चार महीने पूर्व हुए आम चुनाव के समय से ही सुनाई पड़ रही मोदी-मोदी की देशव्यापी गूंज का स्वर 10 राज्यों की 33 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में धीमा पड़ गया है. आश्चर्यजनक रूप से भाजपा का गढ़ माने जाने वाले गुजरात में पार्टी का प्रदर्शन उम्मीद के अनुकूल नहीं रहा है, वहीं राजस्थान में पार्टी को कांग्रेस से करारी हार मिली है.
उत्तरप्रदेश में भी सपा ने उसे जोरदार शिकस्त दी है. उपचुनाव ज्यादातर वैसी सीटों पर हुए जिसे अलग-अलग राज्यों भाजपा के विधायकों ने लोकसभा चुनाव जीतने के बाद खाली की थी. ऐसे में भाजपा के लिए दोहरी मार इस मायने में है कि एक तो उसे अनुकूल परिणाम नहीं मिले, दूसरी उसे अपनी ही सीटिंग सीटें भी खोनी पड़ी. भाजपा को कम से कम विधानसभा की 12 सीटिंग सीटों से हाथ धोना पड़ा है.
विधानसभा की 33 सीटों के साथ लोकसभा की तीन सीटों पर भी उपचुनाव हुए. इसमें गुजरात का बड़ौदा, उत्तरप्रदेश में मैनपुरी व तेलंगाना की मेडक सीट शामिल है. बड़ौदा सीट नरेंद्र मोदी, मैनपुरी सीट मुलायम सिंह यादव व मेडक सीट टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना का सीएम बनने के बाद छोड़ी थी. इन सीटों पर तीनों पार्टियों के नये उम्मीदवारों ने अपना कब्जा बरकरार रखा है.
10 राज्यों के 33 सीटों में हुए उपचुनाव में प्रमुख रूप से उत्तरप्रदेश की 11, गुजरात की नौ, राजस्थान की चार सीटों पर लोगों की नजरें टिकी थीं. उत्तरप्रदेश की 11 सीट में आठ सीटों पर सपा जीत के करीब है, जबकि तीन सीटों पर भाजपा. महत्वपूर्ण बात यह कि उत्तरप्रदेश में खाली हुई विधानसभा की सभी सीटें भाजपा के विधायकों द्वारा लोकसभा चुनाव में जीत के बाद खाली की गयी थी. पूर्वोत्तर की पांच, पश्चिम बंगाल की दो व छत्तीसगढ़ एवं आंध्रप्रदेश की एक-एक विधानसभा सीट पर भी उपचुनाव हुए.
गुजरात में भाजपा ने छह व कांग्रेस ने तीन सीटें जीती है. कांग्रेस ने वहां दीसा, खम्भाइला व मंगरोल सीट जीती है. जबकि भाजपा ने मोदी के पीएम बनने पर खाली की उनकी सीट मणिनगर, अहमदाबाद, तांकरा, राजकोट, देवभूमि द्वारका, ललाया, आणंद, अतार, लिमखेडा जीती है. उत्तरप्रदेश में भाजपा ने सहारनपुर व नोएडा सीटों पर कब्जा किया है. वहीं, ररखारी, हमीरपुर, मोदी के लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले रोहनिया, विघासन व ठाकुरद्वार सीट पर सपा ने कब्जा कर लिया है. इससे पूर्व बिहार में हुए उपचुनाव में भी भाजपा को जदूय-राजद गठंबंधन ने 6-4 से हराया था.
बहरहाल, सीटों के इस अंकगणित ने मोदी के आभा मंडल के फीका होने का संदेशा तो दे ही दिया है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपने मुंबई दौरे के दौरान ही कार्यकर्ताओं को यह संदेश दिया था कि वे मोदी लहर की उम्मीद में नहीं रहें और जमीनी मुद्दों को उठायें. जनता की नब्ज की बेहतर समझ रखने वाले शाह ने कार्यकर्ताओं को यह संकेत भी दिया था कि देश में मोदी लहर कम हुआ है.
भाजपा की इस शिकस्त से अब एक बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि क्या देश में गैर भाजपावाद की राजनीति मजबूत होगी. जब 60-70 के दशक में कांग्रेस की ताकत व इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व ने गैर कांग्रेसवाद के विमर्श को बढ़ाया. अब जब दूसरे राजनीतिक दलों से काफी अधिक ताकतवर भाजपा नजर आ रही है और मोदी के व्यक्तित्व पर भी बहुत सारे विरोधी राजनेता सवाल उठाते रहे हैं, तो यह परिस्थिति गैर भाजपावाद के लिए जगह बनाती है.
गैर भाजपावाद शब्द के जनक नीतीश कुमार हैं. नीतीश ने भी लोकसभा चुनाव के बाद अपने प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद से राजनीतिक दोस्ती कर अलग-अलग राज्यों के दूसरे नेताओं को भी भाजपा के खिलाफ एक साथ आने के लिए आमंत्रित किया. हालांकि यह सच समय के गर्भ में है कि गैर भाजपावाद की राजनीति देश में भविष्य में कितनी मजबूत होगी.