हिंदी को राष्‍ट्रभाषा बनाना चाहते थे बापू..

इंदौर: जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक सम्मेलन के दौरान हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने का पहली बार सार्वजनिक आह्वान किया, तब उनके दिल से निकले बोल की गूंज स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहे बहुभाषी देश में दूर-दूर तक सुनायी दी थी. मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति के प्रचार मंत्री अरविंद ओझा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 14, 2014 1:54 PM

इंदौर: जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने एक सम्मेलन के दौरान हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाये जाने का पहली बार सार्वजनिक आह्वान किया, तब उनके दिल से निकले बोल की गूंज स्वतंत्रता के लिये संघर्ष कर रहे बहुभाषी देश में दूर-दूर तक सुनायी दी थी.

मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति के प्रचार मंत्री अरविंद ओझा ने बताया कि ‘महात्मा गांधी ने 29 मार्च 1918 को इंदौर में आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की थी.
इसके दौरान उन्होंने अपने सार्वजनिक उद्बोधन में पहली बार आह्वान किया था कि हिन्दी को ही भारत की राष्ट्रभाषा का दर्जा मिलना चाहिये.’ ओझा ने कहा, ‘जब बापू ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने की अपील की, तब देश गुलामी के बंधनों से आजाद होने के लिये संघर्ष कर रहा था. उस दौर में इस मार्मिक अपील ने देशवासियों के दिल को छू लिया था और उनके भीतर मातृभूमि की स्वतंत्रता की साझी भावना बलवती हो गयी थी.’
ओझा ने बताया कि महात्मा गांधी ने आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान इंदौर से पांच ‘हिन्दी दूतों’ को देश के उन राज्यों में भेजा था, जहां उस वक्त इस भाषा का ज्यादा प्रचलन नहीं था. ‘हिन्दी दूतों’ में बापू के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी शामिल थे.
उन्होंने बताया कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार की इस अनोखी और ऐतिहासिक मुहिम के तहत ‘हिन्दी दूतों’ को सबसे पहले तत्कालीन मद्रास प्रांत के लिये रवाना किया गया था.
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रुप में बापू ठेठ काठियावाडी पगडी, कुरते और धोती में मंच पर पहुंचे थे. गांधी ने मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति के आयोजित सम्मेलन में कहा था, ‘जैसे अंग्रेज मादरी जबान यानी अंग्रेजी में ही बोलते हैं और सर्वथा उसे ही व्यवहार में लाते हैं, वैसे ही मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें. इसे राष्ट्रभाषा बनाकर हमें अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये.’
बापू ने अपने उद्बोधन में हिन्दी की गंगा-जमुनी संस्कृति पर भी प्रकाश डाला था. उन्होंने कहा था, ‘हिन्दी वह भाषा है, जिसे हिन्दू और मुसलमान दोनों बोलते हैं और जो नागरी अथवा फारसी लिपि में लिखी जाती है. यह हिन्दी संस्कृतमयी नहीं है, न ही वह एकदम फारसी अल्फाज से लदी हुई है.’
‘बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी’ से ‘महात्मा गांधी’ बने राष्ट्रपिता ने आम बोलचाल के साथ अदालती काम-काज में भी हिन्दी के इस्तेमाल की पुरजोर पैरवी की थी.उन्होंने कहा था, ‘हमारी कानूनी सभाओं में भी राष्ट्रीय भाषा द्वारा कार्य चलने चाहिये. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक प्रजा को राजनीतिक कायो’ में ठीक तालीम नहीं मिलती है.
हमारी अदालतों में राष्ट्रीय भाषा और प्रांतीय भाषाओं का जरुर प्रचार होना चाहिये.’ ‘बापू’ के अध्यक्षीय उद्बोधन के आखिरी शब्द जिनसे उनके दिल में बसी हिन्दी जैसे खुद बोल उठी थी, ‘मेरा नम्र, लेकिन दृढ अभिप्राय है कि जब तक हम हिन्दी को राष्ट्रीय दर्जा और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देंगे, तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं.’

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