(लेखक प्रभात खबर के पंचायतनामा से जुड़े हैं)

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