बदल रही है मोदी सरकार की विदेश नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा को लेकर भारतीय मीडिया में उत्साह है. टीवी चैनलों पर ‘ओबामा’ छाये हैं. अखबारों में भी ओबामा को खूब जगह दी जा रही है. लेकिन अमेरिकी मीडिया में स्थिति इसके उलट है. अंतरराष्ट्रीय विषयों पर विस्तृत कवरेज करनेवाले अमेरिकी अखबारों जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, यूएस टुडे वगैरह में […]
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा को लेकर भारतीय मीडिया में उत्साह है. टीवी चैनलों पर ‘ओबामा’ छाये हैं. अखबारों में भी ओबामा को खूब जगह दी जा रही है. लेकिन अमेरिकी मीडिया में स्थिति इसके उलट है. अंतरराष्ट्रीय विषयों पर विस्तृत कवरेज करनेवाले अमेरिकी अखबारों जैसे न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, यूएस टुडे वगैरह में ओबामा की भारत यात्र को लेकर इक्का-दुक्का रिपोर्ट ही आयी है. समाचार से हट कर अगर विचार की बात करें, तो लेख भी इस विषय पर गिने-चुने ही हैं. इनमें से कुछ लेखों के अहम हिस्सों को हम यहां दे रहे हैं
ओबामा की भारत यात्रा के सिलसिले में, न्यूयार्क टाइम्स में सिर्फ एक लेख लिखा गया. वह भी भारत नहीं, अमेरिका को ध्यान में रख कर. इसका शीर्षक है ‘फिक्स द लिंक टू पाकिस्तान, बॉन्ड विथ इंडिया’. लेख का लब्बोलुआब यह है कि भारत को पाकिस्तान से जो आतंकी खतरा है अमेरिका उस पर लगाम लगा सकता है, वह भी इसलामाबाद से रिश्ता खराब किये बगैर. इसके लेखक हैं माइकल कगलमैन जो वाशिंगटन स्थित वूड्रो विल्सन अंतरराष्ट्रीय केंद्र में दक्षिण एशिया के लिए सीनियर एसोसिएट हैं.
वह लिखते हैं कि नरेंद्र मोदी और ओबामा कोई गहरी और रणनीतिक साझेदारी तब तक नहीं कायम कर पायेंगे जब तक कि अमेरिका पाकिस्तान के साथ ज्यादा साफ ढंग से निबटना नहीं शुरू करता. दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान को लेकर भारतीय चिंताओं को दूर करने के लिए वाशिंगटन को ज्यादा काम करना होगा. लेकिन इसमें एक पेच है. वाशिंगटन को यह भी ख्याल रखना होगा कि इसलामाबाद से उसके रिश्ते को नुकसान न पहुंचे जो पहले ही काफी नाजुक और अविश्वास से भरा है. क्योंकि रणनीतिक रूप से पाकिस्तान बहुत अहम है. यह काम मुश्किल जरूर है, पर किया जा सकता है.
कगलमैन के मुताबिक
सबसे पहले, भारत में खूनखराबा करनेवाले आतंकी संगठनों को समर्थन देनेवाली पाकिस्तानी सेना को अरबों डॉलर की अमेरिकी मदद रोकी जानी चाहिए. पाकिस्तान सेना जब तक अपने यहां के आतंकियों, जिनमें भारत विरोधी समूह भी शामिल हैं, पर कार्रवाई नहीं करती उसे मदद नहीं दी जानी चाहिए. दूसरी बात, पाकिस्तान आधारित आतंकवाद से भारत की रक्षा करने में वाशिंगटन को मदद करनी चाहिए. उसे आतंकी सरगनाओं पर इनाम रखने से आगे बढ़ना चाहिए. इसका मतलब यह नहीं है कि अमेरिका पाकिस्तान में छापे मार कर आतंकियों को पकड़े और भारत को सौंप दे. बल्कि, अमेरिका को भारत के साथ खुफिया तकनीक में साङोदारी बढ़ानी चाहिए, ताकि आतंकी हमलों के समय रहते रोका जा सके. अच्छी बात है कि ओबामा की यात्रा के दौरान निगरानी ड्रोन (मानवरहित विमान) के सौदे पर बात होने की उम्मीद है.
जिनसे भारत को खतरा है, जैसे कि दाऊद इब्राहिम, उनकी विदेशी वित्तीय संपत्तियों को भी अमेरिका निशाना बनाये. तीसरी बात, अमेरिका कोशिश करे कि पाकिस्तान कुछ समय के लिए अपना ध्यान कश्मीर से हटा कर भारत के साथ सामान्य तिजारती रिश्ते कायम करे.
वह आगे लिखते हैं, अमेरिका को भारत के प्रति पाकिस्तान का डर समझना चाहिए. भारत उससे आबादी में सात गुना, क्षेत्रफल में चार गुना, सेना में दुगना बड़ा है और एक राष्ट्रवादी पार्टी द्वारा शासित है, जो पाकिस्तान विरोधी नजरिये के लिए जानी जाती है. अमेरिका को पाकिस्तान के उस दावे पर ध्यान देना चाहिए कि भारत उसके यहां (खास कर बलूचिस्तान में) अलगाववाद को बढ़ावा दे रहा है. पाकिस्तान 1971 में हुए अपने दो-टुकड़े भूल नहीं पाया है.
वाल स्ट्रीट जर्नल ने किंग्स कॉलेज लंदन में रक्षा अध्ययन के प्रोफेसर हर्ष वी पंत का लेख छापा है जिसका शीर्षक है ‘द यूएस-इंडिया ट्रांसफॉर्मेशन’. वह लिखते हैं सालों बाद भारत-अमेरिका के रिश्ते दोबारा उद्देश्यपूर्ण बन रहे हैं. नरेंद्र मोदी ने सिर्फ आठ महीनों में भारतीय विदेश नीति की दिशा बदल दी है. ओबामा को गणतंत्र दिवस पर बुलाना यह दिखाता है कि मोदी अमेरिका के साथ द्विपक्षीय रिश्तों को और ऊंचाई पर ले जाना चाहते हैं. भारत में वाम-उदार राजनीतिक ढांचा मोदी के इस कूटनीतिक रुझान से असंतुष्ट रहता है. भारत में सबसे ज्यादा दिनों तक शासन करनेवाली कांग्रेस गुटनिरपेक्षता की समर्थक रही है. लेकिन मोदी सरकार इसे दरकिनार कर नये सिरे से साङोदारी बनाना चाहती है. इसी सिलसिले में अमेरिका के अलावा ऑस्ट्रेलिया, इस्नइल, जापान के साथ साङोदारी बढ़ायी जा रही है. इन साङोदारियों के केंद्र में है आर्थिक हित. ओबामा की भारत यात्र के दौरान भी आर्थिक मुद्दे ही हावी रहने की उम्मीद है.
ओबामा की भारत यात्रा को लेकर बीबीसी हिंदी ने कार्नेगी एंडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस संस्था के साउथ एशिया प्रोग्राम के एसोसिएट मिलान वैष्णव से बातचीत प्रकाशित की है. इसमें वैष्णव का कहना है कि खोब्रागड़े मामले को लेकर दोनों देशों के बीच एक कटुता आ गयी थी. मोदी सरकार इसमें सुधार लाने में सफल रही है. इस यात्र की सबसे मुख्य बात है दोनों सरकारों के बीच कामकाजी रिश्ता कायम करना. भारत के संदर्भ में ओबामा के पास चार मुख्य मुद्दे हैं : भारत के परमाणु जवाबदेही कानून के कारण परमाणु सहयोग में आई रु कावट से पार पाना, कार्बन उत्सर्जन पर भारत से नया वादा कराना, भारत-अमेरिका के बीच एक नया रक्षा समझौता और आर्थिक सुधारों पर नये सिरे से आश्वासन पाना ताकि विदेशी निवेशकों को मदद मिल सके.
वहीं भारत अमेरिका से निर्यात होने वाली शेल गैस में अपना हिस्सा सुरिक्षत करना चाहता है. अभी यह निर्यात केवल उन्हीं देशों तक सीमित है, जिनके साथ अमरीका ने मुक्त व्यापार समझौता कर रखा है और इस सूची में भारत नहीं है. भारत इससे स्थायी छूट चाहता है. टेक्नोलॉजी और स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में अमेरिकी निवेश चाहता है. ‘मेक इन इंडिया’ के मार्फत भारत सरकार घरेलू रक्षा उत्पादन को पुनर्जीवित करने को उत्सुक है. यह एक ऐसी जगह है, जहां अमरीकी कंपनियां और तकनीक काफी मूल्यवान साबित हो सकती है. और अंतत: भारत का अपने पड़ोसियों के साथ मुद्दा है. अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी के बाद वहां अस्थिरता की आशंका को लेकर भारत चिंतित है.