न्यायपालिका में पारदर्शिता से लोगों का और बढ़ेगा भरोसा
विराग गुप्ता, वकील, सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या की विवादित जमीन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुना दिया है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब इस 2.77 एकड़ जमीन पर मंदिर बनाये जाने का रास्ता साफ हो गया है. यह जमीन ‘रामलला विराजमान’ को देते […]
विराग गुप्ता, वकील, सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या की विवादित जमीन को लेकर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुना दिया है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद अब इस 2.77 एकड़ जमीन पर मंदिर बनाये जाने का रास्ता साफ हो गया है.
यह जमीन ‘रामलला विराजमान’ को देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को तीन महीने के भीतर ही एक ट्रस्ट बनाने का आदेश भी दिया है, जो मंदिर निर्माण के लिए जरूरी है. वहीं, मुस्लिम पक्ष के लिए अयोध्या में ही पांच एकड़ जमीन देने का भी कोर्ट ने निर्देश दिया है. अब सवाल यह उठता है कि इस फैसले के कानूनी मायने क्या हैं?
अयोध्या मामले में आये सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद यह माना जा सकता है कि देश के सबसे बड़े और चर्चित मुकदमे का एक तरह से अंत हो गया है. हालांकि, इसके बाद भी दूसरे पक्षों द्वारा पुनरावलोकन या फिर क्यूरेटिव पिटीशन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन इस बात पर हमें ध्यान देना चाहिए कि पांच जजों द्वारा सहमति से दिये गये इस बड़े फैसले के बाद अब इसमें किसी बदलाव की गुंजाइश कम ही है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले में अनेक जरूरी बातें कही गयी हैं. पुरातत्व विभाग की खुदाई के प्रमाणों के आधार पर उस विवादित भूमि पर धार्मिक परंपरा के आधार पर राम जन्मभूमि की मान्यता को फैसले में कानूनी मान्यता दी गयी है. यह बहुत महत्वपूर्ण बात है.
वहीं, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुस्लिम पक्ष यानी सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में ही कहीं पर पांच एकड़ जमीन दी जायेगी, जहां एक मस्जिद तामीर की जा सकती है. हालांकि, इस ऐतिहासिक फैसले के बाद भी बाबरी मस्जिद ध्वंश करनेवालों के खिलाफ आपराधिक मामला चलता रहेगा. तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि निर्मोही अखाड़े के दावे को अस्वीकार करने के बाद भी राममंदिर के लिए बनाये जानेवाले नये ट्रस्ट में उन्हें प्रतिनिधित्व देने की बात कही गयी है.
न्यायिक व्यवस्था तर्क और प्रमाणों से चलती है. इसलिए राममंदिर के हक में दिये अपने फैसले के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने आस्था के आधार पर हिंदुओं के अनेक पक्षकारों के दावों को अस्वीकार कर दिया है. अरसा पहले इलाहाबाद हाइकोर्ट ने इस विवादित भूमि को तीन भागों में बांट दिया था, इसे भी सुप्रीम कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया. शिया पक्ष के दावे को भी कोर्ट ने अस्वीकार कर दिया. यह सब तर्कसंगत है.
इस फैसले के पहले ही मैंने यह कहा था कि पुरातत्व विभाग की खुदाई के प्रमाणों के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा इस जमीन को राम मंदिर निर्माण के लिए दिया जा सकता है. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अयोध्या के 1993 कानून के तहत ट्रस्ट बनाने और जमीन सौंपने के लिए निर्देश दिये हैं.
यहां यह बताना जरूरी है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने एक हलफनामे में कहा था कि यदि पुरातत्व विभाग की खुदाई से मंदिर के पक्ष में प्रमाण मिले, तो राम मंदिर के लिए जमीन दी जा सकती है, जिसके लिए अयोध्या कानून की धारा-6 में बाकायदा प्रावधान हैं. इस एतबार से देखें, तो पांच जजों की पीठ के इस फैसले के बाद यह विधिक व्यवस्था भलीभांति पुष्ट हो गयी है.
रामजन्म भूमि का यह मामला पिछली दो शताब्दियों से प्रशासन और अदालतों के सामने विवादों से घिरा रहा था. खुद सुप्रीम कोर्ट में ही यह मामला नौ वर्षों से लंबित था. ऐसे में रामलला विराजमान के पक्ष में यह एक सुखद निर्णय है.
इसके अनेक अन्य निष्कर्ष भी हो सकते हैं, जो आनेवाले समय में न्यायिक सुधारों के लिए महत्वपूर्ण होंगे. वर्तमान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस गोगोई ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया और इतने पुराने अौर विवादास्पद मामले पर दो महीने में ही बड़ा फैसला देकर एक उदाहरण स्थापित कर दिया है. इस सबक को यदि न्यायपालिका के सारे जज अपना लें, तो देश में तीन करोड़ से ज्यादा लंबित मामलों का जल्द से जल्द फैसला हो सकता है और न्यायपालिका पर बोझ भी कम हो सकता है.
अब उम्मीद है कि न्यायपालिका में पारदर्शिता के साथ लोगों का भरोसा और बढ़ेगा. सभी पक्षों द्वारा इस फैसले का सम्मान करने से ही कानून के शासन के साथ लोकतांत्रिक भारत की न्यायिक व्यवस्था को एक नया आयाम हासिल होगा, जो देश को मजबूती प्रदान करेगा.