मुलायम के लिए सत्ता सबकुछ है लेकिन मेरे लिए मान-सम्मान. यह सुवाक्य उत्तरप्रदेश की बीएसपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का है. जब लालू-नीतीश की जोडी ने एक कार्यक्रम के दौरान अपनी (लालू-नीतीश की) तरह मुलायम-मायावती को भी एकजुट होने का गुरुमंत्र दिया तो मायावती पर तो इसका असर नहीं हुआ लेकिन मुलायम लालू-नीतीश के मंत्र से मंत्रमुग्ध हो गये और उसने मायावती के सामने एकजुट होने का प्रपोजल रख दिया. लेकिन मायावती ने दो टूक कह दिया कि मुझे यह प्रस्ताव मंजूर नहीं है, मेरे लिए सत्ता नहीं मेरा मान सम्मान बडा है.
लेकिन क्या मायावती ने मान-सम्मान के खातिर ही मुलायम के प्रस्ताव को ठुकरा दिया या फिर इसके पीछे कुछ और कहानी है ? इस कहानी को समझने के लिए मुलायम और माय़ावती के राजनीतिक समीकरणों को अलग-अलग समझना जरुरी है
मुलायम सचमुच गंभीर थे गठबंधन के लिए ?
क्या मुलायम सिंह यादव सचमुच चाहते थे कि भाजपा से टक्कर लेने की लिए बिहार की तर्ज पर यूपी में भी दो प्रतिद्वंद्वियों में गठबंधन हो जाए या फिर यह लालू-नीतीश के आह्वान का असर मात्र था. या फिर मीडिया के दबाव में किया गया पहल. अगर मुलायम सचमुच गंभीर थे तो इस तरह की पहल सरेआम मीडिया के माध्यम से नहीं होती. यह तो आपस की बात थी जिसे आपसी सहमति के बाद मीडिया में ऐलान मात्र करना था. लेकिन यहां तो मीडिया के ऐलान के बाद पहल की गयी.
मुलायम ने क्यों की पहल
लालू-नीतीश ने तो सपा और बसपा दोनों से गठबंधन की अपील की थी पर मुलायम ने इसकी पहल क्यों की. इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं-
पहला- एक तो उन्होंने मुस्लिम वोटरों को यह संदेश देकर उससे सहानूभूति हासिल करने की कोशिश की है कि वह भाजपा जैसी तथाकथित सांप्रदायिक पार्टी को मात देने की लिए मायावती जैसी कट्टर राजनीतिक दुश्मन से भी समझौते के लिए तैयार है.
दूसरा- दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि सपा अपने आप को यूपी में भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी साबित करना चाहती है. और चाहती है कि वह हर हाल में यूपी में बसपा से ऊपर रहे.
इस तरह मुलायम ने इस पहल के साथ एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की है.
मायावती ने क्यों ठुकरा दी मुलायम के प्रस्ताव को
यह सच है कि इस लोकसभा चुनाव में बहुजन समाजवादी पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन आंकड़े बतातें हैं कि फिर भी उनका वोट प्रतिशत कम नहीं हुआ है. मायावती ने मुलायम को न कह दिया इसके पीछे भी दो कारण हो सकते हैं.
1995 का जख्म अभी भरा नहीं है
मुलायम के प्रस्ताव पर मायावती ने 1995 की घटना का याद दिलाया. उन्होंने कहा कि जब उस दिन मुझ पर जानलेवा हमला किया गया उस तरह की हमला यदि लालू की बहन-बेटी पर होता तो क्या लालू इस तरह की गठबंधन करना चाहते. गौरतलब है कि 2 जून 1995 को एक मीटिंग के दौरान मायावती पर तथाकथित रुप से हमला किया गया था. भीड ने उनको भद्दी गालियां भी दी थी. उस वक्त मायावती ने घंटों तक अपने को कमरे में कैद कर अपनी जान बचायी थी. बाद में मायावती हमेशा से मुलायम पर हत्या की साजिश का आरोप लगाती रही है.
मायावती ने मुलायाम को न कहकर अपने वोट बैंक को साफ आश्वासन दिया है कि उन्हें कहीं जाने की कोई आवश्यकता नहीं है. हम अभी भी उनके हित के लिए और उनके साथ खडे हैं. उन्हें बिखरने की कोई आवश्यकता नहीं है.
दूसरा- मायावती की दूरदर्शिता
मायावती के साथ उनका करीब 20 प्रतिशत दलित वोट बैंक उनके साथ है. मायावती की सोंच रही होगी कि अगर अल्पसंख्यकों का भी सहयोग उन्हें मिल जाता है तो भाजपा को पराजित करने के लिए उनके पास बेहतर विकल्प हो सकता है. ऐसे में वह मुलायम के साथ गठबंधन कर नहीं चाहती होगी कि उसकी खुद की राजनीतिक क्षमता पर कोई सवाल उठे.
अपने दलित वोट बैंक की बदौलत मायावती अपने आप को हमेशा से एक मजबूत दावेदार मानती रही है. लेकिन इस बार के लोकसभा चुनाव ने उनकी इस धारणा को तोड़ दिया. ऐसे में मुलायम के प्रस्ताव को खारिज कर मायावती ने फिर से अपने बुलंद इरादों का परिचय दिया है. अब इस फैसले के बाद यूपी में मायावती का ‘मान-सम्मान’ कितना बचता है वह आगे होने वाले विधान सभा चुनाव में तय हो जाएगा.