नयी दिल्ली : नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा जबरदस्त उत्साह में है. ऐसे में वह न तो सहयोगी दलों के दबाव में आने को तैयार है और न ही उनके शर्तो को मानने के लिए मजबूर. भाजपा ने जदयू के विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी को अपने चुनाव प्रचार अभियान समिति का प्रमुख बनाया था, जिससे नाराज होकर जदयू उससे अलग हो गया. अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद व सीटों के बंटवारे के सवाल पर उसका शिवसेना से अलगाव हो गया है.
ठोस बहुमत से सरकार में आयी भाजपा व दक्षिणी राज्यों व गैर हिंदी भाषी प्रदेशों में अपने विस्तार की संभावना को देखते हुए भाजपा क्षणिक लाभ के लिए दीर्घकालिक फायदे से दूर नहीं रहना चाहती है. भाजपा ने अपनी राजनीति में हिंदुत्व, विकास, स्थानीयता का अद्भुत मिश्रण तैयार किया है. उसने मराठी भावना का ख्याल रखते हुए गंठबंधन तोड़ने का एलान अपने प्रदेश स्तरीय नेताओं से ही कराया. महाराष्ट्र में भी शिवसेना से अलग होने के लिए अंतिम रूप से उसने छोटे सहयोगियों के हित रक्षा का बहाना चुना है.
भाजपा ने यह संकेत दिया था कि वह 130 सीटें मिलने पर साथ चुनाव लड़ने के लिए मान जायेगी. शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे अंतत: उसे 126 सीटें देनों को तैयार हो भी गये. लेकिन इसके बदले चार छोटे सहयोगी दलों की सीटें 18 से घटकर सात हो जानी थी. भाजपा ने छोटे सहयोगियों से लंबी मंत्रणा की और इसे शिवसेना से अलग होने का आधार बनाया.
महाराष्ट्र भाजपा के अध्यक्ष देवेंद्र फड़नवीस ने आज कहा भी कि वे अपने छोटे सहयोगियों के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए प्रयास करते रहे. उन्हें न तो अपनी कम सीटें स्वीकार हैं और न ही अपने छोटे सहयोगियों की. यह भी देखना दिलचस्प है कि भाजपा के छोटे सहयोगियों में किसान और दलित नेता हैं, जिनका माजिर्न वोट चुनाव में बड़ा फेरबदल कर सकता है. शेतकारी संगठन के नेता राजू शेट्टी की महाराष्ट्र में एक किसान नेता की छवि है. वे किसानों की समस्याओं को उठाने व उसके लिए संघर्ष करने वाले शख्स की पहचान रखते हैं. जबकि आरएसपी नेता रामदास अठावले दलित समुदाय से आते हैं और इस वर्ग में महाराष्ट्र में उनकी अच्छी-खासी अपील है. शेट्टी व अठावले अपने दम पर भले की कोई करिश्मा नहीं दिखा सकें, लेकिन किसी ताकतवर दल के साथ आने पर अपना असर जरूर दिखा देते हैं.
ताजा उदाहरणों जदयू व शिवसेना से अगर थोड़ा पीछे देखें, तो भाजपा की एक और सहयोगी तृणमूल कांग्रेस से उसके रिश्तों का भी विेषण करना होगा. तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री थीं और उस दौर में तृणमूल को भाजपा का अहम सहयोगी माना जाता था. लेकिन कुछ मुद्दों पर मतभेद होने व मुसलिम वोटों के ध्रुवीकरण के लोभ में ममता बनर्जी भाजपा से अलग हो गयीं. भाजपा अब पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुख्य विरोधी राजनीतिक दल बनने की कोशिश में जुटी है. इस बार हुए लोकसभा चुनाव में उसने इसके संकेत भी दिये. कुछेक सीटें जितने के साथ पार्टी कई सीटों पर दूसरे नंबर पर रही. उसने वहां 12 प्रतिशत वोट भी हासिल किया. यानी संकेत साफ है कि भाजपा को अब यह स्वीकार नहीं है कि कोई उसके विजय रथ को रोके. अगर उसके दोस्त भी ऐसी करते दिखेंगे, तो वह रिश्ते तोड़ने में देर नहीं करेगी.