किरण बेदी प्रकरण : भाजपा में आखिर कौन ले रहा है फैसले?

।।दिल्ली से विष्णु गुप्त।। क्या नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली की तिकड़ी भाजपा पर हावी हो गयी है? पार्टी के सभी महत्वपूर्ण निर्णय में अहम भूमिका निभाने वाला भाजपा संसदीय बोर्ड अब औपचारिकता निभाने भर तक सीमित रह गया है? किसी समय सामूहिक नेतृत्व का दम भरने वाली भाजपा में क्या सबकुछ ठीकठाक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 19, 2015 5:46 PM

।।दिल्ली से विष्णु गुप्त।।

क्या नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली की तिकड़ी भाजपा पर हावी हो गयी है? पार्टी के सभी महत्वपूर्ण निर्णय में अहम भूमिका निभाने वाला भाजपा संसदीय बोर्ड अब औपचारिकता निभाने भर तक सीमित रह गया है? किसी समय सामूहिक नेतृत्व का दम भरने वाली भाजपा में क्या सबकुछ ठीकठाक चल रहा है?

भाजपा के पितामह कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने इसका अंदेशा पहले ही जता दिया था. तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भेजे इस्तीफा पत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से इंगित करते हुए कहा था भाजपा में अब पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा. आडवाणी पूरी जोर लगाकर अपनी बात कहते रहे और नरेंद्र मोदी उतनी ही तेजी से आगे बढ़ते रहे. आडवाणी की चिंताएं सिर्फ मोदी की ताजपोशी से नहीं, अपितु पूरे संगठन को व्यक्ति केंद्रित बनाने से जुड़ी थीं.

गाहे-बगाहे वे उन आदर्शो का चर्चा करते रहे जो जनसंघ के मूल रहे. समय-समय पर उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी के अंदर धीरे-धीरे सामूहिक निर्णय लेने की परंपरा खत्म हो रही है.अब जरा उन दिनों की कल्पना कीजिए, पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी हैं और शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी हैं. दिल्ली भाजपा मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और विजय कुमार मलहोत्रा जैसे नेताओं से भरी पड़ी है. क्या यह संभव है कि ऐसे में वाजपेयी-आडवाणी किसी बाहरी शख्स को दिल्ली भाजपा का चेहरा बनाने का निर्णय ले और इसकी जानकारी खुराना, वर्मा व मलहोत्रा को नहीं हो. कल्पना की दुनिया से बाहर आ जाइए.
आगे कुछ जानना है तो जगदीश मुखी से पूछिए. किरण बेदी के पार्टी में शामिल होने से पूर्व तक वे भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे.
यही बदली हुई भाजपा है. जहां मोदी और शाह की जोड़ी, वाजपेयी और आडवाणी की जोड़ी के तर्ज पर काम नहीं करती. इस जोड़ी में तीसरा नाम अरुण जेटली का है. वे पार्टी के संकट मोचक हैं और सेंसर बोर्ड से सब्सिडी सब विषयों पर बोलने की हैसियत रखते हैं. वे किरण बेदी को भाजपा में ला भी सकते हैं और राज्यसभा में अल्पमत से जूझ रही सरकार के लिए बहुमत जुटाने हेतु जयललिता से मुलाकात भी कर सकते हैं. हालात ये हैं कि दारोगा को दारोगा कहना मुश्किल है. विश्वास नहीं हो तो मनोज तिवारी से पूछिए. सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू और नितिन गडकरी जैसे पार्टी के हैवीवेट नेताओं से भरी हुई संसदीय बोर्ड आज किरण बेदी के नाम पर चर्चा करेगा, लेकिन सवाल यह है कि क्या वह फैसला भी करेगा या औपचारिकता की पूर्ति भर करेगा.किरण जी, आप आश्वस्त रहिए. बदली हुई भाजपा में आपका स्वागत है.

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