नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने आज अहम फैसला सुनाते हुए केंद्रीय नौकरियों व शिक्षा संस्थानों में जाट आरक्षण को रद्द कर दिया है, हालांकि नौ राज्यों में यह आरक्षण जारी रहेगा. कोर्ट ने ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द कर दिया है.आपको बता दें कि पिछले साल मार्च में तात्कालीन यूपीए सरकार ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी लिस्ट में शामिल किया था, जिस पर एनडीए सरकार ने भी कोई फेरबदल नहीं किया था. इसके आधार पर जाट भी नौकरी और उच्च शिक्षा मेंओबीसी समूह के लिए आरक्षित 27 प्रतिशत आरक्षण के हकदार हो गये थे.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र का फैसला काफी पुराना है. आरक्षण का आधार सिर्फ जाति नहीं होना चाहिए. इसके लिए सामाजिक पृष्ठभूमि भी देखनी होगी. कोर्ट ने कहा कि सरकार को ट्रांस जेंडर जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाना चाहिए. जाटों की सामाजिक स्थिति आरक्षण के लायक नहीं है.
न्यायमूर्ति तरुण गोगोई और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन की पीठ ने कहा, ‘‘हम केंद्र की अन्य पिछडा वर्ग (ओबीसी) की सूची में जाटों को शामिल करने की अधिसूचना निरस्त करते हैं.’’ पीठ ने राष्ट्रीय पिछडा वर्ग आयोग के उस निष्कर्ष की अनदेखी करने के केंद्र के फैसले में खामी पाई जिसमें कहा गया था कि जाट केंद्र की ओबीसी सूची में शामिल होने के हकदार नहीं हैं क्योंकि वे सामाजिक-आर्थिक रुप से पिछडे वर्ग नहीं हैं. इसने ओबीसी आरक्षण पर मंडल आयोग की सिफारिशों के कार्यान्वयन पर वृहद पीठ के निर्णय का हवाला दिया और कहा, ‘‘जाति यद्यपि एक प्रमुख कारक है, लेकिन यह किसी वर्ग के पिछडेपन का निर्धारण करने का एकमात्र कारक नहीं हो सकती.’’ पीठ ने यह भी कहा, ‘‘अतीत में ओबीसी सूची में किसी जाति को संभावित तौर पर गलत रुप से शामिल किया जाना दूसरी जातियों को गलत रुप से शामिल करने का आधार नहीं हो सकता.’’
न्यायालय ने यह भी कहा कि जाट जैसे राजनीतिक रुप से संगठित वर्ग को शामिल किए जाने से दूसरे पिछडे वर्गों के कल्याण पर प्रतिकूल असर पडेगा. पीठ ने यह भी कहा कि हालांकि भारत सरकार को संवैधानिक योजना के तहत किसी खास वर्ग को आरक्षण उपलब्ध कराने की शक्ति प्राप्त है, लेकिन उसे जाति के पिछडेपन के बारे में दशकों पुराने निष्कर्ष के आधार पर ऐसा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती. यह फैसला ‘ओबीसी रिजर्वेशन रक्षा समिति’ द्वारा दायर जनहित याचिका पर आया है. इस समिति में केंद्र की पिछडा वर्ग सूची में शामिल समुदायों के सदस्य शामिल हैं. याचिका में आरोप लगाया गया था कि चार मार्च की अधिूसचना तत्कालीन केंद्र सरकार ने लोकसभा चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होने से एक दिन पहले जारी की थी, ताकि तत्कालीन सत्तारुढ पार्टी को वोट जुटाने में मदद मिल सके.
शीर्ष अदालत ने एक अप्रैल को केंद्र से पूछा था कि उसने जाट समुदाय को आरक्षण के लाभों से दूर रखने के लिए राष्ट्रीय पिछडा वर्ग आयोग (एनसीबीएसी) की सलाह की कथित अनदेखी क्यों की. न्यायालय ने यह भी कहा था कि मामला ‘‘गंभीर’’ है और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रलय को निर्देश दिया था कि वह इसके समक्ष फैसले से संबंधित सभी सामग्री, रिकॉर्ड और फाइलें रखे, जिससे कि यह देखा जा सके कि चार मार्च को अधिसूचना जारी करते समय ‘‘सरकार ने दिमाग लगाया था या नहीं.’’