पुण्य प्रसून बाजपेयी, वरिष्ठ पत्रकार
इसमें एक तरफ फिर वही दिल्ली के संघर्ष में खोया कार्यकर्ता है, तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर फैले तमाम समाजसेवियों को बटोर कर वैकल्पिक राजनीति की दिशा बनाने की सोच है. यानी दिल्ली में जीत ही नहीं, बल्कि इतिहास रचनेवाले जनादेश की पीठ पर सवार होकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सक्रियता को पैदा करने की कुलबुलाहट है, तो दूसरी तरफ दिल्ली को राजनीति का मॉडल राज्य बना कर राष्ट्रीय विस्तार की सोच है. टकराव जल्दीबाजी का है. टकराव जनआंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों को दिल्ली के जनादेश पर सवार कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने और दिल्ली में मिली चुनावी जीत के लिये किये गये वायदों को पूरा कर दिल्ली से ही राष्ट्रीय विस्तार देने की सोच का है.
लेकिन, यहां सवाल उस बिसात को समझने का है कि जो शांति भूषण, अन्ना आंदोलन से लेकर आप के हक में दिखाई देते हैं. जनता पार्टी के दौर के राजनेताओं से आज भी शांति भूषण के बारे में पूछें तो हर कोई यही बतायेगा कि शांति भूषण वैकल्पिक राजनीति की सोच को ही जनता पार्टी में भी चाहते थे. फिर इस लकीर को कुछ बड़ा करें, तो प्रशांत भूषण हों या योगेंद्र यादव दोनों ही पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा रहे हैं. जन-आंदोलनों के साथ खड़े रहे हैं. जनवादी मुद्दों को लेकर दोनों का संघर्ष खासा पुराना है. और ध्यान दें तो वैकल्पिक राजनीति को लेकर सिर्फ योगेंद्र यादव या प्रशांत भूषण ही नहीं, बल्कि मेधा पाटकर, केरल की सारा जोसेफ, गोवा के ऑस्कर रिबोलो, ओड़िशा के लिंगराज प्रधान, महाराष्ट्र के सुभाष लोमटे, गजानन खटाउ की तरह सैकड़ों समाजसेवी आप में शामिल भी हुए. फिर खामोश भी हुए और दिल्ली जनादेश के बाद फिर सक्रिय हो रहे हैं या होना चाह रहे हैं. जो तमाम समाजसेवी उससे पहले राजनीति सत्ता के लिए दबाव का काम करते रहे, वे अब राजनीति में सक्रिय दबाव बनाने के लिये प्रयासरत हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. फिर ‘आप’ से जुड़ने से पहले के हालात को परखें, तो वाम राजनीति की समझ कमोबेश हर समाजसेवी के साथ जुड़ी रही है. प्रशांत भूषण वाम सोच के करीब रहे हैं, तो योगेंद्र यादव समाजवादी सोच से ही निकले हैं.
लेकिन, केजरीवाल की राजनीतिक समझ वैचारिक धरातल पर बिलकुल नयी है. केजरीवाल लेफ्ट-राइट ही नहीं, बल्कि कांग्रेस-बीजेपी या संघ परिवार में भी खुद को बांटना नहीं चाहते हैं. केजरीवाल की चुनावी जीत की बड़ी वजह भी राजनीति से घृणा करनेवालों के भीतर एक नयी राजनीतिक समझ को पैदा करना है. और यहीं पर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण से केजरीवाल अलग हो जाते हैं. दिल्ली संघर्ष के दौर से केजरीवाल ने पार्टी संगठन के बीच में दिल्ली की सड़कों पर संघर्ष करनेवालों को राजनीतिक मामलों की कमेटी से लेकर कार्यकारिणी तक में जगह दी. वहीं लोकसभा चुनाव के वक्त राष्ट्रीय विस्तार में फंसी आप के दूसरे राज्यों के संगठन में वाम या समाजवादी राजनीति की समझ रखनेवाले वही चेहरे समाते गये, जो जन-आंदोलनों से जुड़े रहे.
केजरीवाल इसी घेरे को तोड़ना चाहते हैं, जबकि योगेंद्र यादव दिल्ली से बाहर अपने उसी घेरे को मजबूत करना चाहते हैं, जो देशभर के जनआंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों को एक साथ खड़ा करे. केजरीवाल की राजनीति दिल्ली को मॉडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार देने की है. दूसरी तरफ की सोच केजरीवाल के दिल्ली सरकार चलाने के दौर में ही राष्ट्रीय संगठन बना लेने की है. केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर हर राज्य के उन युवाओं को राजनीति से जोड़ना चाहते हैं, जो अपने राज्य की समस्या से वाकिफ हो और उन्हें राजनीति वैचारिक सत्ता प्रेम के दायरे में दिखाई न दे, बल्कि राजनीतिक सत्ता न्यूनतम की जरूरतों को पूरा करने का हो. यानी सुशासन के लिए काम कैसे होना चाहिए यह वोटर तय करें, जिससे जनता की नुमाइंदगी करते हुए आम जन ही दिखाई दे. जिससे चुनावी लड़ाई खुद ब खुद जनता के मोरचे पर लड़ा जाये.
जाहिर है ऐसे में वह वैकल्पिक राजनीति पीछे छूटती है, जो आदिवासियों को लेकर कहीं कॉरपोरेट से लड़ती है, तो कहीं जल-जंगल-जमीन के सवाल पर वाम या समाजवाद को सामने रखती है. नयी राजनीति के दायरे में जन-आंदोलन से जुड़े समाज-सेवियों का कद महत्वपूर्ण नहीं रहता. असल टकराव यही है, जिसमें संयोग से संयोजक पद भी अहम बना दिया गया, क्योंकि आखिरी निर्णय लेने की ताकत संयोजक पद से जुड़ी है. लेकिन, सिर्फ दो बरस में दिल्ली को दोबारा जीतने या नरेंद्र मोदी के रथ को रोकने की ताकत दिल्ली में ‘आप’ ने पैदा कैसे की और देश में बिना दिल्ली को तैयार किये आगे बढ़ना घाटे की सियासत कैसे हो सकती है, अगर इसे वैकल्पिक राजनीति करनेवाले अब भी नहीं समझ रहे हैं, तो नयी राजनीति करनेवालों को भी समझना होगा कि उनकी अपनी टूट उसी पारंपरिक सत्ता को ऑक्सीजन देगी, जो दिल्ली जनादेश से भयभीत है और आम आदमी से डरी हुई है.