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भाजपा-शिवसेना के रिश्तों में आयी खटास की है लंबी पृष्ठभूमि
राहुल सिंह भाजपा व शिवसेना के रिश्तों में खटास लगातार बढ़ रही है. हालांकि दोनों दल के बीच मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर ताजा नोंक-झोंक शुरू हुई है, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि काफी पुरानी है. लोकसभा चुनाव में देश के साथ-साथ महाराष्ट्र में बेहतर प्रदर्शन के बाद भाजपा अब महाराष्ट्र में शिवसेना की बी टीम […]
राहुल सिंह
भाजपा व शिवसेना के रिश्तों में खटास लगातार बढ़ रही है. हालांकि दोनों दल के बीच मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर ताजा नोंक-झोंक शुरू हुई है, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि काफी पुरानी है.
लोकसभा चुनाव में देश के साथ-साथ महाराष्ट्र में बेहतर प्रदर्शन के बाद भाजपा अब महाराष्ट्र में शिवसेना की बी टीम बन कर नहीं रहना चाहती. बल्कि वह अपना सांगठनिक विस्तार चाहती है, वहीं शिवसेना केंद्र में मोदी व राज्य में उद्धव ठाकरे को चेहरा बता कर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहती है. मंगलवार को आये 10 राज्यों की 33 विधानसभा सीट के चुनाव नतीजे ने भी शिवसेना को हमलावार होने का मौका उपलब्ध करा दिया. शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में भाजपा को चेतावनी देते हुए लिखा है कि पैर को जमीन पर रखें नहीं तो जनता चमड़ी उधेड़ देगी. शिवसेना के ये बयान दोनों दलों के रिश्तों को अनुकूल कतई नहीं बनाएगी, बल्कि इनकी दूरियां और बढ़ेंगी ही. दोनों दिन पूर्व शिवसेना ने मोदी को राजनीति का अछूत भी बताया था.
क्यों और कैसे संबंधों में आती गयी दरार
भाजपा और शिवसेना के बीच पिछले 25 सालों से गंठबंधन है. 1989 के लोकसभा चुनाव में दोनों राजनीतिक दल पहली बार एक साथ आये थे. दोनों दलों का वैचारिक आधार भी एक ही है. हिंदुत्व के मोच्रे पर भाजपा जब-जब राजनीतिक संकट में पड़ी, तब-तब शिवसेना ने उसका समर्थन किया. चाहे राम जन्मभूमि आंदोलन हो या फिर नरेंद्र मोदी पर दंगों को लेकर आरोप.लेकिन हिंदुत्व के अलावा कई ऐसे बिंदु रहे हैं, जिसने भाजपा को अपमानजनक परिस्थिति में डाल दिया. शिवसेना का हिंदी भाषियों के खिलाफ तीखे बोल भाजपा के लिए हमेशा मुश्किलें खड़ा करता रहा है. 2007 के राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा व एनडीए उम्मीदवार भैरो सिंह शेखावत का शिवसेना ने समर्थन नहीं किया, बल्कि मराठी शख्सियत को राष्ट्रपति बनाने में समर्थन देने की बात कहते हुए उसने कांग्रेस उम्मीदवार प्रतिभा पाटील का समर्थन किया. दोबारा 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने कांग्रेस उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी का समर्थन किया. वह राष्ट्रपति पद के भाजपा उम्मीदवार पीए संगमा के समर्थन में नहीं आयी. ये दोनों स्थितियां भाजपा के लिए अपमानजनक थीं. शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के उग्र रुख और भाजपा नेताओं के साथ भी एक तानाशाह की तरह पेश आने को भाजपा व उसके शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी पसंद नहीं किया.
भाजपा ने किया अपना विस्तार
1995 में जब भाजपा और शिवसेना सत्ता में आयी थी. उस समय शिवसेना ने 74 सीटें जीती थी और भाजपा ने 65 सीटें. हालांकि उस दौर तक भाजपा पर ब्राrाण-बनियों की पार्टी होने का लेवल चिपका था, लेकिन पार्टी ने धीरे-धीरे अपना विस्तार किया. पिछड़े वर्ग से आने वाले गोपीनाथ मुंडे जैसे नेता के कारण पार्टी का पिछड़ा समुदाय में पर्याप्त विस्तार हुआ. वहीं, छगन भुजबल, नारायण राणो व राज ठाकरे जैसे कद्दावर नेताओं के बार-बारी से शिवसेना छोड़ने के कारण शिवसेना को नुकसान हुआ. 2005 में राणो ने पार्टी छोड़ दी और उसके कुछ समय बाद राज ठाकरे ने शिवसेना से नाता तोड़ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम से अपनी पार्टी बना ली. मनसे के गठन ने सबसे ज्यादा नुकसान शिवसेना को ही नुकसान पहुंचाया है. मनसे ने अपना कोर वोट बैंक मराठी अस्मिता व हिंदी भाषी विरोधी भावना के आधार पर तैयार किया, जो परंपरागत रूप से शिवसेना का आधार रहा है. स्वाभाविक रूप से इससे शिवसेना को क्षति हुई.
लोकसभा चुनाव परिणाम व सर्वे का असर
महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं, जिसमें भाजपा ने इस बार 23 जीत ली है, जबकि शिवसेना ने 18 सीटें जीती हैं. भाजपा मानती है कि शिवसेना को भी राज्य में सफलता उसकी बदौलत ही मिली है. हाल में एबीपी-निल्सन सर्वे में कहा गया कि चुनाव में भाजपा को 122 सीटें व शिवसेना को 82 सीटें मिलेगी. ऐसे में भाजपा अब राज्य में विधानसभा चुनाव शिवसेना की बी टीम बन कर नहीं लड़ना चाहती है.
सुलह की कोशिश व विकल्प
दोनों दलों के बीच सुलह की भी कोशिश जारी है. भाजपा नेता राजीव प्रताप रूढ़ी ने मंगलवार को कहा है कि दो-तीन दिनों में दोनों दलों के बीच सीटों पर समझौता हो जायेगा. वहीं, बुधवार को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने उन इलाकों के नेताओं की बैठक बुलायी है, जहां से भाजपा चुनाव लड़ती रही है. ठाकरे ने जिला स्तर पर नेताओं से रिपोर्ट मांगी है. ठाकरे भाजपा के बिना चुनाव लड़ने की स्थिति में पार्टी के लिए संभावनाएं टटोल रहे हैं. बहरहाल, अगर दोनों दलों में गंठजोड़ टूटता है (जिसकी संभावना बहुत कम है) तो गठजोड़ का दूसरा विकल्प शिवसेना व राकांपा के साथ आने का बनता है या फिर दोनों भाई उद्धव व राज भी साथ-साथ आ सकते हैं.
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